
हाल ही में दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन ने सभी मीट विक्रेताओं, होटल और रेस्टोरेंट को एक नोटिस जारी करते हुए पूछा की वो मीट बेचते या परोसते समय यह बताए कि वह मीट हलाल है या झटका। और तो और एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट डेवलपमेंट ऑथोरिटी (एपीइडीए), भारत सरकार ने रेड मीट मैनुअल से हलाल शब्द को हटा दिया है। अब भारत से मांस का आयात करने वाले देशों के अनुसार ही हलाल या झटका मीट का टैग दिया जाएगा। इसका कारण यह है कि हलाल मीट के कारण झटका मीट का निर्यात बिल्कुल ही कम होता जा रहा है। और इससे इस क्षेत्र से जुड़े बड़ी संख्या में हिंदू और सिख अपना रोजगार खो रहे थे। हलाल के नाम पर हलाल टैक्स बोर्ड करोड़ों रुपए की वसूली करता हैं, जिसका पैसा देश-विरोधी कार्यों में लगाए जाने का भी संदेह हैं। देश की एयरलाइन्स और रेलवे भी बिना यात्रियों को सूचित किए हलाल मीट परोसती हैं, जो उनकी धार्मिक भावनाओं से खेलने जैसा है। इसके अलावा पतंजलि, हल्दीराम और श्री श्री रविशंकर की संस्था जैसे हिन्दुवादी संगठनों के उत्पादों पर भी हलाल टैक्स लगाया जाता रहा हैं। अब तो भुजिया, मैदा, आटे जैसे खाद्य पदार्थों, जिसमें देश के कई नामी ब्रांड शामिल है, पर हलाल टैक्स लगाना एक फैशन सा बन चुका हैं। ऐसा इसलिए की उन्हें अपने इन उत्पादों को मुस्लिम देशों में निर्यात करना होता है। ये कम्पनियां अलग से भी इन देशों में निर्यात के लिए हलाल टैग लगा सकती है। लेकिन भारत में भुजिया और ऐसे ही उत्पादों पर हलाल का टैग लगाना समझ से परे हैं। मांस के व्यापार में आज झटका कारोबारियों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। हलाल कारोबारियों का ही हर जगह बोलबाला हैं, जबकि अधिकतम हिंदू और सिख झटका मीट ही खाते हैं। इसलिए हलाल और झटका मीट का बराबर का टैग लगना चाहिए। डाटा की माने तो 2019-2020 वित्तीय वर्ष में कुल 23 हजार करोड़ रुपए का मांस भारत से निर्यात हुआ, जिसमें लाल मांस और भैंसे का मांस शामिल हैं। इसमें से सबसे अधिक निर्यात वियतनाम को हुआ। इसके अलावा भैंसें के मांस का निर्यात मलेशिया, ईजीप्ट, सउदी अरब, हांगकांग, म्यांमार और यूएई को निर्यात किया गया। यहां, यदि इस्लामिक राष्ट्रों को छोड़ भी दिया जाए, तो 7,600 करोड़ रुपए का निर्यात केवल वियतनाम को किया गया। जिस मांस का निर्यात वियतनाम और हांगकांग को किया गया उसके लिए हलाल टैग की कोई आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि यह वहां से चीन के लिए जाता हैं, जहां हलाल टैग की कोई आवश्यकता नहीं होती।
झटका और हलाल दोनो ही पद्धतियों में जानवरों के गलों को काटा जाता है। और जानवर की मौत के पश्चात प्राप्त मीट को बाज़ार में बेचा जाता है, जिसका की लोग सेवन करते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं में आज विवाद पैदा हो गया हैं। इन दोनो में पहला भेद धार्मिक मामले का हैं। हलाल की प्रक्रिया मे पहले कलमा पढ़ा जाता है और जानवर की गर्दन पर धारदार चाकु से तीन जगह काटा जाता है। इस्लामिक कानून के अनुसार जानवर हलाल के समय बेहोश नहीं होना चाहिए। शोध के अनुसार हलाल जानवर को कत्ल करने की परम्परागत विधि है। बीसवीं सदी में सिख समुदाय ने झटका की प्रक्रिया को इसलिए बढ़ाया क्योंकि इसमें जानवरों को देर तक दर्द नहीं होता। समय के अनुसार लोगों का दोनो ही प्रक्रियाओं पर अपना-अपना विश्वास बनता गया और दुकानदारों ने भी अपने ग्राहक इसके ही अनुसार बनाए रखे। फिर भी झटका मीट के व्यापार में काफी कमी आयी है। इस पृष्ठभूमि में यह पूछना आवश्यक है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में हलाल शब्द का क्या मतलब है? यह भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश पर थोपने जैसा है। किसी भी भोजन को धार्मिक रंग देना सही नहीं है। भारत में सिर्फ इसको कतई बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। इस मामले पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग भी चुप्पी साधे हुए है। मुस्लिम समुदाय के लिए व्यापार, भोजन, हवाई यात्रा से लेकर नाइट क्लब तक पर हलाल का सर्टिफिकेट लगा है। लेकिन जिस दिन हिन्दू धर्मावलम्बियों ने झटका सर्टिफिकेट की मांग कर दी, उस दिन ही सेक्युलर ब्रिगेड तमाम तरह के तर्क गढ़कर हंगामा शुरू कर देगी। हम यहां किसी के कुछ भी खाने के अधिकार को चुनौती नहीं दे रहे है, लेकिन यह हलाल न खाने वालों पर क्यों थोपा जा रहा है? यदि भारत सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष है, तो यहां सबके पास समान अधिकार होने चाहिए।
दीपक कुमार रथ
(editor@udayindia.in)