
पहले क्राइम रिपोर्टरों के ही बारे में माना जाता था कि वे सिर्फ वही लिखते हैं, जो पुलिस बताती है। हालांकि इसके अपवाद भी होते रहे हैं। लेकिन अब लगता है कि राजनीतिक रिपोर्टर भी उन्हीं की तरह हो गए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने की घटना को पहले कांग्रेसी दलित मुख्यमंत्री के रूप में लेकर लहालोट नहीं हो उठते। कांग्रेस कवर करने वाले रिपोर्टर इस खबर को ऐसे ले उड़े जैसे देश में इतिहास रच दिया गया। उन्होंने यह रिसर्च करने की जहमत तक नहीं उठाई कि कांग्रेस ही इसके पहले दलित समुदाय के कई लोगों को राज्यों की कमान सौंप चुकी है।
कांग्रेस ने सबसे पहले आंध्र प्रदेश को दलित समुदाय का मुख्यमंत्री दिया था। ये मुख्यमंत्री थे दामोदरन् संजीवैया, जो आंध्र प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री थे। उन्होंने 11 जनवरी 1960 को शपथ ली थी और 12 मार्च 1962 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। अनुसूचित जाति समुदाय के दूसरे मुख्यमंत्री रहे भोला पासवान शास्त्री, जो तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे। पहली बार 1968 में वे तीन महीने के लिए मुख्यमंत्री रहे। फिर वे 1969 में मुख्यमंत्री बने, हालांकि इस बार उनकी सरकार महज 13 दिन तक ही चली। शास्त्री तीसरी बार 1971 में वे मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बार सिर्फ सात महीने तक ही उनकी सरकार चल पाई।
देश का अगला दलित मुख्यमंत्री बिहार को ही मिला था। जनता पार्टी के दौरान 1979 में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिर गई तो रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने 21 अप्रैल 1971 को शपथ ली थी, लेकिन उनका कार्यकाल 17 फरवरी 1980 तक ही रहा।
कांग्रेस कवर करने वाले पत्रकार शायद यह नहीं जानते कि कांग्रेस ने राजस्थान में जगन्नाथ पहाडिय़ा को 1980 में मुख्यमंत्री बनाया था। पहाडिय़ा भी दलित समुदाय के ही थे। कांग्रेस महाराष्ट्र में भी सुशील कुमार शिंदे के रूप में भी दलित मुख्यमंत्री दे चुकी है। जो 2003 में मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती दलितों की ही आवाज और प्रतिनिधि हैं। बिहार में नीतीश कुमार भी जीतन राम मांझी जैसे दलित राजनेता को मुख्यमंत्री बना चुके हैं। जीतन राम मांझी ने 20 मई 2014 को शपथ ली थी, लेकिन जब वे नीतीश कुमार की बजाय अपने मन की करने लगे तो 20 फरवरी 2015 को उन्हें हटा दिया था। चरणजीत सिंह चन्नी बेशक पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री हैं, लेकिन यह आधा सच है कि कांग्रेस ने पहला दलित मुख्यमंत्री दिया है। बल्कि कांग्रेस ही इसके पहले कई मुख्यमंत्री दलित समुदाय से दिए हैं। इसलिए हे राजनीतिक रिपोर्टरों। लहालोट होने की बजाय थोड़ा शोध किया करो। कम से कम जनता के उस वर्ग को तो नहीं भरमा सकोगे, जिन्हें इतिहास की गहरी जानकारी नहीं है।
ठोस और आयातित कार्यकर्ता में अंतर
भारतीय जनता पार्टी कभी खुद को पार्टी विथ डिफरेंस बताते नहीं थकती थी। 1999 के पहले तक पार्टी ने शुचित और सिद्धांत पर खूब ध्यान दिया। समझौते कम किए। लेकिन एक बार उसे सत्ता का जो स्वाद लग गया, वह भी सिद्धांतों से समझौता करने लगी। हाल के दिनों में तो कुछ ज्यादा ही ऐसा हो रहा है।
भारतीय जनता पार्टी की ख्याति कार्यकर्ता आधारित पार्टी की है। यहां ज्यादातर सक्रिय कार्यकर्ता कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद या ऐसे ही संगठनों में तपने के बाद आया करते थे। वे पार्टी के सिद्धांतों को लेकर प्रतिबद्ध होते थे। अब भी ऐसे कार्यकर्ता हैं। लेकिन अब वे निराश होने लगे हैं। इसकी वजह यह है कि हाल के दिनों में आयातित नेताओं को प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की तुलना में ज्यादा तरजीह दी जाने लगी है। सत्ता का स्वाद भी बाहरी कार्यकर्ता ज्यादा भोग रहे हैं।
प्रतिबद्ध कार्यकर्ता पार्टी के विपक्ष में रहते हुए भी संघर्षरत रहे। पुलिस की लाठियां खाईं, विपक्षी दलों और उनके कार्यकर्ताओं से लड़ते रहे, मार खाई। ऐसे कार्यकर्ताओं को उम्मीद होना स्वाभाविक है कि जब पार्टी सत्ता में आएगी तो उसे तवज्जो मिलेगी, वाजिब पद या फायदा मिलेगा। लेकिन भाजपा के साथ हाल के दिनों में ऐसा होता नहीं दिख रहा। ठोस कार्यकर्ता दरी और जाजिम बिछाते रह जा रहा है और बाहर से आए लोग हिंदुत्व और संघ आदि के दो-चार लच्छेदार भाषण लिख-बोलकर पार्टी से फायदा तक हासिल कर रहे हैं। लेकिन ऐसे ही कार्यकर्ताओं के साथ जैसे ही कुछ ऐसा-वैसा होता है, उनकी सारी विचारधारा छू मंतर हो जाती है और प्रतिबद्धता किनारे लगते देर नहीं लगती। ऐसे ही कार्यकर्ताओं में बाबुल सुप्रियो को भी रखा जा सकता है। जिन्हें पार्टी ने संसद पहुंचाया, मंत्री बनाया। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान टालीगंज से वे भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार बनाया। तब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें जमकर पीटा भी था। लेकिन जैसे ही उनसे मंत्रिपद छीना, उन्होंने उसी तृणमूल की शरणागत होने में भलाई नजर आई, जिसके बारे में वे क्या नहीं बोलते थे। बंगाल से ही मुकुल राय भी ऐसे ही उदाहरण हैं।
आजकल बौद्धिक सर्किल में आयातित बौद्धिक भी छाए हुए हैं। अतीत में घोर कम्युनिस्ट रहे ये बौद्धिक ठोस कार्यकर्ताओं की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर पद हासिल कर चुके हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद तक खुलेआम कुछ मंत्रियों की आलोचना करते नहीं थकते थे। आलोचना जायज मुद्दों पर हो तो कोई बात नहीं, लेकिन वह चरित्र हनन जैसी होती थीं। लेकिन वे इन दिनों आनंद लूट रहे हैं। लेकिन यह तय है कि जैसे ही सत्ता बदली, या उनसे पद-प्रतिष्ठा छिनी, वे भी बाबुल सुप्रियो की राह पर चलने से नहीं चूकेंगे।
ठोस कार्यकर्ता हर सुख-दुख में विचारधारा और सिद्धांत के प्रति आग्रही होता है, बुरे दिनों में वह संगठन के साथ कहीं और मजबूती से खड़ा रहता है। लेकिन आयातित कार्यकर्ता बाबुल सुप्रियो होता है। दिलचस्प यह है कि भाजपा और संघ परिवार में इन दिनों इसकी खूब चर्चा हो रही है।