
पता नहीं नए सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर को जानकारी है या नही, लेकिन उनके कार्यभार संभाले महीना पूरा हुआ नहीं और आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा बंदी की तरफ बढ़ गई। आकाशवाणी को नियंत्रित करने वाली संस्था प्रसार भारती की ओर से अभी तक इस सेवा को बंद किए जाने की आधिकारिक घोषणा तो नहीं हुई है, अलबत्ता जो कदम उठाए गए हैं, उसके संकेत तो यही हैं।
आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा की जिम्मेदारी उपमहानिदेशक आदित्य चतुर्वेदी और निदेशक देवेश कुमार निभा रहे थे। प्रसार भारती ने उन्हें इन जिम्मेदारियों से अलग कर दिया है। इसके साथ यहां तैनात रहे चार प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव, सात ट्रांसमिशन एक्जीक्यूटिव, आठ वरिष्ठ बाबुओं, एक स्टेनोग्राफर और 13 चपरासियों का एक साथ तबादला कर दिया है। प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव और ट्रांसमिशन एक्जीक्यूटिव को जहां दूरदर्शन भेजा गया है, वहीं सभी बाबुओं और चपरासियों को आकाशवाणी महानिदेशालय से संबद्ध कर दिया गया है। अव्वल तो इससे आकाशवाणी परिसर में हड़कंप मचना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल पहले से ही माना जा रहा था कि दुनियाभर में भारत के वैचारिक और सांस्कृतिक पक्ष को प्रस्तुत करने वाली विदेश प्रसारण सेवा को भी बंद किया जा सकता है। क्योंकि प्रसार भारती इसी तरह पहले राष्ट्रीय प्रसारण सेवा को बंद कर चुकी है।
मोदी सरकार बार-बार दावे करती है कि उसकी नीतियों से रोजगार बढ़ा। लेकिन इन दोनों प्रसारणों के बंद होने से अस्थायी तौर पर काम करने वाले करीब तीन सौ उद्घोषकों, अनुवादकों और प्रोडक्शन सहायकों की रोजी-रोटी पर बन आई है। मौजूदा नीतियों के चक्कर में सबसे ज्यादा वे लोग मारे जा रहे हैं, जो दिहाड़ी पर काम करके अपनी जिंदगी चलाते हैं। इस प्रक्रिया में पक्के कर्मचारियों और अधिकारियों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। जबकि किसी भी सरकारी विभाग की बदहाली के लिए वही जिम्मेदार होते हैं।
बहरहाल बंद हो रहे विदेश प्रसारण विभाग की जिम्मेदारी सूचना सेवा के वरिष्ठ अधिकारी अतुल तिवारी को दी गई है। बंदी के बाद जो भी थोड़ा बहुत रोष पैदा होगा, उसके लिए तिवारी को ही लानत-मलामत सहनी पड़ेगी। यह भी दिलचस्प ही है कि प्रसार भारती बोर्ड की सदस्य सायना एनसी ने एक दिन पहले ही प्रसार भारती के कैजुअल और कांट्रैक्चुअल कर्मचारियों-कलाकारों के हित को लेकर अनुराग ठाकुर से मुलाकात की थी, और उसके अगले ही दिन विदेश प्रसारण सेवा पर गाज गिर गई।
आरक्षण की संघ राजनीति
आरक्षित श्रेणी में आने वाली जातियों के समूह और उनके नेता भले ही न मानें, लेकिन यह व्यवस्था अब नासूर बनती जा रही है। जाति व्यवस्था में कथित रूप से पिछड़े लोगों की मदद के लिए शुरू हुई यह व्यवस्था अब जातीय समूहों के बहुमत की राजनीति में तबदील हो गई है। चाहे कोई कितना ही समर्थ क्यों ना हो, अपने जातीय खोल में इस व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर है। इस वजह से इस व्यवस्था को लेकर नई पीढ़ी के गैर आरक्षित वर्ग के युवाओं में खासा रोष है।
अतीत में भारतीय जनता पार्टी को ब्राहम्न-बनिया की पार्टी माना जाता था। लेकिन नई भाजपा अब आरक्षित वर्गों की पार्टी बनती जा रही है। या यूं कहें कि बनने की तैयारी में है। उसे लगता है कि वह आरक्षण का समर्थन करेगी तो उसे आरक्षित वर्गों का वोट मिलता जाएगा। वह माने बैठी है कि ब्राहम्न और बनिया बेचारा कहां जाएगा। इसमें लाला, भूमिहार, राजपूत आदि जातियों को भी जोड़ सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। भाजपा के लगातार आरक्षण की तरफ बढ़ते जाने को लेकर वह विरोध में है। इन जातीय समूहों के बीच अंदर ही अंदर गुस्सा खलबला रहा है।
वैसे इन जातीय समूहों को लगता था कि चलो भाजपा की मजबूरी है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो इससे इतर है। लेकिन अब इन वर्गों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी मोहभंग होने लगा है। इसकी वजह बना है आरक्षण पर दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले का बयान, जिसमें उन्होंने कहा है कि जब तक समाज का एक खास वर्ग ‘असमानता’ का अनुभव करता है, तब तक इसे जारी रखा जाना चाहिए। इस बयान के बाद अगड़ा वर्ग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। यह ध्यान देने की बात है कि संघ को भी बनाने में अगड़े वर्ग की ही भूमिका रही है। वर्षों तक वही इसकी बुनियाद रहा है। भाजपा की राजनीति को लेकर अगड़े वर्ग को एक आशा रहती थी कि वह संघ से आरक्षण के सवाल को उठा सकता है। वक्त आने पर संघ भाजपा को निर्देशित भी कर देगा। लेकिन दत्तात्रेय होसबोले के बयान के बाद अगड़े वर्ग की यह उम्मीद भी खत्म हो गई है। अब देखना होगा कि संघ अगड़े तबके के गुस्से पर किस तरह मरहम लगाने की कोशिश करता है।