
यह विरोधाभास और बिडंबना ही कहा जाएगा कि जब भी चुनाव नजदीक आता है, वही राजनीतिक तंत्र जाति व्यवस्था को ही साधने में जुट जाता है, जिसे समाज सुधार के नजरिए तोडऩे की कोशिश करता है। जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों के हर कदम के पीछे जातीय समीकरण साधने को ही देखा जा रहा है। हिंदी दिवस यानी 14 सितंबर के दिन अलीगढ़ में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से प्रस्तावित राजा महेंद्र प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के शिलान्यास कार्यक्रम के बारे में भी माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी इस बहाने जाट समुदाय को साधने की कोशिश कर रही है। इस विश्वविद्यालय का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था।
माना जाता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की करीब 17 फीसद आबादी जाट है। योद्धा और किसान समुदाय के तौर पर प्रतिष्ठित जाट समुदाय के बारे में माना जाता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदान की दिशा को तय करता है। 2014 और 2019 के लोकसभा के साथ ही 2017 के विधानसभा चुनाव में जाट समुदाय का एकमुश्त समर्थन भारतीय जनता पार्टी को मिला। जिसका असर यह हुआ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी 18 लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी विजयी रही। इस इलाके में उत्तर प्रदेश की 120 विधानसभा सीटें आती हैं। जिनमें से 71 पर तो सीधे-सीधे जाट समुदाय के मतदान की दिशा ही तय करती है कि बाजी किसकी ओर जा रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बाकी 49 सीटों पर भी उनका सहयोगी रूख ही तय करता है कि लोकतंत्र का ताज किसके सिर सजेगा।
माना जा रहा है कि खेती-किसानी से जुड़े तीन कानूनों के खिलाफ जो किसान आंदोलन करीब दस महीने से जारी है, उसकी वजह से किसान-खासकर जाट समुदाय के बीच भारतीय जनता पार्टी का आधार घटा है। इसीलिए जाटों को साधने की कोशिश में राजा महेंद्र प्रताप का नाम भुनाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी जुट गई है।
अब सवाल यह है कि क्या राजा महेंद्र प्रताप जाट समुदाय के बीच इतने लोकप्रिय रहे हैं कि उनके नाम पर जाटों को एकजुट करके कोई भी दल अपनी तरफ लुभा सकता है इस पर विचार से पहले राजा महेंद्र प्रताप के बारे में जान लेते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के बीच राजा महेंद्र प्रताप वैसी लोकप्रियता भले ही हासिल नहीं कर पाए, जैसी लोकप्रियता चौधरी चरण सिंह ने हासिल की। लेकिन यह सच है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट राजा महेंद्र प्रताप की इज्जत काफी पढ़े-लिखे व्यक्ति के तौर पर करता है। हाथरस जिले की मुरसन रियासत के राजपरिवार में 1886 में उनका जन्म हुआ था। राजा महेंद्र प्रताप की पढ़ाई-लिखाई अलीगढ़ के मोहम्मडन-एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज में हुई। जिस दौर में वे पढ़ाई कर रहे थे, वह दौर कांग्रेस के उभार का था। इसी बीच अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन कर दिया। इसके खिलाफ पूरे देश में बंग-भंग का आंदोलन शुरू हुआ। युवा महेंद्र प्रताप को भी इस आंदोलन ने प्रभावित किया। इसकी वजह से उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया। यहां यह बताना जरूरी है कि बाद में यह कॉलेज ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। बंग-भंग के खिलाफ देशभर में विदेशी बहिष्कार का आंदोलन छिड़ा। विदेशी वस्त्रों और सामानों की होली जलाई जाने लगी। दूसरे युवाओं की तरह महेंद्र प्रताप भी दादा भाई नौरोजी, बिपिन चंद्र पॉल और बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। हालांकि उनका राजपरिवार आंदोलन में सहभागी नहीं था। फिर भी 1905 में कोलकाता में हुए कांग्रेस सम्मेलन में हिस्सा लिया। इसके बाद तो विदेशी शासन के खिलाफ वे प्राणपण से आंदोलन में कूद पड़े। कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने के बाद उन्होंने तय किया कि स्वेदशी छोटे उद्योगों का विकास करते हुए वे स्वदेशी का विस्तार करेंगे।
राजा महेंद्र प्रताप चूंकि राजपरिवार के थे, लिहाजा उनके पास आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं थी। उन्होंने यूरोप का दौरा किया। इस दौरान उनके मन में देश प्रेम का बीज और भी कहीं गहरे तक जड़ जमाता चला गया।
1914 में पहला विश्व युद्ध छिडऩे के दौरान राजा महेंद्र प्रताप तीसरी बार दिसंबर महीने में विदेश यात्रा पर गए। वहां घूम-घूम कर भारत के प्रति समर्थन जुटाते रहे। घूमते-घूमते वे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पहुंचे। राजा महेंद्र प्रताप के मन में भारत को आजाद कराने की ज्वाला धधकती रही। इसी बीच एक दिसंबर 1915 को उनका जन्मदिन आया और इसी दिन उन्होंने काबुल में भारत के लिए अंतरिम सरकार का गठन किया। जिसके खुद वे राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतउल्लाह को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाया। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया और भारत की आजादी के लिए प्रयासरत हो गए। यहां यह याद कर लेना चाहिए कि राजा महेंद्र प्रताप के सरकार बनाने के करीब 28 साल बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी 21 अक्टूबर के दिन सिंगापुर में एक बैठक के दौरान भारत की सरकार का गठन किया था, जिसके प्रधानमंत्री वे खुद थे।
बहरहाल राजा महेंद्र प्रताप ने जैसे ही अंतरिम सरकार का गठन किया, वैसे ही वे अंग्रेजों की नजर में चढ़ गए। भारत में उनकी पूरी संपत्ति जब्त कर ली गई और उनकी गिरफ्तारी के लिए इनाम का ऐलान कर दिया गया। महेंद्र प्रताप की रूसी क्रांति के नेता लेनिन से मित्रता थी। इस बीच अंग्रेज सरकार ने उन्हें पकडऩे के लिए अभियान तेज कर दिया। खतरा देख 1925 में वे अपेक्षाकृत सुरक्षित देश जापान भाग गए। जब देश आजादी की तरफ बढ़ रहा था, तब 1946 में 32 साल के निर्वासन के बाद देश लौटे। लौटते ही वे महात्मा गांधी से मिलने वर्धा गए। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें तवज्जो नहीं दी। इसकी वजह से देश की पहली अंतरिम सरकार बनाने वाला यह सेनानी आजाद भारत में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाने से चूक गया।
राजा महेंद्र प्रताप और सुभाष चंद्र बोस में समानता रही कि दोनों ने निर्वासित रहते हुए विदेशों में सरकार बनाई। लेकिन दोनों को आजाद भारत में कोई भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। महेंद्र प्रताप आजाद भारत में लौट आए, लेकिन सुभाष चंद्र बोस को ऐसा अवसर नहीं मिला। महेंद्र प्रताप ने 1957 का चुनाव मथुरा से निर्दलीय लड़ा और करीब तीस हजार मतों से विजयी रहे। इस चुनाव में उन्होंने एक और जाट नेता चौधरी दिगंबर सिंह को हराया था। यहां से उस चुनाव में भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी मैदान में थे। हालांकि उनकी जमानत जब्त हो गई। वाजपेयी उस चुनाव में चार जगहों से लड़ रहे थे। मथुरा समेत तीन जगहों पर उनकी हार हुई, जबकि लखनऊ के नजदीक बलरामपुर से वे जीत गए थे। बहरहाल 1962 के चुनाव में चौधरी दिगंबर ने करीब इतने ही मतों से महेंद्र प्रताप हो हरा दिया था।
राजा महेंद्र प्रताप आजीवन दानवीर बने रहे। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए 1929 में 3.8 एकड़ जमीन दान में दी थी। जिसके आधे हिस्से पर विश्वविद्यालय की ओर से सिटी स्कूल चल रहा है। उन्होंने शैक्षिक संस्थानों के लिए हमेशा जमीन दान दी। उन्होंने वृंदावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। उनके काम से महात्मा गांधी भी प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने उनके बारे में लिखा है, ‘राजा महेंद्र प्रताप के लिए 1915 में ही मेरे हृदय में आदर पैदा हो गया था। उससे पहले भी उनकी ख्याति का हाल अफ्रीका में मेरे पास आ गया था। उनका पत्र व्यवहार मुझसे होता रहा है, जिससे मैं उन्हें अच्छी तरह से जान सका हूं। उनका त्याग और देशभक्ति सराहनीय है।’
1962 के चुनाव में मथुरा से हार के बाद वे सार्वजनिक जीवन में बहुत सक्रिय नहीं रहे। 29 अप्रैल 1979 में उनके निधन के बाद उनकी याद में डाकटिकट जारी किया गया। लेकिन यह सच है कि जैसा उन्हें सम्मान मिलना चाहिए था, वैसा नहीं मिला। इतिहास में भी उनका वैसा उल्लेख नहीं है।
महेंद्र प्रताप की इस अनदेखी को भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुद्दा बनाने की तैयारी में है। इसके जरिए उसकी कोशिश किसान आंदोलन की वजह से नाराज हुए किसानों-खासकर जाट समुदाय के लोगों को फिर से अपने पाले में लाना है।
चौधरी चरण सिंह ने इस इलाके में अजगर और मजगर नाम के जातीय समीकरण बनाकर वोटरों को साधने की कोशिश की थी। अजगर यानी अहीर, जाट, गूजर और राजपूत, इसी तरह मजगर मतलब मुसलमान, जाट, गूजर और राजपूत। लेकिन पिछले कुछ सालों में ये दोनों ही समीकरण ध्वस्त हुए हैं। इसकी वजह से जाटों के निर्विवाद नेता माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह और अजीत के बेटे जयंत को भी चुनावी हार का मुंह देखना पड़ा। अजीत सिंह अब नहीं रहे। किसान आंदोलन के चलते उनका राष्ट्रीय लोकदल भी उम्मीदें लगाए बैठा है। ऐसे में यह तय है कि अगले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का पश्चिमी इलाके में हर दल की उम्मीद एक बार फिर जाट वोटर ही होंगे।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश चल रही है। चुनावी आहट के बीच जाटों को लुभाने की कोशिश उसी राजनीति की अगली कड़ी है। ऐसे में तय है कि एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति जातिवाद के ही इर्द-गिर्द घूम रही है।
उमेश चतुर्वेदी