भूकंप एक प्राकृतिक घटना है जो भविष्यवाणी को खारिज कर देता है। फिर भी, इसके अंतिम क्षण की संवेदनशीलता को पशु-पक्षी महसूस कर लेते हैं। मनुष्य की असंगत एवं अन्यायपूर्ण लालच के कारण भूकंप जैसी आपदाएं आती हैं। दिल्ली जैसे 4 और 5 स्तर वाले खतरनाक भूकंपीय जोन में आवासों के अनियंत्रित निर्माण इसके उदाहरण हैं।
अगर दो सदियों के उपलब्ध आंकड़ों का आंकलन और समीक्षा करें तो हिमालय जैसा अपेक्षाकृत युवा एवं नाजुक पर्वत श्रृंखला हिमस्खलन, भूस्खलन, बादल फटने और भूकंप जैसे महाविनाशों के लिए हमेशा अतिसंवेदनशील रहा है। हिमालय के दो विशालकाय भागों में से पूर्वी भाग ज्यादा जोखिम भरा है, जो लगातार तनाव का कारण भी है। विश्व के सबसे अधिक जैव-विविधता वाला क्षेत्र होने के अलावा यह भूभाग बर्फ से ढकी हुई कई खुबसूरत पहाडिय़ों से घिरा हुआ है। इन पहाडिय़ों की औसत ऊंचाई 22 हजार से भी अधिक है। हालांकि कोई निश्चितता के साथ नहीं कह सकता, लेकिन ब्रिटीशराज के दौरान से ग्लेशियर के धीमे क्षरण में वृद्धि और पिछले दो दशकों के दौरान रोमांच प्रेमियों की वाणिज्यिक पर्वतारोहण की बढ़ती गतिविधियों ने इस आग में घी डालने का काम किया है। वर्तमान प्राकृतिक आपदा को देखते हुए क्या भारत और नेपाल, दोनों देशों द्वारा इस तरह के आरोहण को बंद नहीं कर देना चाहिए?
जल-विद्युत परियोजनाओं के बड़े पैमाने पर निर्माण के द्वारा स्थानीय वनस्पति और जीवों को लगातार नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ पहाड़ के निवासियों की स्थायी आजीविका को भी खतरा पहुंचाया जा रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग अपनी पत्नियों, कुपोषण के शिकार बच्चों और बुजुर्ग माता-पिता को छोड़कर भ्रामक हरित चारागाह के लिए घाटी के नीचले हिस्से में बस जाते हैं। उन्हें भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ जैसी विपत्तियों में अपने कमाऊ परिजनों की अनुपस्थिति में खुद को बचाना पड़ता है। पूरी तरह अप्रभावी प्रशासनिक तंत्र, नाम-मात्र की स्वास्थ्य सेवाएं एवं शिक्षा और संभवत: लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता ने इस संकट को और भी गहरा कर दिया है। हालांकि बचाव एवं पुनर्वास कार्यक्रम युद्ध स्तर पर शुरू हुआ, लेकिन इन कारकों पर ध्यान देने की जरूरत है। इस आपदा में विश्व का ध्यान मुख्य रूप से देश की राजधानी पर ही ज्यादा है।
81 सालों में पहली बार आई भयानक आपदा के चार दिन बाद भी नेपाल के गोरखा जिले के सुदूर गांवों में निराशाजनक परिदृश्य देखने को मिला। यह गांव 7.9 रिक्टर स्केल की माप वाले भूकंप का धूरी था। एक सूत्र के अनुसार, 150 कमजोर मकानों में से 140 मकान बचाव दलों द्वारा पूरी तरह जमींदोज पाए गए। यह कहने की जरूरत नहीं कि इससे बड़ी संख्या में जान-माल की क्षति हुई है।
इस गंभीर स्थिति को देखते हुए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं-
- आपदा की सूचना पर दशहतपूर्ण प्रतिक्रिया न दें।
- घटना की जानकारी के लिए किसी भी समाचार, सूचना, अफवाह की जांच करें।
- सूचनाएं स्थानीय भाषा में प्रेषित करनी चाहिए, जिसमें पंचायत या स्थानीय निकाय का महत्वपूर्ण योगदान हो। क्योंकि, 1988 के बाद पांच-छह बड़े भूकंप दोपहर या गोधूली बेला में आए हैं।
- जब आप बड़े स्थानों से हेलिकॉप्टर या एयरक्राफ्ट की ओर भागते हैं तो वे या तो स्पष्ट सिग्नल या दृश्य की स्पष्टता के कारण
- उतर नहीं पाते। लैंडिंग के बाद भी उसे स्थिर रखना मुश्किल होता है। इससे सुनहरे समय लुप्त हो जाते हैं।
- पर्वतीय अनुभव वाले व्यक्तियों के नेतृत्व में बचावदल का गठन हो। उस दल को सावधानी से कार्य करना चाहिए, न कि संकट को और बढ़ाना चाहिए।
- आपदा के बाद का दिन बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। योजना बनाना, फंसे हुए लोगों को निकालना, घायलों को पहुंचाना, रास्तों का निर्माण करना, अस्थायी अस्पतालों का निर्माण आदि कई कार्य करने होते हैं।
- स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा पीने का पानी, खाद्य सामग्री और मेडिकल सुविधा के आयोजन का ध्यान रखना।
- प्रभावी एवं स्पष्ट संचार तंत्र द्वारा स्थानीय नौकरशाही से समन्वय करना और पुनर्वास के बारे में प्रभावी सूचनाएं पहुंचाना।
- खाद्य सामग्री, बोतलबंद पानी, गर्म कपड़े, आवश्यक दवाईयों आदि की लगातार और निर्बाध आपूत्र्ति को युद्ध
- स्तर पर सुनिश्चित करना। विदेशों द्वारा भेजे गए अतिरिक्त राहत सामग्रियों का प्रभावी वितरण करना।
- जितनी जल्दी हो सके वरिष्ठ प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी, अनुभवी संस्था,
- स्वतंत्र विशेषज्ञ, अनुभवी राहतकर्मी, डॉक्टर, पैरा-मेडिकल कर्मियों की एक कोर टीम गठित करना।
- अफवाहों पर ध्यान न देना।
- एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, बस अड्डों के जाम को नियंत्रित रखना। त्रिभूवन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा को अनावश्यक रूप से व्यस्त रखा गया, जबकि घायलों को सड़क मार्ग से बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ले जाया जा सकता था।
- बचाव के साथ-साथ वायु और पानी जनित बीमारियों के फैलने से रोकना।
- बचे हुए लोगों को तुरंत काउंसिलिंग की सुविधा उपलब्ध कराना।
- मानसून के कारण कभी-कभी ओले-तूफान के साथ वर्षा लगातार जारी रहेगी। इसलिए बचावकर्मियों को ऐसी परिस्थितियों का आदी होना चाहिए।
- विकसित देशों से पैसों और सहायताकर्मियों का आवग लगातार बनी रहनी चाहिए। साथ ही स्थानीय स्तर पर क्षमता निर्माण पर ध्यान देने की जरूरत है।
ऐसा हुआ भी। इसके लिए भारत सरकार साधुवाद की पात्र है। इस आपदा में न सिर्फ नेपालियों और भारतीयों को बचाया गया, बल्कि 15 देशों के 170 लोगों की जानें बचाई गईं। यह काम ठीक उसी तरह हुआ, जैसे पखवाड़े भर पहले गृह मंत्रालय और भारतीय वायुसेना ने यमन से 145 देशों के नागरिकों को बचाया था।
भारत ने अपनी पुरानी नीति और मानवता के प्रति कटिबद्धता की न सिर्फ पुनरावृत्ति की है, बल्कि नेपाल में आए भूकंप में, जिसमें 5100 लोगों की जानें चली गईं, विश्व के सामने आपदा प्रबंधन की अपनी मजबूत क्षमता का भी प्रदर्शन किया है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस के प्रसिद्ध वाक्य का खंडन करने के कारण हैं। उन्होंने कहा था, ”जब मनुष्य असफल हो जाता है तो प्रकृति कब्जा कर लेती है।’’ बदलते परिदृश्य में हम कह सकते हैं, ”प्रकृति की कब्जा करने की प्रवृत्ति हो सकती है, लेकिन मनुष्य अपने दुखद अनुभवों से सीख लेते हुए राहत सामग्री के वितरण से आगे निकलकर बेहतर तकनीक और प्रशिक्षित कर्मियों का प्रयोग कर कम से कम नुकसान होने तक जा पहुंचा है।’’
हालांकि जीवन का नुकसान अभी भी हो रहा है, लेकिन उतना नहीं जितना कि पहले होता था। नेपाल आपदा में 22 घंटे बाद एक पांच महीने के शिशु और 50 घंटे बाद एक बुजुर्ग महिला को बचाया जाना मनुष्य के धैर्य और उसके बचाव अभियान की कहानी कहता है।
आलोक कुमार श्रीवास्तव
(लेखक अतिरिक्त मुख्य सचिव, परिवहन विभाग, सिक्किम, है। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी है)