
आज जब पूरी मानवजाति कोरोना की दूसरी लहर के प्रकोप से लड़ रही है, तब चार राज्यों और एक यूनियन टेरिटरी में चुनाव हो रहे है। भारत में राजनीतिक दलों और प्रशासन के लिए चुनाव हमेशा से ही चुनौतीपूर्ण होता है। लोगों को उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोकना तथा चुनावी रैलियों में जाने से रोकना काफी बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। भारत में चुनाव एक त्यौहार जैसा होता है जहां लोकतंत्र में भाग लेने वाले पब्लिक रैली, रोड शो और हिंसा में भी भागीदार होते हैं। कभी-कभार प्रशासन के लिए भी साफ-सुथरा चुनाव कराना एक मुश्किल कार्य होता हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पश्चिम बंगाल, जहां हजारों लोगों को राजनीतिक हिंसा में मार दिया गया है। बड़े-बड़े नेताओं पर हमले किये जाते रहे है। यही कारण है कि चुनाव आयोग यहां आठ चरणों में चुनाव करा रहा है। ममता बनर्जी भी राज्य में हो रही राजनीतिक हिंसा को रोकने में दिलचस्पी लेती दिखाई नहीं दे रही हैं। और वह वाम मोर्चा की सरकारों के कदमों का ही अनुसरण कर रही है, जिनकी वह स्वयं शिकार हो चुकी हैं। ममता बनर्जी ने वाम मोर्चा सरकार के कार्यकाल से यह अच्छे तरीके से सीख लिया है कि कैसे बलपूर्वक चुनाव जीतना है, हालांकि जमीनी हकीकत तो यह है कि बंगाल के लोग शांति और विकास चाहते हैं। बंगाल को टैगोर की धरती में बदलने के लिए सामाजिक समरसता के साथ-साथ बिजली, सडक़ और पानी सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी फैक्टर बंगाल के युवाओं में सबसे अधिक प्रचलित है क्योंकि वे विकास चाहते हैं। अमित शाह आम बंगालियों को समझाने में सफल रहे हैं कि केवल नरेंद्र मोदी ही बंगाल को उसका उचित स्थान दिला सकते है। अब ममता बनर्जी को भाजपा का डर सताने लगा है, और इसलिए उन्हें ‘जय श्री राम’ से भी परहेज है। हालांकि भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती वोटरों को सुरक्षित बूथ तक लाने की होगी। तमिलनाडु में भी पिछले 40 वर्षों मे ऐसा पहली बार होगा कि राज्य में चुनाव जयललिता और करूणानिधि के बिना होगा। इस बार भी यहां चुनाव एआईडीएमके बनाम डीएमके होगा। यहां कांग्रेस डीएमके के साथ चुनाव लड़ रही है, वहीं भाजपा एआईडीएमके के साथ चुनाव लड़ रही है। जयललिता और करूणानिधि के बिना इस बार यह देखना है कि जनता इस बार किसको चुनती है।
यहां यह भी बताना उचित होगा कि जहां एक तरफ कांग्रेस केरल में वाम मोर्चे के खिलाफ चुनाव लड़ रही है, तो बंगाल में कांग्रेस वाम मोर्चे के साथ चुनाव लड़ रही है। अत: यह देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने दोनों राज्यों में अपने भविष्य को ताक पर रख दिया है। देशभर में कई राज्यों में तो कांग्रेस केवल एक सहयोगी की भूमिका में नजर आ रही है। और ये वो लोग हैं जो कभी कांग्रेस में हुआ करते थे। मुख्य बात तो यह है कि कांग्रेस आज उन्ही से गठजोड़ कर रही है, जिन्होंने कांग्रेस के वोट-बैंक को खत्म किया। आज फिर से एक विकल्प बनाने के लिए कांग्रेस के पास केवल दो ही रास्ते है। पहला यह कि इसे परिवार से छुटकारा पाना होगा। और दूसरा यह कि युवा और सामथ्र्यवान नेताओं को, जिनकी जमीन पर पकड़ है, पार्टी में उचित स्थान देना होगा। कुल मिलाकर, आज बिखरा हुआ विपक्ष मोदी और ताकतवर भाजपा के प्रभाव को कम करने के लिए अपना पूरा प्रयास कर रहा है। यदि हम चार राज्यों सहित एक केंद्र शासित प्रदेश में हो रहे चुनाव पर बात करें तो ‘एम’ फैक्टर काफी महत्वपूर्ण रहेगा।
दीपक कुमार रथ
(editor@udayindia.in)