
अगर न्यायिक सक्रियता का सच्चा अर्थ जानना हो तो ब्लैक्स लॉ डिक्शनरी की मदद लेनी होगी, जिसके मुताबिक……”न्यायिक निर्णय-प्रक्रिया का वह दर्शन है, जिसमें जज सार्वजनिक नीति के बारे में अपने फैसलों में अन्य बातों के अलावा अपने व्यक्तिगत विचारों को भी तवज्जो देते हैं।’’
इस विचार दर्शन को महत्व देने वालों का मत है कि ऐसी ‘न्यायिक समीक्षा’ कुछ मामलों में तो निहायत जरूरी है, और कि कानूनी प्रक्रिया समय के हिसाब से बदलनी चाहिए। संविधान हमें सक्रिय लोकतंत्र के लिए कानून मुहैया करता है, यह समझ में आता है कि खास समय में हमें नई राह दिखाने के लिए बदलाव जरूरी हैं।
न्यायिक समीक्षा के संवैधानिक प्रावधानों के मामले में हम संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो डॉ. आंबेडकर की सारगर्भित टिप्पणी पाते हैं कि, ”न्यायिक समीक्षा, खासकर रिट याचिका के दायरे में, मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ फौरी राहत दे सकती है और संविधान की मूल भावना के अनुरूप होनी चाहिए।’’
भारतीय संविधान इस मायने में अनोखा है कि उसमें देश में सहज और निष्पक्ष लोकतांत्रिक शासन के लिए तीनों स्तंभों के बीच सत्ता का सुंदर संतुलन मिलता है। उसके कई प्रावधानों में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के फर्क को बड़ी बारीकी से बताया गया है, ताकि उनके कामकाज अलग बने रहें।
मसलन, हमारे संविधान के अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका और कार्यपालिका दोनों को किसी जज के कर्तव्य निर्वाह के दौरान उसके आचार-व्यवहार पर चर्चा करने से रोकते हैं। फिर, अनुच्छेद 122 और 212 न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका की आंतरिक कार्यवाहियों में किसी तरह की दखलंदाजी से रोकते हैं।
इसी तरह अनुच्छेद 105(2) और 194(2) अदालतों को विधायिका के वोट या बोली की आजादी में दखल देने से रोकते हैं।
संविधान की भावना हमारे देश में मजबूत और स्थाई लोकतंत्र कायम करना भले रहा हो, लेकिन हमेशा की तरह इन दो स्थितियों में बड़ा फर्क हे कि क्या है और क्या होना चाहिए. और, जैसा कि प्रकृति का स्वभाव है मजबूत हमेशा कमजोर पर हावी हो जाता है। पहले कुछ दशकों में कार्यपालिका में वाकई कुछ मजबूत नेता थे, जो आजाद भारत और लोगों के सपनों के केंद्र में थे। उन्होंने अपने हक में अपनी सत्ता के जरिए न्यायपालिका को अधीनस्थ बनाया, चाहे न्यायिक नियुक्तियों का मामला हो या फैसलों का। उस दौर में 1975 में इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा का वह फैसला मृगमरीचिका जैसा लगता था, जिसमें उन्होंने बड़े जायज ढंग से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को भ्रष्टाचार और चुनावी कदाचार के आधार पर रद्द कर दिया था। उसकी प्रतिक्रिया में सभी तीनों स्तंभों पर हावी होने की प्रवृति अपने शिखर पर पहुंच गई। इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को इमरजेंसी का ऐलान कर दिया। और उनका तानाशाही डंडा चला तो तीनों स्तंभ झुक ही नहीं गए, बल्कि रेंगने लगे, जैसा कि तब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था। तब न्यायपालिका में अभूतपूर्व बारी के बिना जजों की प्रोन्नति और दमन देखा गया। दूसरा मामला चर्चित शाहबानो मामला होगा। न्यायपालिका ने मुसलमान औरतों के उत्थान के लिए जायज फैसला सुनाया, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद में भारी बहुमत के दुरुपयोग से न्यायपालिका की बांह उमेठने का तरीका अपनाया।
उन्होंने खासकर मुसलमान मर्दों के वोट बैंक की तुष्टीकरण के खातिर एक संवैधानिक संशोधन के जरिए अदालत के फैसले को निरस्त कर दिया। नतीजतन, शाहबानो और सभी मुसलमान औरतों को राहत से वंचित कर दिया गया।
लेकिन कार्यपालिका की ताकत जल्दी ही कमजोर पड़ गई, जब 1989 के चुनावों के बाद देश में गठबंधन राजनीति शुरू हो गई। हालांकि ताकतवर के कमजोर पर हावी होने की पुरानी प्रवृति फिर भी जारी रही लेकिन भाग्य का चक्का घूम गया। केंद्र की अपनी ताकत एकजुट रखने की नाकामी से कमजोर ही ताकतवर बन गया। न्यायपालिका ऊपर उठने लगी। न्यायिक सक्रियता अपने सकारात्मक रुझान को त्याग कर न्यायिक दखलंदाजी की ओर बढ़ गई। यह धीरे-धीरे न्यायिक नियुक्तियों में दिखने लगी। उसमें जाति, कोटा और भाई-भतीजावाद का खेल खुलकर दिखने लगा। इस वजह से जजों का स्तर प्रभावित होने लगा। लिहाजा, फैसलों का स्तर प्रभावित होने लगा और उसमें कार्यपालिका और विधायिका पर हावी होने की लालच दिखने लगी।
यह 2014 तक चलता रहा लेकिन मजबूत और स्थाई कार्यपालिका के हाथ सत्ता आई तो हालात बदलने लगे। न्यायपालिका में पारदर्शिता और निष्पक्षता की रक्षा की दिशा में पहला कदम अगस्त 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) नामक 99वां संविधान संशोधन के रूप में उठाया गया। इस कानून के जरिए देश में जजों और कानूनी विशेषज्ञों की नियुक्ति तबादलों की एक संतुलित निकाय बनाने का प्रस्ताव किया गया। वह निकाय जजों की नियुक्ति की दोषयुक्त कॉलेजियम व्यवस्था की भी जगह ले लेता।
लेकिन बाघ के मुंह खून लग जाए तो वह छोड़ता नहीं है। यह गलत धारणा बनी कि यह दबदबे की लड़ाई है। न्यायपालिका ने फौरन एक संविधान पीठ की स्थापना की एनजेएसी कानून को असंवैधानिक बताकर अक्टूबर 2015 में रद्द कर दिया गया। वह 4-1 का बहुमत का फैसला था।
उसके बाद तो मानो बाघ आमखोर बन गया। वह देश के हर अंग पर हमलावर हो उठा। केंद्र अपनी स्थिति को लेकर हक्का-बक्का रह गया। एक के बाद एक हास्यास्पद, अव्यावहारिक फैसले आने लगे। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने राज्य में लॉकडाउन लगा दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट को फौरन रद्द करना पड़ा। फिर उसने राज्य में हर गांव के लिए दो आइसीयू सुविधाओं से युक्त एंबुलेंस की व्यवस्था करने को कहा, उसे भी पलटना पड़ा। मद्रास हाइकोर्ट चुनाव आयोग पर हत्या के आरोप में मुकदमा चलाना चाहता है। कभी जलीकुट्टी पर प्रतिबंध, कभी होली, दिवाली और जन्माष्टमी के आयोजन पर अलग तरह से पाबंदियां। ऐसा लगता है कि इन उपायों से हिंदू संस्कृति के तानेबाने को नष्ट करने की कोशिश हो रही है, लेकिन दूसरी आस्थाओं पर कोई नियम बनाने से डर भी दिखता है। सबरीमला मामला ऐसा ही उदाहरण है जबकि हजरत निजामुद्दीन पर ऐसा ही कुछ करने से परहेज किया गया।
इसलिए न्यायिक सक्रियता इससे आगे बढ़कर न्यायिक दखलंदाजी में न बदल जाए, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो प्रासंगिक फैसले वाकई महत्वपूर्ण हैं।
राम जवाया बनाम पंजाब राज्य (1955) में अदालत ने टिप्पणी की थी, ”हमारा संविधान किसी एक अंग या राज्य के एक हिस्से द्वारा उस कामकाज की धारणा को नहीं मानता, जो अनिवार्य रूप से दूसरे का है। इसका मतलब है कि संविधान के मुताबिक राज्य के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) के बीच अधिकारों का व्यापक बंटवारा होना चाहिए और कोई अंग दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल न दे। अगर ऐसा होता है तो संविधान का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा और अराजकता हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने 21 मई 2021 को इलाहाबाद हाइकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें उसने उत्तर प्रदेश सरकार को राज्य के हर गांव में आइसीयू सुविधा से लैस दो एंबुलेंस मुहैया कराने का आदेश दिया था। हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ”हाइकोर्टों को अपने आदेश की व्यावहारिकता पर जरूर ध्यान देना चाहिए और ऐसे आदेश न जारी करें, जिन पर अमल करना संभव न हो।’’
न्यायपालिका अपनी सर्वोच्चता को लगातार बनाए रखने के लिए असमंजस में है। दूसरी ओर, वह प्रशांत भूषण टाइप लोगों को अजीब तरह से सुरक्षित राह मुहैया करता है, जो अपनी हरकतों से उसे धमकाने में कामयाब रहते हैं। इसके उलट वह दूसरे संवैधानिक अंगों के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी की कोशिश करती है।
यह लेखक, जो कानूनी बिरादरी का सदस्य भी है, अपील करता है कि न्यायपालिका खुद को संयमित करे और अपने न्यायिक सक्रियता के ब्रांड का जारी न रखे। वह सीवरों की साफ-सफाई से लेकर सड़क पर मोटर वाहन के प्रबंधन तक उतर आया है। उसे संतुलित और निष्पक्ष रहकर देश के लोगों की नजर में उसकी साख जितनी भी बची है, उसकी रक्षा करनी चाहिए। उसे यह याद रखना चाहिए कि न्यायपालिका का काम कानून की व्याख्या भर करना है, न कि सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप की। अगर उसका कामकाज खराब है तो लोगों को चुनाव के जरिए फैसला सुनाने दीजिए कि क्या बदलना है।
आखिर में, न्यायपालिका के लिए इस देश में संविधान की सुंदरता और संपूर्णता की रक्षा करना जरूरी है। इसमें नाकाम होने पर देश संपूर्ण अराजकता की ओर बढ़ जा सकता है।
अमिताभ सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)