
उन्नीस सौ नब्बे के बाद अविभाजित बिहार के मध्य बिहार (अब दक्षिण बिहार) कभी उग्रवादी संगठनो के रहमोकरम पर था, जहां उग्रवादी संगठनो की अपनी सरकार चलती थी। 1987 में दलेलचक बघौरा नरसंहार, 1992 में बारा नरसंहार हुए। वहीं 20 जनवरी 1996 को पहली बार टिकारी थाने पर हमला कर 5 पुलिसकर्मी को मौत के घाट उतार कर पुलिस-प्रशासन पर हमला कर व्यवस्था को झकझोर दिया। इसके बाद हिंसा- प्रतिहिंसा का दौर चालू हो गया। इस दौरान सामाजिक समरसता का माहौल बिगडऩे लगा और जातीय नरसंहार का दौर चालू हो गया। इसके साथ ही पुलिस के जवानों के विद्यालयों में रहने के कारण विद्यालयों पर हमला होने लगा। जिसके कारण दक्षिण बिहार के गया, औरंगाबाद, नवादा, कैमूर, जहानाबाद और सासाराम के नौनिहाल बच्चे पढाई से विमुख हो गए। लेकिन समय और माहौल बदला तो इन बच्चों ने स्कूल और कॉलेज जाना शुरू कर दिया। सरकार द्वारा साईकिल और वर्दी सहित कई योजनाओं के कारण लड़कों से कदम मिलाकर लड़कियां भी पीछे नहीं रहीं और पढऩे की ललक ने बराबरी पर ला दिया। जहां इन जगहों पर गोलियों की तड़तड़ाहट सुनाईं देती थीं, वहां अब साइकिल की घंटी सुबह-शाम सुनायी देती है। पढऩे की ललक ने बच्चों और बच्चियों को बराबरी पर ला दिया है। जहां लड़कियां घर से बाहर नहीं निकलती थी, आज वे लड़कों से आगे आने के लिए दो-दो हाथ कर रही हैं। जहां इन क्षेत्र के बच्चे बंदूक और बम चलाना जानते थे वहीं आज कलम, की बोर्ड और माउस चलना पसंद कर रहे हैं।
1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलवाड़ी गांव में शुरू हुए आन्दोलन को नक्सलवादी नाम से जाना जाने लगा। जैसे-जैसे नक्सलवादी संगठन ने अपने पैर पसारे वैसे-वैसे हिंसा की घटनाएं बढऩे लगी। पश्चिम बंगाल से सटे रहने के कारण बिहार के कई जिलों में इनके नारे गूंजने लगे। सर्वप्रथम गया-औरंगाबाद इसका गवाह बना। जो आज तक बना हुआ है। इसका मुख्य कारण जंगल और पहाड़ से घिरे रहने के कारण तथा सड़के, पानी, शिक्षा एंव स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं और रोजगार के कम अवसर नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण रहे हैं। इन क्षेत्रों में पुलिस प्रशासन सहित अन्य लोगों की पहुंच से दूर होना बताया जाता है। जीटी रोड से दक्षिण का इलाका कैमूर से गया के बाराचट्टी थाना क्षेत्र जंगल और पहाड़ से घिरे हुए हैं। वहीं इससे सटे झारखंड के सीमा होने के कारण इन संगठनों को और बल देता है। अविभाजित बिहार में 22 जिले नक्सल प्रभावित थे। लेकिन बंटवारे के बाद इनकी संख्या बढ़कर पचास के करीब हो गयी। आज झारखंड के 19 जिले और बिहार के 16 जिले नक्सल प्रभावित है। बिहार के चार जिले सर्वाधिक नक्सल प्रभावित हैं। जिनमें गया, औरंगाबाद जमुई और लखीसराय शामिल हैं।
अविभाजित बिहार में समय-समय पर पनपने वाले भूमि विवाद, व्याप्त सामंती व्यवस्था, जातीय वर्चस्व ने उग्रवाद के पनपने में अच्छी भूमि तैयार की थी। इस क्षेत्र में व्याप्त भीषण गरीबी निम्न वर्ग के उपर अमानवीय व्यवहार, गरीबों की इज्जत से खिलवाड़ जैसे कारणों ने दीन-हीन गरीबों को इन संगठनों के साथ मिलकर हथियार उठाने को मजबूर किया। इन क्षेत्रों की त्रासदी है कि सरकार द्वारा कई दशकों से करोड़ों रूपये खर्च करने के बावजूद गांवों की गरीबी मिट नहीं पायी है। पिछले 20 सालों में साढे चार सौ नक्सलियों ने सरेंडर किया है। वहीं 2527 को गिरफ्तार किया गया है। जबकि इन वर्षों में नक्सलियों ने 450 वारदातों को अंजाम दिया है। अभी झारखंड, छतीसगढ, ओडिसा और महाराष्ट्र के बाद बिहार पांचवें स्थान पर है। बिहार सरकार और केन्द्र सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए कई प्रभावी कदम उठाये हैं।
केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने 2017 में आठ सूत्रीय ‘समाधान’ नाम से एक कार्य योजना इन क्षेत्रों में शुरू की है। इस अभियान में शत-प्रतिशत सफलता के लिए सामुदायिक सहयोग लिया जा रहा है। बच्चों के साथ अभिभावकों को जागरूक करने के लिए भी कार्ययोजना बनाई गई है। जिसके तहत केन्द्रीय सुरक्षा बलों द्वारा बच्चों को शिक्षित करने के लिए अभियान चलाया जा रहा है, क्योंकि अशिक्षित रहने के कारण इनके अभिभावक नक्सली आंदोलन में कूद पड़े जो खतरनाक था। वे हमेशा पुलिस के निशाने पर रहते हुए जिदंगी जीने को मजबूर थे। 2011 में आईआईटी के छात्रों द्वारा किये गये सर्वेक्षण में नक्सलवाद का मुख्य कारण शिक्षा से दूर रहना बताया गया था। हालांकि उस वक्त इन क्षेत्रों में गणित और विज्ञान के शिक्षक सरकारी विद्यालयों में नदारद थे। हालांकि कुछ गणितज्ञ और शिक्षा में रूचि रखने वाले लोग 2008 ने ही अपने बलबूते पर युवाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठा रखा था। नक्सल प्रभावित इमामगंज विधानसभा से दूसरी बार जीते पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी द्वारा भी शिक्षा के प्रति नौनिहालों को जागरूक करने की सूचना मिलती रही है। इनके द्वारा बच्चियों को एमए तक मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा से पढऩे की ललक ने बराबरी पर ला दिया है। वहीं नीतीश सरकार द्वारा पोशाक योजना, छात्रवृत्ति योजना, मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना, मुख्यमंत्री साईकिल योजना, मुख्यमंत्री बिहार दर्शन योजना तथा मुख्यमंत्री बालिका प्रोत्साहन योजना ने लड़कियों के सपनों में पंख लगा दिए। और इन योजनाओं के सकारात्मक प्रभाव पड़े, जहां लड़कों का मुकाबले करते हुए इन क्षेत्रों की लड़कियां तरक्की की नई इबारत लिख रहीं हैं। एक वक्त ऐसा था जब नक्सल क्षेत्र की लड़कियां शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रहती थी। लेकिन अब उसी इलाके की लड़कियां मुख्यमंत्री साईकिल योजना के तहत लाभ पा कई किलोमीटर की दूरी तय कर स्कूल, कालेज जाती हैं। इसी बीच साउथ बिहार सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, आईआईएम पोलीटेक्नीक और आटीआई के स्थापित होने के कारण इन लोगों के सपनों में पंख लग गए। आज इन जिलों के सैकड़ों की संख्या में आईआईटी, यूपीएससी, वीपीएससी, नर्सिंग क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर रहे हैं।
दक्षिण बिहार सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का क्षेत्र कभी उग्रवादी संगठनो के रहमोकरम पर था। यहां से पीएचडी कर रही लखनऊ की गरिमा शुक्ला और हुगली की रहने वाली त्रिस्ला बनर्जी बताती है कि जब उनका सिलेक्शन यहां हुआ, तो मम्मी-पापा काफी नर्वस हो गए। यहां का नाम सुनते ही डर गए। लेकिन ऐसा यहां अब कुछ नहीं है।
गया से अनिल मिश्र