
माओवादियों की सक्रियता के केंद्र बस्तर में 10 से 13 अप्रैल के बीच पुलिस पर फिर तीन हमले हुए। इनमें 13 जवान शहीद हो गए और करीब इतने ही आहत हुए, जिनमें से तीन की हालत नाजुक है। ऐसे औचक छापामार हमलों की आशंका बनी हुई थी। इंटेलिजेंस ब्यूरो ने राज्य सरकार को सतर्क भी किया था। पुलिस और अद्र्धसैनिक बल सक्रिय भी हुए थे। परंतु उनकी गतिविधियों की जानकारी माओवादी अपने खुफिया तंत्र के माध्यम से जुटा पाने में सफल हो गए। सरकारी गुप्तचर तंत्र एक बार फिर मात खा गया। वैसे माओवादी गतिविधियों पर गंभीरता से विचार करने वाले सूत्र कुछ समय से आसन्न आतंकी हमलों की आशंका व्यक्त कर रहे थे।
आशंका के दो बड़े कारण थे: पहला यह कि गत आठ-दस महीनों से जिस बड़ी संख्या में माओवादी पुलिस के सामने समर्पण कर रहे थे, उससे उनके नेतृत्व में चिंता उत्पन्न हो रही थी। अपने ‘कैडर’ के बिखरते मनोबल को संजोने के लिए उनके लिए यह प्रमाणित करना आवश्यक हो गया था कि वे अपनी शक्ति और आक्रामक सामथ्र्य अभी चुकी नहीं है। दूसरा कारण यह कि खेती-बाड़ी से फुर्सत पा रहे अपने लड़ाकुओं को फिर से सक्रिय किया जाए। बस्तर की प्रचुर नैसर्गिक संपदा माओवादियों की आय का सबसे बड़ा जरिया है। इसको खो देना उनके लिए आत्मघाती होता। यही कारण है कि मानसून के आने तक उनके हमलों में इजाफा होने की आशंका बनी हुई है।
पिछले तीन-चार वर्षों में माओवादियों पर पुलिस और केंद्र द्वारा तैनात अद्र्धसैनिक बलों का दबाव चरमपंथ प्रभावित क्षेत्रों में बढऩे लगा था। सुरक्षा बलों ने उनके वर्चस्व वाले खासे भू-भाग से उन्हें खदेडऩे में सफलता पाई थी। भ्रष्टाचार और भय से ग्रस्त स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन तंत्र ने यदि उनका साथ दिया होता तो वे आदिवासियों का विश्वास जीत पाने के अभियान में भी सुरक्षाकर्मी काफी सफल हो जाते। ऐसा न हो पाना सुरक्षा बलों की बड़ी कमजोरी और माओवादियों की शक्ति है। आदिवासी के विश्वास के अभाव में सुरक्षा बलों का खुफिया तंत्र खड़ा हो नहीं सकता, लेकिन यह कह देना भी अन्याय होगा कि सुरक्षा बल और प्रशासन आदिवासियों का भरोसा हासिल करने में पूरी तरह विफल रहे हैं। सही सूचनाएं उन्हें भी मिलती हैं और उस आधार पर धावा बोल कर वे चरमपंथियों को घेरने और मार गिराने में भी सफल होते हैं। चार-पांच महीनों में इस सफलता के अनेक दृष्टांत सामने भी आए हैं। उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों का मनोबल चरमपंथी हमलों के दौरान भी अब टूटता नहीं है। दक्षिण बस्तर में पुलिस के अनुमान से बहुत तादाद में जब सशस्त्र माओवादियों ने 49 पुलिस वालों को तीन तरफ से घेर कर गुरिल्ला हमला बोला तो पुलिस ने डटकर लोहा लिया। अपने 7 जवान शहीद होने के बावजूद भी उन्होंने हौसला नहीं खोया। तत्काल मोर्चा संभालकर उन्होंने जो जवाबी आक्रमण किया उसमें खासी संख्या में चरमपंथी भी मारे गए। पुलिस और स्थानीय मीडिया ने दावा किया है कि 25-30 चरमपंथी लड़ाकू मारे गए। इस दावे को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।
सुरक्षा बलों के मनोबल को संबल देने के लिए राजसत्ता ने भी धैर्य के साथ साहस का परिचय दिया। 14 अप्रैल को मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मुख्य सचिव और कुछ शीर्ष अधिकारियों ने उसी नक्सली मांद में धमक दी जिसे सुरक्षा की दृष्टि से बहुत खतरनाक माना जाता है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने राज्य सरकार के लोक सुराज अभियान की शुरूआत लाल आतंक के गढ़ बस्तर के बीजापुर से की। वहां सीआरपीएफ जवानों से सहभोज के दौरान आत्मीय संवाद भी किया। पढऩे-सुनने में ये बातें सामान्य लगती हैं, परंतु इनका जवानों पर बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।
आज वाम-चरमपंथी हिंसा से देश में बहुत रक्तपात होता आ रहा है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों की हिंसक घटनाओं को मिलाकर भी बस्तर और उसकी सीमाओं से लगे चार राज्यों के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाकर्मी तथा उनके मुखबिर होने के आरोप में अधिक आदिवासी मारे जा रहे हैं। अतिरिक्त चिंता का कारण यह है कि जिन विकास कार्यों के माध्यम से आदिवासियों का विश्वास अर्जित किया जा सकता है, उनमें माओवादी हिंसा बड़ा व्यवधान डालती है। पुलिस पर ताजा हमलों के साथ ही भवन और सड़क निर्माण में लगे वाहनों और अन्य उपकरणों को बड़ी संख्या में चरमपंथियों ने नष्ट कर दिया।
माओवाद प्रभावित दस राज्यों में पदस्थ सुरक्षाबलों को केंद्रीय गुप्तचर तंत्र ने माओवादी नेतृत्व द्वारा अपनाई जा रही नई रणनीति के प्रति सतर्क किया। छत्तीसगढ़ पहुंचे सीआरपीएफ के विशेष महानिदेशक के. दुर्गा प्रसाद ने सुरक्षा की सारी स्थिति का प्रत्यक्ष जायजा लेने के बाद जवानों के लिए कुछ नये निर्देश जारी किये हैं। उन्हें बेहतर रणनीति बनाने के सूत्र भी दिए गए हैं। गर्मियों के खुले मौसम में चरमपंथियों की टोह लेने के लिए मानवरहित वैमानिक वाहन (यूएवी) मुहैया कराने की व्यवस्था की गई है। पिछले महीनों में जो दिशा-निर्देश केंद्रीय कमान ने दिए थे उन पर अमल का परिणाम यह हुआ कि सुरक्षाकर्मियों की यथासंभव कम क्षति हुई और चरमपंथी बहुत कम हथियार लूटकर ले जा पाए। राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी माओवादियों की सामरिक शक्ति और रणनीति पर पैनी निगाह रख रही है।
मानसून के आने को बचे डेढ़-दो महीनों तक माओवादी हमलों के स्वरूप को शीर्ष स्तर पर तैनात सुरक्षाबलों के नेतृत्व तक पहुंचा दिया गया है। केंद्र तथा राज्य की राजनीति के साथ ही सुरक्षा तंत्र में समझ का सेतु बनाने की जो नई पहल होने के संकेत मिले हैं, उनसे लगता है आक्रामक रणनीति पर तत्काल अमल शुरू होने वाला है। दूसरी ओर सशस्त्र चरमपंथियों द्वारा भी अधिक संहारक हथियारों से लैस होने की सूचनाएं सरकारी गुप्तचर तंत्र को मिली हैं। स्पष्ट है संघर्ष और कड़ा होगा। उसकी सबसे ज्यादा मार स्थानीय निवासियों पर पडऩा स्वाभाविक है। ताजा शक्तिपरीक्षण में उनका भरोसा जीतना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह के सुझाव इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। दरअसल छ:-सात दशकों से ठगे जा रहे शोषित-उत्पीडि़त आदिवासियों के अधिकारों की बहाली का यही उपयुक्त समय भी है।
एक आयोजन में रायपुर में आए मोदी सरकार में विदेश राज्यमंत्री जनरल वी. के. सिंह ने बस्तर में ताजा नक्सली हमलों के संदर्भ में पत्रकारों से हुई चर्चा में रहस्योद्घाटन किया कि जब वह सेनाध्यक्ष थे तो 2010 में बस्तर के ताड़मेटला में सीआरपीएफ के शिविर पर हुए बड़े नक्सली हमले के बाद वहां सेना की तैनाती पर विचार किया गया था। उस हमले में 76 जवान शहीद हो गए थे। चूंकि वाम-चरमपंथियों के साथ सामान्य आदिवासी नागरिक भी सैन्य अभियान में मारे जाते, इसलिए सेना की तैनाती टाल दी गई। जनरल सिंह ने बस्तर में लाल आतंक की समाप्ति के विषय में सुझाव दिया कि यदि आदिवासी को उसके जंगल, जल और जमीन पर हक बहाल कर दिया जाए तो वे माओवादियों से विरक्त हो जायेंगे। वे स्वयं भी हिंसा से तंग आ चुके हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह इससे पूर्व ही कह चुके हैं कि बस्तर की संपूर्ण नैसर्गिक संपदा पर पहला अधिकार आदिवासी का ही है और इसी दृष्टि से राज्य सरकार उन्हें वनभूमि अधिकार पत्र देने की योजनाओं पर गत चार-पांच वर्षों से काम कर रही है।
फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आजादी से पहले और आजादी के बाद भी आदिवासियों का भयावह शोषण हुआ है। राजनीति, व्यापार और प्रशासन से जुड़े छोटे-बड़े लोगों ने उन पर अत्याचार भी किये हैं। बस्तर के आदिवासियों के बीच रहकर उन्हें निकट से देखने और समझने वाले उनके शोषण और उत्पीडऩ के बारे में आजादी के पहले और बाद में लिखते रहे हैं। रायपुर के कमिश्नर और फिर मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव रहे आर.पी. नरोन्हा ने करीब चार दशक पहले लिखा था: ”आदिवासियों से मेरा परिचय 1940 से है… मैं सागर, मंडला, रायपुर और बिलासपुर में उनके साथ रहा। मैंने उन्हें समझने का प्रयास किया। उनके साथ मेरा रिश्ता 30 वर्षों तक जारी रहा। मेरे भीतर वे एक गहन अपराधबोध जागृत करते हैं। हमने उनसे उनका आवास-कक्ष भी छीन लिया। अंग्रेजों ने उनके जंगल छीन लिए, क्योंकि वहां बेशकीमती इमारती लकड़ी थी और आकर्षक शिकार थे। पहाडिय़ों में खनिज थे, इसलिए स्वतंत्र भारत ने उनकी पहाडिय़ां ले लीं। जब पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों का दंडकारण्य में बसना शुरू हुआ तो मैंने एच.एम. पटेल से पूछा कि आदिवासियों का क्या होगा? श्री पटेल क्षेत्र में सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों और ‘सभ्यता’ के साथ आने वाली सुविधाओं के प्रति आशान्वित थे। मैंने संदेह से पूछा, ‘परंतु उनकी धरती का क्या होगा? अभी तो नहीं, परंतु जब उनकी जनसंख्या बढ़ेगी तो वे खेती कहां करेंगे? उसका कोई उनके पास उत्तर नहीं था। किसी गैर आदिवासी के लिए और स्वयं मेरे लिए भी यह समझ पाना असंभव है कि जमीन का आदिवासी के लिए क्या अर्थ होता है। इस धरती के साथ उसका अपना जीवन जुड़ा हुआ है। यह वह धरती देवी है, जिसने सबको जन्म दिया है। चूंकि यह उसकी धरती है, यह उसकी मां है जिससे वह उस नाभिनाल से जुड़ा है जो कभी भी जुदा नहीं की जा सकती।’’ (पृष्ठ 77, ए टेल टोल्ड बॉय एन इडियट, विकास पब्लिशिंग हाउस, 1976)। आज चार दशक पूर्व व्यक्त स्व. नरोन्हो के विचार अधिक प्रासंगिक हैं। सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें गंभीरता से ले।
रायपुर से रमेश नैयर