
जनसंख्या को नियंत्रित करने का मुद्दा सदा से ही विवादों के केंद्र में रहा है। देश के प्राकृतिक स्रोतों के हिसाब से देखें तो जनसंख्या नियंत्रण के लिए जो भी उपाय किए जाएं, वे उचित ही होंगे। लेकिन जब भी जनसंख्या नियंत्रण की कोशिश की जाती है या राज्य की ओर से इस दिशा में कोई कदम उठाने की तैयारी होती है, राजनीति में उबाल आ जाता है। ऐसे में विश्व जनसंख्या दिवस के दिन उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने नए जनसंख्या विधेयक का मसविदा क्या पेश किया, राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया। अगर विवाद न होता तो ही आश्चर्य होता।
जनसंख्या विधेयक का मसविदा प्रस्तुत करते हुए योगी आदित्यनाथ ने हालांकि किसी समुदाय का नाम नहीं लिया, लेकिन उन्होंने जो कहा, उसी में विवाद की जड़ खोजी जाने लगी। योगी आदित्यनाथ ने कहा, ‘इससे न केवल राज्य में जन्मदर कम होगी, बल्कि विभिन्न समुदायों के बीच जनसंख्या संतुलन भी कायम होगा।’ उत्तर प्रदेश में महज आठ महीने में ही विधानसभा का अगला चुनाव है। यह भी एक वजह रही कि इस विधेयक को मुस्लिम समुदाय के खिलाफ प्रचारित करने की कोशिश शुरू हो गई। इसमें मीडिया के एक खास वर्ग के अलावा वे राजनीतिक दल ज्यादा सक्रिय हो गए, जिनकी नजर हमेशा मुस्लिम वोटबैंक पर रहती है और जो मुस्लिम वोट बैंक के सहारे अतीत में उत्तर प्रदेश और देश पर राज करते रहे हैं। जाहिर है कि इस विधेयक पर सवाल खड़ा करने में राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रही कांग्रेस के साथ ही सत्ता की दावेदारी कर रही समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी शामिल हैं। राज्य स्तर पर तीनों ही दलों तो राष्ट्रीय स्तर पर दूसरे दलों ने इसे राज्य के भावी विधानसभा चुनाव के लिए धु्रवीकरण की राजनीति के लिए उठाए गया कदम बताना तेज कर दिया। गैर भाजपा दलों का आरोप है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काफी पहले से मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर को मुद्दा बनाता रहा है और वह हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की जनसंख्या ज्यादा होने का डर दिखाकर हिंदू वोट बैंक को मजबूत बनाने की कोशिश करता रहा है। विपक्षी दलों का आरोप है कि इसीलिए जानबूझकर विधानसभा चुनावों के ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी ने इस मसले को उछाला है।
बहरहाल यह जान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या विधेयक में मोटे तौर पर क्या-क्या है? जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देने के लिए इस विधेयक में कहा गया है कि दो बच्चे वाले सरकारी कर्मचारियों को नौकरी के दौरान दो अतिरिक्त वेतन बढ़ोत्तरी, पूरे वेतन के साथ एक साल के लिए मातृत्व या पितृत्व अवकाश, उनके रोजगार योगदान कोष में तीन प्रतिशत की वृद्धि जैसी प्रोत्साहन योजनाएं लागू किए जाने का प्रावधान है। लेकिन जिनके दो से ज्यादा बच्चे होंगे, वे स्थानीय निकायों का चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। इसके साथ ही उन्हें सरकारी नौकरी के अयोग्य ठहराया जाएगा। इतना नहीं, अगर सरकारी नौकरी में रहते वक्त उनके दो से ज्यादा बच्चे पैदा होंगे, उन्हें पदोन्नति से वंचित रखा जाएगा। इसके साथ ही उन्हें राज्य से मिलने वाली हर तरह की सब्सिडी भी नहीं दी जाएगी।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 24.1 करोड़ है। जो भारत की आबादी का अकेले पांचवां हिस्सा है। घनी जनसंख्या के आर्थिक संसाधनों पर लगातार भारी पड़ रही है। इसकी वजह से राज्य का ढांचा कई बार चरमराता सा लगता है। खेती का रकबा जनसंख्या के हिसाब से लगातार सिकुड़ता जा रहा है। राज्य के पूर्वी और अवध इलाके में जनसंख्या के बढ़ते घनत्व की वजह से पता भी नहीं चल पाता कि किस गांव की सीमा कहां खत्म हुई और दूसरे गांव की सीमा कहां से शुरू हो रही है। ऐसे में इस विधेयक का अव्वल तो समर्थन होना चाहिए था, लेकिन राजनीतिक दलों और मीडिया के एक वर्ग ने इसे मुस्लिम विरोधी बताकर हंगामा शुरू कर दिया।
वैसे यह भी ध्यान रखने की बात है कि इस विधेयक में ज्यादातर प्रावधान वैसे ही हैं, जैसे दूसरे बारह राज्यों में पहले से लागू है। महाराष्ट्र ऐसा राज्य है, जहां दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों के लिए सरकारी नौकरी हासिल करने और राज्य की योजनाओं का फायदा लेने पर पाबंदी है। कई राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने स्थानीय निकाय चुनावों में दो से ज्यादा बच्चों वालों को लडऩे पर पाबंदी लगा रखी है। चूंकि देश के बारह राज्य ऐसे प्रावधान पहले से ही लागू कर चुके हैं, इसलिए होना तो यह चाहिए कि इस विधेयक का स्वागत होता। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
वैसे सामान्य अवधारणा है कि हिंदुओं के मुकाबले मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा है। हालांकि जनसंख्या पर शोध करने और निगाह रखने वाली संस्था पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुटरेजा ने अखबारों को दिए बयानों में कहा है कि पिछले तीन दशकों में जनसंख्या वृद्धि दर की गिरावट हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में ज्यादा है। हालांकि इन दिनों उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ मुखर हुए मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने इस विधेयक के खिलाफ बयान देकर इस विवाद को और बढ़ाने का ही काम किया। उन्होंने अपने बयान में मुसलमानों को निशाना बनाने का ही आरोप लगाया। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार या भारतीय जनता पार्टी की तरफ से एक बार भी नहीं कहा गया है कि उसका जनसंख्या विधेयक राज्य के मुसलमान समुदाय के खिलाफ है।
सब जानते हैं कि देश के तेज विकास की रफ्तार में जनसंख्या वृद्धि की तेज दर सबसे बड़ी बाधा है। निजी बातचीत में हर वह शख्स इसे स्वीकार करता है, जो पढ़ा-लिखा या समझदार है। लेकिन जैसे ही राजनीति का सवाल आता है, लोग राष्ट्रहित भूल कर राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से जनसंख्या नियंत्रण के विचार पर अपनी प्रतिक्रियाएं देने लगते हैं।
वैसे भी एक मौजूदा राजनीतिक माहौल में एक खास वर्ग के बुद्धिजीवियों द्वारा मान लिया गया है कि भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार जो भी कदम उठाएगी, वह गलत ही होगा और उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ उसका राजनीतिक लक्ष्य ही होगा। इसलिए उसके हर कदम का विरोध शुरू हो जाता है। कहना न होगा कि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति पर भी सवाल इस वजह से भी ज्यादा उठ रहा है।
जनसंख्या नियंत्रण का विचार तब भी अच्छा माना गया था, जब देश की आबादी करीब पचपन करोड़ थी। तब आपातकाल के दिनों में संविधानेत्तर सत्ता केंद्र संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का कार्यक्रम लागू किया था। चूंकि उसमें जबरदस्ती का भाव ज्यादा था, इसलिए वह विवादों में रहा। तब भी माना गया कि जबरिया नसबंदी का शिकार मुसलमानों को बनाया गया। 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी की हार की एक वजह इसे भी माना गया। तब से भारत की किसी भी शासक पार्टी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी जैसे कठोर उपाय किए जाने की बात सोचने की भी हिम्मत नहीं दिखाई। आज देश की जनसंख्या एक अनुमान के मुताबिक 140 करोड़ हो गई है। स्पष्ट है कि 46 साल की तुलना में हमारी जनसंख्या दोगुने से भी कहीं ज्यादा है। जाहिर है कि भारत पर इसका दबाव बढ़ रहा है। आंकड़ों के दम पर इस तथ्य को झुठलाने की लाख कोशिश की जाए, लेकिन यह भी सच है कि जनसंख्या अनुपात भी गड़बड़ाया है। समुदायों के बीच बढ़ती तनाव की घटनाओं के पीछे भी समुदायों की जनसंख्या के बीच गहराता असंतुलन भी है। इसलिए भी पूरे देश के लिए नई जनसंख्या नीति जरूरी है, जिसमें जनसंख्या को नियंत्रित करने पर जोर हो। उत्तर प्रदेश का जनसंख्या विधेयक अभी आखिरी रूप में नहीं है। इस पर राजनीतिक दलों को सुझाव देना चाहिए था। जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में आगे आना चाहिए था।
देशहित में जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक मकसदों को किनारे रखकर इस मसले पर सर्वानुमति की ओर बढऩे की कोशिश करें। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
उमेश चतुर्वेदी