
अफगानिस्तान में तालिबान के मायने यह कहानी वहां कि है जिसे लोग अनार का देश कहते है, अनार खाइये तो उसके रस से निकला रंग मुंह लाल कर देता है, देख कर लगे कि जैसे मुंह में खून लग गया हो और विडंबना तो देखिए यही खून इस देश का भाग्य बन गया है जी हां हम बात कर रहे है अफगानिस्तान की जो हाल ही में एक बार फिर से चर्चा का विषय बन गया जब अमेरिकी सैनिको की वापसी से एक बार फिर से अफगानिस्तान में तालिबानियों की भी वापसी हो गई मसलन अमेरिका सैनिकों ने 20 साल के लंबे युद्ध के बाद अफगानिस्तान के सबसे बड़े एयर बेस बगराम को खाली कर दिया है, इसके साथ ही अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य अभियान का अंत हो गया।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस लौटना लगातार जारी है दरअसल अमेरिका राष्ट्रपति जो बाईडेन ने इस साल की शुरुआत में ही ऐलान कर दिया था कि 11 सितंबर 2021 से पहले अमेरिका सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लेंगे। लेकिन अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी तय हो जाने के बाद से वहां तालिबान का कब्जा जिस तेजी से बढ़ रहा है वह बेहद चिंताजनक है। मीडिया रिपोर्ट्स में बताया जा रहा है कि अफगानिस्तान के एक तिहाई से ज्यादा जिलों पर तालिबान का कब्जा हो चुका है, वो जिस तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं। तालिबान लड़ाकों के डर से बड़ी तादाद में अफगान सैनिकों की सीमा पार कर पड़ोसी देश तजाकिस्तान भाग जाने की खबर है माना जा रहा है कि साल 2001 के बाद पहली बार तालिबान इतना मजबूत दिख रहा है। आशंका जताई जा रही है कि इससे अमेरिकी सेना के बाहर निकलने के बाद अफगानिस्तान में सरकार के अस्थिर होने का खतरा है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की उपस्थिति
अमेरिका के अफगानिस्तान में दाखिल होने की कहानी 2001 में वल्र्ड टेड सेंटर पर हुए हमलें से जुड़ी हुई है। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों में लगभग 3000 लोगों की मृत्यु हुई थी। इस्लामिक आतंकवादी समूह अल-कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन को इन हमलों के लिये उतरदायी ठहराया गया था। कट्टरपंथी इस्लामवादी तालिबान, जो कि उस समय अफगानिस्तान पर शासन कर रहा था ने लादेन की रक्षा की और उसे सौंपने से इनकार कर दिया। इसलिये 9/11 हमले के एक महीने बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान के विरूद्व हवाई हमले ‘ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम’ शुरू कर दिया। इसके पश्चात नाटो गंठबधन ने भी अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। लंबी कार्रवाई के पश्चात अमेरिका ने तालिबान शासन को उखाड़ फेंका और अफगनितान में एक ट्रांजीशनल सरकार की स्थापना की लेकिन अब अमेरिकी सैनिको की वापसी से एक बार फिर अफगानिस्तान में तालिबानियों का आंतक बढ़ता जा रहा है।
तालिबान आखिर है कौन?
पश्तों भाषा में छात्रों का तालिबान कहा जाता है 90 के दशक की शुरूआत में जब सोवियत संघ अफगानिस्तान से अपने सैनिको को वापस लौटा रहा था उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ माना जाता है। पश्तों आदोंलन पहले इस्लामिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सउदी अरब ने फंडिग की। इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था। जल्द ही तालिबान वादा करने लगें अफगनिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाके में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरीया कानून के कट्टरपंथी प्रारूप को लागू किया जाएगा। इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव काफी तेजी से बढ़ा सिंतबर 1995 में तालिबानियों ने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्जा किया इसके ठीक 1 साल बाद तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबूल पर भी अधिकार कर लिया उन्होंने उस समय अफगनिस्तान के राष्ट्रपति रह बुरहानद्दीन रब्बानी को सता से हटा दिया था साल 1998 के आते-आते अफगानिस्तान के तकरीबन 90 प्रतिशत क्षेत्र पर तालिबान का कंट्रोल हो चुका था, इस समय तालिबानी कट्टरपथियों ने इस्लामी तौर तरीकों को लागू किया जैसे:-
- मुस्लिम पुरूष ढाढ़ी रखेगे और महिलाएं बुरखा पहन कर ही घर से निकलेगी।
- 10 साल की लड़कियों को स्कूल जाने की मनाही।
- पालन नहीं करने पर मौत के घाट उतार दिया जाएगा।
अमेरिकी की वापसी के कारण
अमेरिका का मानना है कि तालिबान के विरूद्व चल रहा युद्ध अजेय है। अमेरिका प्रशासन ने वर्ष 2015 में मुरी में पाकिस्तान द्वारा आयोजित तालिबान और अफगान सरकार के बीच पहली बैठक के लिये अपना एक प्रतिनिधि भेजा था, हालांकि मुरी वार्ता से कुछ प्रगति हासिल नहीं की जा सकी थी।
दोहा वार्ता: तालिबान के साथ सीधी बातचीत के उद्देश्य से अमेरिका ने अफगानिस्तान के लिये एक विशेष दूत नियुक्त किया। उन्होंने दोहा में तालिबान प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की जिसके परिणामस्वरूप फरवरी 2020 में अमेरिका और विद्रोहियों के बीच समझौता हुआ। दोहा वार्ता शुरू होने से पहले तालिबान ने कहा था कि वह केवल अमेरिका के साथ सीधी बातचीत करेगा, न कि काबुल सरकार के साथ, जिसे उन्होंने मान्यता नहीं दी थी। अमेरिका ने इस प्रक्रिया से अफगान सरकार को अलग रखते हुए इस मांग को प्रभावी ढंग से स्वीकार कर लिया और विद्रोहयों के साथ सीधी बातचीत शुरू की।
अमेरिका और तालिबान के मध्य समझौते की शर्ते
इस समझौता विवाद के चार प्रमुख पहलू, हिसां, विदेशी सैनिकों, अंतर-अफगान शांति वार्ता तथा अल-कायदा एवं इस्लामिक स्टेट (आईएस की एक अफगान इकाई) जैसे आतंकवादी समूहों द्वारा अफगान धरती के उपयोग पर आधारित है समझौते में तय किये कि अमेरिका 11 सिंतबर 2021 तक अफगनिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लेगा।
तालिबान तक भारत की पहुंच
भारत ने दोहा में तालिबान से संपर्क किया। यह भारतीय पक्ष की ओर से देर से ही सही लेकिन तालिबान को एक यर्थाथवादी स्वीकृति देने का संकेत है कि आने वाले वर्षों में तालिबान अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। तलिबान से वार्ता करने के भारत के तीन महत्वपूर्ण हित है अफगानिस्तान में अपने निवेश की रक्षा करना, जो अरबों रूपए का है। भावी तालिबान शासन को पाकिस्तान का मोहरा बनने से रोकना यह सुनिश्चित करना कि पाकिस्तान समर्थित भारत विरोधी आतंकवादी समूहों को तालिबान का समर्थन न मिलें।
रोहित कोलवाल