
आजादी के आंदोलन के दौरान स्वाधीनता सेनानियों ने सपना देखा था कि स्वाधीन भारत में जातिवाद को जड़ से समाप्त कर दिया जाएगा। संविधान सभा में 11 दिसंबर 1946 को बतौर सभापति अपने पहले भाषण में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संविधान सभा ऐसा संविधान बनाएगी, जो किसी भी व्यक्ति से उसकी जाति, मजहब या प्रांत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं करेगी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि संविधान के सामने स्वाधीन भारत के सभी व्यक्ति बराबर होंगे। लेकिन आज जिस स्थिति में भारतीय राजनीति पहुंच गई है, उसे देख आसानी से कहा जा सकता है कि हमारे स्वाधीनता सेनानियों के सपनों के मुताबिक भारत ने निश्चित तौर पर जातिवाद के खात्मे का उद्देश्य लेकर अपनी यात्रा शुरू की थी, वह अब जातिवाद के चरम पर जाकर पहुंच गई है। जिस तरह जाति जनगणना को लेकर राजनीति तेज हुई है, उसके संकेत तो यही हैं।
सवाल यह है कि आखिर भारतीय संविधान सभा ने जातिवाद को खत्म करने का विचार कहां से लिया था? इसका जवाब गांधी जी के एक लेख में मिलता है। आजादी से ठीक 17 साल पहले 01 मई 1930 के यंग इंडिया में गांधी जी ने लिखा था, ‘मेरे अपनों के, हमारे, सबके स्वराज में जाति और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। स्वराज सबके लिए…कल्याण के लिए होगा।Ó
लेकिन क्या हुआ, देश में जाति की राजनीति लगातार बढ़ती चली गई। ऐसा नहीं कि गांधी के नैतिक और प्रत्यक्ष- दोनों तरह के निर्देशन में काम कर रही कांग्रेस जातिवाद के आधार पर फैसले नहीं लेती थी, 1937 के चुनावों तक में कांग्रेस ने भी जाति और धर्म के हिसाब से भी उम्मीदवार तैयार किए थे। लेकिन उसमें लिहाज था। यह उलटबांसी ही कही जा सकती है कि जातिवाद को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा योगदान उस समाजवादी धारा के राजनेताओं का रहा है, जिसके नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया-जाति तोड़ो- का नारा देते थे। डॉक्टर लोहिया का मानना था कि जाति का खात्मा जातियों के बीच आपसी भरोसे और उदार सोच के साथ होगा। लोहिया ने शोध और पढ़ाई अर्थशास्त्र में की थी, जाहिर है कि उनकी वैचारिकता को पुष्ट करने में इसका ज्यादा योगदान था। वे मानते थे कि समाज में समता जैसे ही आएगी, जातिवाद खत्म हो जाएगी। लोहिया इसी सोच के साथ भरोसा बढ़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में रहते हुए उन्होंने आपसी भरोसे और उदारता की उम्मीद को बढ़ाने की सोच के साथ नारा था- संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।
लोहिया की सोच भले ही अच्छी रही, लेकिन उनके अनुयायियों ने जातियों को खत्म करने की बजाय जातियों की राजनीति शुरू कर दी। लोहिया के लिए पिछड़ पावैं सौ में साठ का नारा जाति खत्म करने की दिशा में बड़ा कदम था, लेकिन उनके अनुयायियों ने जाति खत्म करने की दिशा में कोई काम नहीं किया। दरअसल जैसे-जैसे आजादी अतीत का विषय बनती गई, वैसे-वैसे राजनीति जाति को खत्म करने की बजाय जातिवाद को बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ती गई। आज जो जाति जनगणना की जो मांग बढ़ी है, उसके पैरोकार जो नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और जीतनराम मांझी हैं, वे खुद को लोहियावादी बताते नहीं थकते। यह संयोग नहीं है कि जाति जनगणना की पहली बार मांग बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल ने 1980 में की थी। यह बात और है कि तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इसे नामंजूर कर दिया था। यहां याद कर लेना चाहिए कि ये वही बीपी मंडल रहे, जिन्होंने पिछड़ों को लेकर कुछ ही वक्त पहले रिपोर्ट दी थी, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में मंडल में आयोग की रिपोर्ट के नाम से मशहूर है।
भारत में 1872 में अंग्रेजों ने जनगणना की शुरूआत की। लेकिन जाति आधारित जनगणना सिर्फ और सिर्फ एक बार 1931 में ही हुई थी। अंग्रेज जिस तरह भारत को तोडऩे का कुचक्र रच रहे थे, कोई शक नहीं कि जाति जनगणना के विचार के पीछे भी देश तोडऩे की ही मंशा थी। इस तथ्य को आजादी के बाद सरदार पटेल ने भी समझा। आजादी के बाद जब 1951 की जनगणना की तैयारी हो रही थी, तब भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी। लेकिन पटेल ने इसे यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि ऐसा करने से भारत का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। यहां यह भी याद किया जाना चाहिए कि दूसरा विश्व युद्ध होने की वजह से साल 1941 में जनगणना हुई ही नहीं थी। भारत में जब भी राजनीतिक समर्थन की चर्चा होती है, तब 1931 की जनगणना के ही आधार पर हासिल आंकड़ों की बुनियाद पर अनुमान प्रस्तुत किया जाता है।
1950 का साल हो या फिर 1980 का या फिर आज का वक्त, जाति आधारित जनगणना की मांग को नामंजूर करने वाले गृहमंत्रियों का एक ही तर्क रहा है कि इससे सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। जाति जनगणना की मांग करने वालों का तर्क है कि इससे सभी जातियों की सही जानकारी मिली तो उनके हिसाब से उनके योग्य योजनाएं बनाने और उन्हें लागू किए जाने में मदद मिलेगी। मंडल आयोग की भी रिपोर्ट इसी सोच की बुनियाद पर लागू की गई थी कि इससे पिछड़ी जातियों को राजनीतिक और आर्थिक आधार पर मजबूत करने में मदद मिलेगी। लेकिन मंडल आयोग के बाद पिछड़ों के लिए जो आरक्षण दिया गया है, जिस तरह पिछड़ी जातियों का आर्थिक-राजनीतिक और सामाजिक सशक्तीकरण हुआ है, उसकी उलटबांसी को रोहिणी आयोग ने भी सामने ला दिया है। मंडल आयोग के हिसाब से केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की संख्या 2633 है, लेकिन पिछड़े वर्ग का आरक्षण लागू होने के इतने दिनों में इस सूची के एक हजार जातियों में से किसी के एक ही व्यक्ति को नौकरी नहीं मिल पाई है। यही वजह है कि जाति जनगणना के खिलाफ अब छोटी जातियां सामने आने लगी हैं। बिहार के माली समाज ने जाति जनगणना का विरोध करते हुए कहा है कि अगर जाति आधारित जनगणना हुई तो उसके नतीजों के बाद कम संख्या वाली जातियों को और नुकसान उठाना पड़ेगा। होगा कि जिस जाति की संख्या ज्यादा होगी, लोकतंत्र की आधुनिक परिपाटी के मुताबिक खुद को और ताकतवर महसूस करने लगेगी और आरक्षित संसाधनों पर ताकत से कब्जा करेगी।
जाति नष्ट करने की इस यात्रा का जो संदेश है, वह स्पष्ट है। जाति तोड़ते-तोड़ते नए सिरे से जाति व्यवस्था इस कदर स्थापित हुई है कि उसकी वजह से संख्या के हिसाब से बड़ी जातियां नए दौर में अपने-अपने खांचे में श्रेष्ठताबोध का शिकार होती जा रही हैं। इस लिहाज से कह सकते हैं कि जातियां अपने-अपने खांचे में नए तरह से खुद को अन्य के सामने ताकतवर बनाती जा रही हैं। बेशक आज के दौर के प्रचलित नैरेटिव के हिसाब से सवर्ण जातियां भले ही पिछड़े और अनुसूचित वर्ग के निशाने पर हैं, लेकिन असलियत यह है कि हर जाति अपने से कमजोर जाति के खिलाफ अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रही है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हकों पर अपनी ताकत के हिसाब दावेदारी कर रही हैं। जाति जनगणना की मांग उसी दावेदारी का परोक्ष समर्थन है। लेकिन जानबूझकर या फिर अनजाने में इस तथ्य को जाति गणना की मांग करने वाले राजनीतिक दल समझ नहीं रहे हैं।
जयप्रकाश नारायण का आंदोलन मूलत: समाजवादी धारा के वर्चस्व का आंदोलन था, जिसमें बाद में जनसंघ भी शामिल हुआ। जनसंघ पर उसके विरोधी अपने राजनीतिक कारणों से सवर्ण वर्चस्व का आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन उस आंदोलन में शामिल राजनीति आने वाले दिनों में जातिवादी हो सकेगी, इसका भान चंद्रशेखर को था। उन्होंने चौहत्तर के आंदोलन के दौरान जेपी को एक चि_ी लिखकर कहा था कि जेपी भले समझ रहे हों कि जो लोग उनके साथ आ रहे हैं, वे समाज और व्यवस्था बदलेंगे। लेकिन चंद्रशेखर मानते थे कि आने वाले दिनों में इस आंदोलन में शामिल नेता सत्ता के लिए उनके साथ आ रहे हैं और आने वाले दिनों में अपनी जातियों के नेता साबित होंगे।
चंद्रशेखर कितने सही थे, ये समय-समय पर साबित होता रहा है। अब तो जिस तरह जातीय समर्थन पर जिस तरह राजनीति केंद्रित हो गई है, वह चंद्रशेखर की आशंका को ही सच साबित कर रही है।
संविधान सभा ने सोचा था कि संविधान और कानून के सामने कोई विशेष नहीं होगा। जाति, धर्म और प्रांत के आधार पर किसी से कोई भेदभाव ना हो, इसका ध्यान रखा गया। संविधान के अनुच्छेद 14 में इसी लिए समानता को मूल अधिकार में शामिल किया गया। यह ठीक है कि आजादी के कुछ साल बाद तक के लिए जातीय आधार पर आरक्षण दिया गया। वैसे इसे अनंत काल तक लागू किए जाने के खिलाफ खुद अंबेडकर भी थे। उनका भी लोहिया की तरह मानना था कि इस व्यवस्था से समाज में समानता आएगी और फिर किसी को विशेष दर्जा देने की जरूरत नहीं रहेगी।
लेकिन इसका ठीक उलट हुआ। चूंकि जातियां राजनीति का नया हथियार बनती चली गईं, यही वजह है कि जातीय जनगणना की मांग उठ रही है। जातीय जनगणना की मांग करने वाले उन जातियों का और ज्यादा समर्थन हासिल करने की कोशिश में हैं, जिनकी बुनियाद और समर्थन पर उनकी राजनीति टिकी हुई है। लेकिन इसका उलटा यह होना है कि जैसे ही जातीय जनगणना हुई, संख्या के लिहाज से जो जातियां ताकतवर होंगी, वे अपने लिए और हिस्सेदारी मांगेंगी। क्योंकि इसकी बुनियाद राजनीति में कांसीराम के बहाने पहले ही रखी जा चुकी है। कांसीराम पहले ही कह चुके हैं कि जिसकी जिनकी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। चाहे सौ में साठ का नारा हो या हिस्सेदारी वाला, उनका मूल स्वर अब जातिवाद को ही परोक्ष रूप से बढ़ाना है। इससे संविधान के अनुच्छेद 14 वाले समानता के सिद्धांत का भी उल्लंघन है। लेकिन दुर्भाग्यवश जाति की बुनियाद पर लगातार मजबूत होती राजनीतिक व्यवस्था इसे समझ नहीं पा रही है। जाति जनगणना की मांग उसी का विस्तार है।
उमेश चतुर्वेदी