
बेटा : पिताजी।
पिता : हां, बेटा।
बेटा : आप मुझे याद कर रहे थे?
पिता : बिल्कुल।
बेटा : क्या बात है?
पिता : कई दिन से बेटा तू दिख ही नहीं रहा है। तुझ से कोई बात या चर्चा ही नहीं हो रही है।
बेटा : असल में पिताजी, मैं बहुत व्यस्त हो गया हूं।
पिता : क्यूं, एक दम ऐसा क्या हो गया?
बेटा : पिताजी, आजकल देश में बलात्कार और उसके बाद पीडि़ता की हत्या कर देने के मामले बहुत बढ़ गए हैं।
पिता : तो क्या तू पुलिस में भर्ती हो गया है?
बेटा : मेरे को पुलिस में आज कौन भर्ती करेगा? जब मैं भर्ती होना चाहता था, तब तो किसी ने मेरी मदद की नहीं। मुझे पुलिस में सेवा के काबिल ही नहीं समझते थे।
पिता : बेटा, तू तो है ही नालायक, बिल्कुल निकम्मा, किसी काम के लायक नहीं। मैंने तो बड़ी कोशिश भी की थी पर सफल न हो पाया।
बेटा : आपके साथ यही तो मुश्किल है पिताजी। आपने अपने होनहार बेटे को किसी काबिल समझा ही नहीं।
पिता : मैं तो बेटा, पुलिस में या अन्य कहीं नौकरी दिलवा देने के लिए अफसरों और नेताओं को खुश करने के लिए सब कुछ करने को तैयार था, पर तब भी किसी ने मदद नहीं की।
बेटा : चलो छोड़ो, अब तो मुझे काम मिल गया है। इस काम में तो नाम भी है और पहचान भी।
पिता : बता तो सही यह काम है क्या? कुछ पैसे भी मिलेंगे या उसके लिये भी खर्च मुझ से ही मांगेगा?
बेटा : नहीं, मैं अब आपसे कोई पैसे नहीं मांगूंगा। जो काम मिला है उससे ही मेरा रोटी-पानी निकल जाया करेगा और उससे ऊपर मेरी जान पहचान भी बढ़ेगी।
पिता : पर काम तो बता क्या है?
बेटा : काम तो पिताजी बड़ा महत्वपूर्ण है।
पिता : तो तू उसमें क्या करेगा? तू कोई पुलिसमैंन है?
बेटा : मैं पुलिसमैन तो नहीं पर मेरी पार्टी ने एक महिला बलात्कार-हत्या विभाग खड़ा कर दिया है और मुझे उस विभाग का अध्यक्ष बना दिया है।
पिता : पर उसमें तू करेगा क्या?
बेटा : आजकल पिताजी सभी दलों में होड़ लग गयी है उस संतप्त परिवार को सबसे पहले पहुंच कर सांत्वना देने की और सत्ताधारी दल की निंदा करने की कि उसके राज में महिलायें सुरक्षित नहीं हैं। नेता तो इस घटना पर सरकार से त्यागपत्र मांग कर देते हैं।
पिता : मैं यही तो पूछ रहा हूं कि तू उसमें क्या करेगा?
बेटा : मैंने ऐसी सारी घटनाओं पर नज़र रखनी है और अपने महान नेता को बाकी पार्टियों के नेताओं से पहले उस परिवार के घर पहुंचाने का प्रबंध करना है।
पिता : यह तो फिर ऐसा ही हुआ जैसे हमारे समाचार चैनल कहते फिरते हैं कि यह समाचार हम अपने दर्शकों को सब से पहले दिखा रहे हैं।
बेटा : बिल्कुल ठीक पिताजी। जो नेता उनके पास सबसे पहले पहुंचेगा, नम्बर तो उसके ही बनेंगे न पहले। सब याद करेंगे कि देखो सबसे ज्यादा दु:ख तो उस पार्टी के महान नेता को हुआ जो सब से पहले भागा-भागा आया।
पिता : उससे क्या होगा?
बेटा : बात तो बड़ी सीधी है। जो नेता सबसे पहले पहुंचेगा उस पीडि़त परिवार के वोटों पर अधिकार भी सब से पहले उसी का होगा।
पिता : मतलब तो यह हुआ कि जिस परिवार की लड़की या महिला से यह घृणित अपराध हुआ और बाद में निर्मम हत्या हो गयी, तुम उनसे वोट की राजनीति करते हो।
बेटा : पिताजी आप पॉलिटिक्स के चोंचलों को नहीं समझ पाओगे। आप का समय गया गुजरा हो गया है। अब तो नयी पॉलिटिक्स की बात करो। इस में सब चलता है। सब ठीक है। एक बार तो पिताजी मैंने इतनी फुर्ती दिखाई कि अभी परिवार दाह-संस्कार करने ही गया हुआ था और लौटा नहीं था कि मैंने अपने महान नेता को उनके घर पहुंचा दिया। मेरे बॉस बहुत खुश हुए। कहने लगे कि हमें तेरे जैसे सहायकों की आवश्यकता है जो चुस्त और दरुस्त हो।
पिता : तेरी बात से तो ऐसा लग रहा है कि समाचार चैनलों की तरह राजनितिक दलों में टीआरपी की दौड़ है।
बेटा : आप जो मर्जी समझो, यह आपकी स्वतंत्रता है।
पिता : अच्छा जो तुम जल्दी पहुंच गए तो फिर क्या तुम शमशान घाट ही चले गए?
बेटा : नहीं। हम तो जानना चाहते थे। हम अगर शमशान घाट ही पहुंच जाते तब तो हमारे नम्बर और भी ऊंचे हो जाते। फिर आजकल कोरोना के कारण शमशान घाट पर लोगों को ले जाने पर भी संख्या निर्धारित है। उससे ज्यादा तो ले जा भी नहीं सकते।
पिता : हां, कोरोना के कारण कुछ पाबंदियां तो हैं।
बेटा : मैंने तो उनके लिए और भी प्रबंध कर रखा है।
पिता : क्या?
बेटा : मैंने एक ग्लैसरीन की शीशी ले रखी है। रुमाल पर उसे लगा कर मैं चुपचाप उनको दे देता हूं। वह आंखों पर मल लेते हैं और उनके आंसू टपकने शुरू हो जाते हैं। तब वहां बैठे लोग तारीफ करने लगते हैं। कहते हैं कि नेताजी बड़े नेकदिल इंसान हैं। उन्हें भी इतना ही दु:ख हो रहा है जितना कि हमको।
पिता : अच्छा? तेरे नेता तो अच्छा अभिनेता भी लगते हैं।
बेटा : पिताजी, नेता और अभिनेता में मामूली सा ही अंतर होता है। सफल नेता भी वही होता है जो अच्छा अभिनय भी कर लेता हो।
पिता : बिल्कुल ठीक। अभिनेता अपने अभिनय से जनता के मन पर छाप छोड़ जाता है। उसी तरह नेता को भी अभिनय में पारंगत होने का फायदा मिलता है।
बेटा : यही कारण तो है कि फिल्म अभिनेता जब पॉलिटिक्स में आते हैं तो वह काफी सफल रहते हैं।
पिता : इस पर तो मुझे एक घटना भी याद आ गई। एक बुजुुर्ग की मृत्यु हो गई। उसका दाह-संस्कार भी हो गया। दो भाई तो सहज भाव में थे पर उनका बहनोई बड़े जोर-जोर से लगातार रोता ही जा रहा था। बड़ी देर हो गई। आखिर एक भाई ने अपने जीजा को कह ही दिया – जीजाजी, आप तो ऐसे रोये जा रहे हैं जैसे देहांत हमारे नहीं आपके पिताजी का हुआ हो।
बेटा : पिताजी, यह काम बड़े चुस्त और सतर्क रहने का है। सूचना तुरंत भी प्राप्त करनी होती है और साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि पूरी जानकारी से अपने नेता को अवगत कराना पड़ता है।
पिता : हां, यह मामले तो बड़े संवेदनशील होते हैं। वैसे बेटा मुझे तो पीडि़ता के घर राजनितिक लोगो का जमावड़ा कुछ ठीक नहीं लगता। ये उनकी पीड़ा कम नहीं करते। नेताओं के आने और मीडिया के लोगों द्वारा उनके बार-बार फोटो लेना तो मैं समझता हूं कि उनके दु:ख को बढ़ाना ही हैं। परिवार के सदस्यों की मानसिक स्थिति इन ड्रामों के लिए तैयार नहीं होती।
बेटा : बात तो आपकी ठीक है पर साथ ही परिवार को अब आर्थिक सहायता भी मिल जाती है।
पिता : सरकार तो उनके परिवार के सदस्य को नौकरी देने का आश्वासन भी दे जाती हैं।
बेटा : परिवार के दु:ख को टीवी और समाचार पत्रों में छाप कर परिवार को सांत्वना भी मिलती है। समाचारपत्रों और टीवी चैनलों पर अपनी फोटो देख कर वह भी धन्य हो जाते हैं।
पिता : एक ओर तो सरकार और अदालतें पीडिता का नाम जाहिर करने की मनाही करते हैं और दूसरी ओर जब नेता लोग परिवार के सदस्यों के साथ फोटो छपवा लेते हैं तो पीडि़ता के परिवार का नाम जग परिचित हो जाता है। ऐसे में परिवार और पीडि़ता का चिन्हित हो जाना कहां बच पाता है।
बेटा : अब क्या करें पिताजी। यह तो पॉलिटिक्स के चोंचले हैं। इन नेताओं को परिवार के दु:ख की चिंता कम, अपने राजनितिक लाभ और वोटों की चिंता अधिक रहती है।
पिता : दु:ख की बात है कि ये राजनेता इन जघन्य अपराधों पर भी राजनीति खेलते-फिरते हैं।
बेटा : हमें तो यह भी चिंता रहती है कि ये राजनेता परिवार के सदस्यों को समझ लें। कहीं ऐसा न हो कि मां को बहन और बाप को भाई बताते फिरें।
पिता : यह काम तो सचमुच कठिन है। कहीं रिश्ता गलत बोल दिया तो उलटे लेने के देने पड़ जाते हैं।
बेटा : फिर एक ध्यान और करना पड़ता है। जहां हमारी सरकार हो वहां नहीं जाते। ऐसा करना तो पार्टी पर उल्टा पड़ जाता है।
पिता : अगर सरकार उस प्रदेश में अपने दल की हो तो क्या यह जघन्य अपराध दुखदायी नहीं होता? तब वहां संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती? इसका मतलब तो यह हुआ कि जो एक प्रदेश में घृणित अपराध और पाप है, वही दूसरे प्रदेश में पुण्य है।
बेटा : यह पॉलिटिक्स है पिताजी। हम कार्यकर्ताओं को तो बस आदेश का पालन करना होता है, बहस या तर्क नहीं।
पिता : पर घर में तो तू बड़ी बहस करता है, तर्क-कुतर्क करता है।
बेटा : पिताजी, घर-घर है, पॉलिटिक्स पॉलिटिक्स। यह मैं तो अब समझ गया हूं।
पिता : अपनी ही प्रदेश में ऐसा कर बैठना तो शायद अनुशासनहीनता मानी जाती होगी।
बेटा : यह तो मैं नहीं जानता। मैं तो अपना ध्यान अपनी ड्यूटी तक ही सीमित रखता हूं। मेरे नेता इसी में खुश रहते हैं।
पिता : वाह, क्या आदर्श हैं? जो यहां पाप है वही वहां पुण्य है। पॉलिटिक्स तेरे रंग अनेक! तेरे ढंग अनेक!