
By महेशचन्द शर्मा
आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को भगवद्गीता सुनाई थी। यह मानवीय इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता है। गीता की भाषा संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते हैं, इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति सहित विचार करने से इसके पद-पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रतीत होता है। श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही है। गीता का निष्काम कर्म का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। यह ईश्वरीय वाणी है, जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार एवं आधार है। मैं कौन हूं? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहां और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहां जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं। हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते। गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान् ने धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात् परम ईश्वर हैं, जिन्होंने इस धराधाम पर अवतार लिया था और इस समय एक राजकुमार की भूमिका अदा कर रहे थे। वे पाण्डु की पत्नी कुन्ती या पृथा के भतीजे थे। श्रीकृष्ण धर्म के पालक होने के कारण वे पाण्डुपुत्रों का पक्ष लेते रहे और उनकी रक्षा भी करते रहे।
गीता पढऩा मनुष्य का अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम आदि में किसी भी स्थिति में हो। इसके लिए उसे श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये, क्योंकि भगवान् ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिए आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि भी मेरे परायण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं। इसका साधारण लोगों ने अर्थ लगाया कि गीता वैराग्य उत्पन्न करती है, अत: गृहस्थों को गीता और महाभारत का अध्ययन नहीं करना चाहिये, जोकि पूर्णत: गलत है।
अत्यन्त सच्चरित्र पांचों पाण्डवों ने श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में पहचान लिया था, किन्तु धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्र उन्हें नहीं समझ पाये थे। फिर भी श्रीकृष्ण ने विपक्षियों के इच्छानुसार ही युद्ध में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा। ईश्वर के रूप में वे युद्ध नहीं कर सकते थे, किन्तु जो भी उनकी सेना का उपयोग करना चाहे, कर सकता था। राजनीति में कुशल दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की सेना को झपट लिया और पाण्डवों ने श्रीकृष्ण को। इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और उन्होंने उस सुप्रसिद्ध धनुर्धर का रथ हांकना स्वीकार किया। इस तरह हम उस बिन्दु तक पहुंच जाते हैं, जहां से भगवद्गीता का शुभारम्भ होता है। दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार खड़ी हैं और धृतराष्ट्र अपने सचिव संजय से पूछ रहे हैं कि उन सेनाओं ने क्या किया?
मानव समाज में गीता जीवन की चरम सिद्धि प्रदान करने वाली है। ऐसा क्यों है, इसकी पूरी व्याख्या भगवद्गीता में है। दुर्भाग्यवश संसारी झगड़ालू व्यक्तियों ने अपनी आसुरी लालसाओं को अग्रसर करने तथा लोगों को जीवन के सिद्धान्तों को ठीक से न समझने देने में भगवद्गीता से लाभ उठाया है। प्रत्येक व्यक्ति को जानना चाहिए कि ईश्वर या श्रीकृष्ण कितने महान हैं और जीवों की वास्तविक स्थितियां क्या हैं? प्रत्येक व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि ‘जीव’ नित्य दास है और जब तक वह कृष्ण की सेवा नहीं करेगा, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ता रहेगा, यहां तक कि मायावादी चिन्तक को भी इसी चक्र में पडऩा होगा। यह ज्ञान एक महान विज्ञान है और हर प्राणी को अपने हित के लिए इस ज्ञान को सुनना चाहिए।
धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म-स्वभाव एवं जीव-स्वभाव के लिए जगह-जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपे्रक्ष्य में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाए कि धर्म ही आत्मा है। आत्मा का स्वभाव है – पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके विपरीत अज्ञान, अशान्ति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है।
आत्मा अक्षय ज्ञान का श्रोत है। ज्ञानशक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया-शक्ति का उदय होता है, प्रकति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है। सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है। तम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियां प्रबल होती हैं।
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है – बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रखो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है, क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है। जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है, उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्रीभगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है। अत: इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है।