
लगातार बढ़ती जा रही तकनीकी के चलते आज कोई स्कूल के छात्र से लेकर बुजुर्गवार की बेचैनी यह जानने की है कि अफगानिस्तान में तालिबान जो कुछ कर रहा है, उसके असर भारत पर कितने ओर कैसे होंगे। तमाम गुना भाग का गुणनफल यह भी निकल सकता है कि तालिबान यदि अफगानिस्तान पर वाकई काबिज़ हो गया, तो भारत के लिए यह अशुभ संकेत ही होगा। खासकर जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में। सनद रहे कि जब बराक ओबामा जब 2014 में अमेरिका के राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने घोषणा कर दी थी कि अमेरिका शीघ्र अफगानिस्तान से अपनी पूरी सेना वापस बुला लेगा। बराक ओबामा की उक्त घोषणा जैसे ही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनीं, पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के सरगना अजहर मसूद ने ताबड़तोड़ अपने तेवर दिखा दिए। सईद ने कहा कि जैसे ही अफगानिस्तान से अमेरिकी कुमुक लौटेगी, वैसे ही हमारा संगठन कश्मीर घाटी से भारतीय सैनिकों को खदेड़ देगा। वो तो अच्छा हुआ कि 2014 में ही नरेंद्र मोदी की सरकार केन्द्र में बहुमत से आ गई। तब जम्मू कश्मीर का मसला भी उसके एजेंडा में था। तकनीकी कारणों से जब दुबारा मोदी सरकार भारी बहुमत से सत्ता में लौटी, तो संविधान से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटा दिए गए।
सनद रहे कि मोदी के कार्यकाल में सर्जिकल स्ट्राइक, और फिर एअर सर्जिकल स्ट्राइक सफल रूप से हुई, जिनमें पाकिस्तानी इलाकों में आतंकी प्रशिक्षण अड्डों को ध्वस्त कर दिया गया। उस वक्त की ख़बरों के अनुसार भारत ने भले ही अपने सैंनिक अफगानिस्तान की मदद के लिए कभी नहीं भेजे हों, लेकिन हथियारों की सप्लाई, और प्रशिक्षण के स्तर पर तालिबान के विरूद्ध पूरी मदद की गई। मुंबई के गेट वे हाउस नामक थिंक टेंक में कार्यरत समीर पाटील का कहना है कि जैसे-जैसे तालिबान की ताकत का अफगानिस्तान में विस्तार होगा, वैसे-वैसे पाकिस्तान मजबूत होता जाएगा। खबरें बहुत पहले आ चुकी हैं कि जब से तालिबान ने तीसरी बार अफगानिस्तान में सिर उठाया है तभी इमरान खान ने तालिबान लड़ाकों की मदद के लिए अपने 40 हज़ार सैनिकों को भेज दिया था। सनद रहे कि 9/11 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के मुख्य आरोपी ओसमा बिन लादेन को पाकिस्तान ने ही छिपा कर रखा था। बाद में जब बराक ओबामा ने सरकार संभाली, तब अमेरिकी विमानों ने पाकिस्तान के क्वेेटा शहर की गुफाओं में पनाह लिए बैठे ओसमा बिन लादेन को न सिर्फ घुसकर मार गिराया था, बल्कि उसके शव को अंतिम संस्कार के तहत प्रशांत महासागर में डुबो दिया था। इस पूरी एक्सरसाइज का पता पाकिस्तान को कानों कान नहीं चल पाया था, लेकिन पाकिस्तान की आज भी इतनी हैसियत कहाँ है कि वहाँ के प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिका के राष्ट्रपति जो. बाइडेन से आँख से आँख मिलाकर बात कर सके।
जैसे ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अकूत अमेरिकी डॉलर लेकर देश छोड़ा है, इमरान खान ने तालिबान की खुलकर तारीफ शुरू कर दी है। इमरान ने कहा कि अफगानिस्तान ने गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं, लेकिन जो ज़ेेहनी गुलामी है उसकी ज़ंजीरें यूँ ही नहीं टूटती। इस बयान को भारत को चिढ़ाने वाला माना जा रहा है। समीर पाटील का कहना है कि इस बार अफगानिस्तान की वायु सेना कमज़ोर थी ओर, इसलिए भारत उसकी भरपूर मदद भी नही कर पाया। समीर पाटील कहते हैं कि अफगानिस्तान की फौज को कामयाबी इसलिए भी नहीं मिल पाई कि उसके 11000 स्पेशल फोर्स के जवानों को समय पर अति आधुनिक प्रशिक्षण भारत की ओर से नहीं मिल पाया, जिसके कारण उसकी मारक शक्ति में वृद्धि नहीं हो पाई। समीर पाटील यह थ्योरी भी बताते हैं कि भारत रूस, ईरान के साथ मिलकर तालिबान विरोधी नीति बनाते तो कोई बात बनती, लेकिन इस बीच रूस, और इरान ने तालिबान के साथ शान्ति वार्ता शुरू कर दी। ऐसे में भारत के पास अकेले करने को क्या था।
समीर पाटील एक और अहम मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं। वे याद दिलाते हैं कि 1996 से 2001 के बीच मुल्ला उमर तालिबान के सर्वमान्य नेता थे। उस वक्त पाकिस्तान समेत चार देशों ने तालिबान को मान्यता दे रखी थी। समीर पाटील के अनुसार तालिबान के उदारवादी नेताओं का तब मानना था कि जब तक उनके देश में मूलभूत सुविधाओं का ढांचागत सुधार नहीं होता, तब तक समस्या इसी तरह उलझी रहेगी। इसके लिए ज़रूरी था कि अन्य देश भी तालिबान से हाथ मिला लेते, लेकिन इस तरह के नेक कामों में जितनी रुकावटें आएं, कम हैं। अन्य जानकारों का कहना है कि भारत ने, तो अफगानिस्तान में तीन अरब डॉलर का निवेश अब तक किया है, जिसमें वहाँ के संसद भवन का निर्माण, सडकों, पुलों, अस्पतालों आदि का आधारभूत ढांचा तैयार करवाना भी शामिल है। इसके लिए अफगानिस्तान को अन्य देशों से भी मदद की दरकार थी। अब इसका क्या करें कि इस तरह की इमदाद पाकिस्तान, और चीन बढ़ चढ़कर कर सकता है लेकिन उसके इरादे गलत होते है। अब तालिबान की मजबूती में ही उक्त दोनों देशों को भारत की कमज़ोरी दिखाई दे रही है। चीन ने तो भारत की देखा-देखी वहाँ एक लंबी सड़क का निमार्ण भी शुरू कर दिया है।
जान लें कि तालिबान का अर्थ होता है छात्र यानी वो छात्र जो सुन्नी इस्लामिक कट्टरपंथ को मदरसों में पढ़े। अफगानिस्तान यदि तालिबान से हारा है, तो माना जा रहा है कि इस हार में भारत की भी भले पराजय न छिपी हो, लेकिन एक सावधानी या सीख, तो दबी पड़ी हुई है। एशिया में भारत लगातार अकेला पड़ता जा रहा है। पाकिस्तान, और चीन, तो हमारे जानी दुश्मन हैं ही सही, अब मज़ंर ऐसा है कि नेपाल जैसा देश, जो भारत से नमक तक मंगाया करता था, वह भी जब तब आँखें तरेरने लगता है। भूटान, हो या श्रीलंका या बांग्लादेश या म्यामांर सभी कभी अपने थे, लेकिन आज पराए हो गए हैं। हाल के वर्षों में राजनय और जासूसी जैसी अनिवार्य बुराइयों के पसे मज़ंर यह भारत की चौकाने वाली हार तक कही जा रही है। भारत के लिए बस एक ही सम्भावना बताई जा रही है, ताकि अफगानिस्तान तालिबान के रूप में पाषाण या मध्यकालीन युग में जाने से बचे। सबसे सफल हो सकने वाली थ्योरी यह बताई जा रही है कि अफगानिस्तान की उत्तरी पर्वतमालाओं में कभी अफगान मुजाहिदिनों ने तत्कालीन सोवियत संघ की नाक में दम कर रखा था। इन मुजाहिदीनों के कबीले जब एक जुट हुए, तो उनका नामकरण हुआ नार्दन अलॉयन्स। यह एक सैन्य संगठन है। कभी इसके कमाण्डर अहमद शाह ने भारत से घरोपा कर रखा था। इस बीच अल कायदा के एक बहुरुपिए फिदायीन ने न्यूज रिपोर्टर बनकर अहमद शाह की हत्या कर दी। अब अहमद शाह का बेटा अहमद मसूद नार्थंन अलॉयन्स का कमांडर बना दिया गया है, जो फिलहाल लंदन में पढ़ रहा है। वह फ्रेंच भाषा का भी जानकार है। उसका कहना है कि चूँकि अमेरिकी सेना लौट रही है, इसलिए हम अपने मुजाहिदीनों को फिर एक जुट करके तालिबान से अफगान पुरुषों, स्त्रियों, और बच्चों के हितों के जंग के लिए उतरेंगे। अहमद मसूद ने इशारों इशारों में भारत के ह$क में भी बात कह दी है, और वह यह कि हमें अल कायदा का पूरी तरह नेस्तनाबूद करना है।
नवीन जैन