
अब जब चार राज्यों तथा एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव खत्म हों चुके हैं तो नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली भाजपा को सच्चाई समझते हुए, चुनौतियों को स्वीकार करना चाहिए। 2019 के आम चुनाव मे जिन मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी पर विश्वास जताते हुए दुबारा सत्ता की कमान दी थी, अब वही लोग नरेंद्र मोदी सरकार को बड़ी गम्भीरता से देख रहे हैं। अभी चार राज्यों और एक यूटी में जो चुनाव परिणाम आए है उससे यह कहा जा सकता हैं कि मोदी-विरोधी, नरेंद्र मोदी की छवि खराब करने में कोई कसर नहीं छोडऩे वाले, हालांकि यह अलग बात है कि इन राज्यों में भाजपा को लोगों का काफी अच्छा समर्थन मिला है। इस संबंध में यह कहा जा सकता हैं कि आने वाले समय में भाजपा के नेतृत्व की असल परीक्षा होने वाली है है कि कैसे यह समस्याओं से निपट पाती है। यहां यह बताना आवश्यक है कि भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक राजनीतिक अंग हैं, जिसकी स्थापना 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ के रूप में की। भाजपा हिंदुत्व की पालिसी की पक्षधर हैं, जो भारतीय मूल्यों और उद्देश्यों का अनुसरण करती है। यह एक सामथ्र्यवान व संगठित भारत के निर्माण को हिंदू संस्कृति के आधार पर निर्माण करने की समर्थक है। यही कारण है कि भाजपा को सभी जाति-समुदाय से भारत के निर्माण हेतु समर्थन हासिल है।
लेकिन कुछ वर्षों में यह साफ देखने को मिला हैं, कि किस प्रकार से भाजपा ने अपने लम्बे समय से जुड़े हुए कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर दूसरे पार्टी से कूद कर आने वाले नेताओं को अधिक महत्व दिया है, जो पार्टी के कार्यकर्ताओं में गहन उदासी की भावना भरती है। और इसका परिणाम भी अभी हाल ही में बंगाल चुनाव में देखने को मिला। इससे पहले 2018 मे भी भाजपा को कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा। नवम्बर-दिसम्बर में पांच राज्यों में चुनाव हुए और भाजपा की इन पांचों राज्यों में हार हुईं, जिनमे भाजपा के लिए गढ़ माने जाने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल थे। और ऐसा इसलिए हुआ था कि इन राज्यों में भी कार्यकर्ताओं की अनदेखी हुई थी। और ऐसा ही अब पश्चिम बंगाल में देखने को मिला, जहां एक बड़ी संख्या में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को चुनाव से पहले भर्ती किया गया था। अब समय आ गया हैं कि भाजपा के नेताओं को इससे सीख लेनी चाहिए, जिनकी असल विचारधारा पंडित दिनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद तथा रामकृष्ण परमहंस, शारदा देवी और विवेकानंद की है। दूसरी तरफ बंगाल के लोग मां दुर्गा की पूजा करते है, जो अन्याय पर न्याय की जीत को दर्शाता हैं। लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसके विपरीत ही कार्य कर रही है। चुनाव परिणाम के बाद राज्य में होने वाली हिंसा पर वह बिल्कुल ही चुप्पी साधे बैठी हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि उनके पिछले कार्यकाल मे भी हजारों राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थी। वास्तव में ममता बनर्जी का एक दशक का कार्यकाल वाम दल के तीन दशक के कार्यकाल से भी बुरा रहा है। दीदी ने बंगाल की संस्कृति, मां, माटी और मानुष को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब यह देखना बाकी है की क्या दीदी राज्य में विकास हेतु एक अच्छा माहौल बना पाती हैं या नहीं।
दीपक कुमार रथ
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