
By रंजना
क्या आमिर को यहां कबीर से सीखने की जरूरत नहीं है? कबीर ने पोंगापंथी पर कड़ा प्रहार किया था, लेकिन अपनी सभ्यता नहीं खोई। अनपढ़ कबीर के दोहों में वह सब कुछ है जो हजार ‘पीके’ बनाकर भी बॉलीवुड उनके पायदान तक नहीं पहुंच सकता। बॉलीवुड को ध्यान रखना चाहिए कि इतने बड़े कटाक्ष के बाद भी कबीर को समाज ने श्रेष्ठजन की श्रेणी में रखा, लेकिन लगता है कि आमिर खान और राजकुमार हिरानी उनसे कुछ नहीं सीख पाए।
आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ आपने देखी होगी। एक दृश्य है जिसमें पेड़ के नीचे एक पत्थर रखकर उस पर एलियन पान की पीक दे मारता है। पान के पीक से लाल रंग में बदले इस पत्थर के नीचे कुछ सिक्के डाल देता है। आने-जाने वाले उस पत्थर को भगवान समझकर पूजने लगते हैं और पलक झपकते ही हजारों रूपए एकत्रित हो जाते हैं। ….सिनेमा हॉल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठता है, लेकिन क्या इस दृश्य को देखने वाले किसी दर्शक के मन में ईशनिंदा का विचार कौंधा? क्या आमिर खान इसी तरह का कोई दृश्य इस्लाम या ईसाई धर्म का मजाक उड़ाकर दिखा सकते हैं? फिर यह एक बड़ा सवाल है कि आखिर आमिर खान को ईशनिंदा का अधिकार किसने दिया। आखिर किस बिना पर हिन्दू देवी-देवताओं को उपहास का पात्र बनाया जा रहा है?
दुनिया में ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जिसमें कुछ न कुछ पोंगापंथी नहीं है। बैतुलमोकद्दस (पैगम्बर मोहम्मद ने यहीं से मिराज की सैर की थी) से लेकर बंगाल की खाड़ी तक धर्म की बड़ी सत्ता है, झगड़े हैं और झगड़े के नाम पर तमाम संघर्ष हैं। कहीं शिया-सुन्नी लड़ रहे हैं तो कहीं ईसाई और इस्लाम धर्म के बीच सभ्यता का संघर्ष है तो कहीं हिंदू धर्म के साथ हितों का टकराव है। इस क्षेत्र के आर-पार की दुनिया में अल्लाह, भगवान, गॉड सब काफी हद तक गौंण हैं। वहां आविष्कार है, सृजनात्मकता, रचनात्मकता, जीवन की गुणवत्ता का बोध ज्यादा है। इसे मानव सभ्यता की जीवन जीने की शैली से जोड़ा जा सकता है और इसी आधार पर भारत ने धर्म से निकली सभ्यता को महत्व देते हुए इसे आस्था का प्रश्र बताया। भारत में भी आस्था को विशेष दर्ज प्राप्त है। शासन और धर्म की सत्ता इसी आधार पर आपस में टकराने से परहेज करती है। इसी भावना की कद्र करके मानव समाज ने पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट की आलोचना की। मुस्लिम समाज ने तीव्रतम निंदा की और देश की तमाम कट्टरपंथी जमात ने काटूर्निस्ट का सिर कलम करने वाले को ईनाम देने तक की घोषणा की। आखिर ऐसे संदर्भों को राजकुमार हिरानी या फिर आमिर खान सफलता पाने की लालच में क्यों भूल गए?
क्या आमिर को यहां कबीर से सीखने की जरूरत नहीं है? कबीर ने पोंगापंथी पर कड़ा प्रहार किया, लेकिन अपनी सभ्यता नहीं खोई। अनपढ़ कबीर के दोहों में वह सब कुछ है जो हजार ‘पीके’ बनाकर भी बॉलीवुड उनके पायदान तक नहीं पहुंच सकता। बॉलीवुड को ध्यान रखना चाहिए कि इतने बड़े कटाक्ष के बाद भी कबीर को समाज ने श्रेष्ठजन की श्रेणी में रखा, लेकिन लगता है कि आमिर खान और राजकुमार हिरानी इससे कुछ नहीं सीख पाए। भारत नदियों, पेड़ों, पशुओं, पत्थरों, चांद-तारों सहित प्रकृति के कण-कण को पूजने वाला देश है। घट-घट व्यापी राम हैं। पीपल में कृष्ण बसते हैं। मंदिरों की घंटियों की रुनझुन में सभ्यता के प्राण बसते हैं। हिन्दू धर्म में पूजा, प्राण प्रतिष्ठा, आस्था, संस्कार के माध्यम से मनुष्य को सभ्यता के तमाम अदृश्य बंधनों में बांधा गया है। ऐसा आज से नहीं सदियों से, पुरातन से है। प्राणियों में सद्भावना मूल मंत्र है। मछली, कुत्ता, हाथी, बंदर, बैल, शेर सब पूजे जाते हैं, क्योंकि ये देवी-देवताओं के वाहक माने जाते हैं। नदियों में प्रवाहित होने वाले द्वीप, सूर्य के अघ्र्य, संध्या और प्रात: वंदन जीवन की एक ऋचा है। इसी मर्म ने हिन्दू धर्म के अनुयायीयों को सरल, सहज, सौहाद्र्रपूर्ण, आत्मसात करने वाला प्रकृति-पशु का प्रेमी बनाया। ऐसा नहीं लगता कि आमिर कहीं से भी इस मर्म को समझ पाए।
यह मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होगा कि सनातन परंपरा को दरकिनार करते हुए समाज में कुछ पोंगापंथी आए हैं। ढोंगी पैदा हुए हैं। झाड़-फूंक, लूट-खसोट, जादू-टोटका, वशीकरण, मुठकरणी न जाने क्या-क्या कर रहे हैं। इससे सभ्य समाज को दूर ले जाने की जरूरत है, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी धर्म को हास्य की वस्तु बनाया जाए। लोगों की आस्था पर चोट की जाए, उसका मजाक बनाया जाए। धर्म ने आस्था और भक्तिभाव को शीर्ष संज्ञा दी है। भगवान राम ने रामेश्वरम् में समुद्र की रेत से शिवलिंग बनाया और पूजा शुरू कर दी। आज का रामेश्वरम् वही है। इसका आशय यह है कि भक्ति में सद्भाव और सच्चाई हो तो कहीं भी, किसी भी कण को भगवान मानकर पूजा की जा सकती है और सभ्यता से भरे धर्म निभाए जा सकते हैं। राक्षसी प्रवृत्ति छोड़ी जा सकती है। ऐसा नहीं लगता कि यह आमिर खान को पता होगा। फिल्म के निर्माता-निर्देशक इसे समझते होंगे। शायद ही उन्हें संस्कृत में लिखी इन दो लाइनों का भी अंत:स्थल पता हो-
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे भवन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद दु:ख भाग्भवेत।
कभी ऐसे ही क्रिया-कलाप मशहूर पेंटर स्व. मकबूल फिदा हुसैन के थे। उन्होंने ख्याति पाने के लिए देवी-देवताओं का अपमान किया और अभिजात्य वर्ग ने उन्हें श्रेष्ठ कलाकार की संज्ञा दे दी। श्रेष्ठता हमेशा सृजनात्मकता में होती है। रचनात्मकता उसका आभूषण होती है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी मूर्तिपूजा का विरोध किया था। राम मोहन राय ने विधवा के सती होने से मुक्ति दिलाने का अभियान चलाया था, लेकिन उनके प्रयासों में एक सोच थी, तरीका-सलीका था। टकराव और विध्वंस का रास्ता नहीं था। इसलिए यदि शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती इसे ईशनिंदा मान रहे हैं तो आखिर इसमें गलत क्या है।