
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में देशभक्ति के गीतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन गीतों ने अनगिनत देशवासियों को देश पर सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु प्रेरित किया। उनमें अदम्य उत्साह और अक्षुण्य शक्ति का संचार किया। जिस प्रकार ‘वंदेमातरम्’, जो आज हमारा राष्ट्रीय गीत है, ने भारत को माता के रूप में स्थापित कर उनकी आस्था को एक ठोस आधार दिया उसी प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन में ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ ने भी देशवासियों को भारत माता के लिए अपने प्राणों तक की आहुति डालने के लिए तैयार किया।
देश के हर एक प्रदेश, और हर शहर-गांव की गलियां आजादी के दीवानों की टोली के इस गीत से गूंज उठीं-
मेरा रंग दे बसंती चोला
माए मेरा रंग दे बसंती चोला।
गीत के मुखड़े से ही यह स्पष्ट था कि देश को आजाद करवाने के लिए हर प्राणी में कितनी तड़प है। वह किस प्रकार अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तत्पर हैं। इसी इच्छा की पूर्ति के लिए तो वह अपनी मां से अपने लिए बसंती रंग में अपने चोले को रंगने की बात कहते हैं। बसंती चोला बलिदान का चोला है क्योंकि बसंती रंग भारत में शुरू से ही कुर्बानी का प्रतीक माना जाता रहा है।
इस गीत के प्रति शहीद भगत सिंह को गहरा लगाव था। वह इसे तन्मय होकर प्राय: गुनगुनाया करते थे। गाया करते थे। किसी शहीद की बरसी मनाते अथवा फिल्म प्रोजेक्टर के माध्यम से वीर नायकों के वृतांत को दिखाने से पूर्व वह दर्शकों अथवा श्रोताओं के लिए इसी गीत को गाते और उनके अन्य साथी उनका इस के गायन में साथ देते। लाहौर जेल की चारदीवारी में भी प्राय इसकी स्वर लहरी गूंज उठती। आखिर वह रात आन पहुंची जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु अपनी काल कोठरियों से फांसी के फंदे को चूमने हेतु यह गाते हुए निकल पड़े-
रंग दे बसंती चोला
माए! रंग रंग दे बसंती चोला।
इस गीत का अगला पद्यांश था –
इसी रंग में रंग के शिवा ने
मन का बंधन खोला।
मेरा रंग दे बसंती चोला
माए! रंग दे बसंती चोला।
गीतकार अपनी मां से अपने परिधान को बसंती रंग में रंगने के लिए आग्रह करते हुए कहता है कि ऐसे ही परिधान को पहनकर वीर शिवाजी और उनके सेनानी देश की आन-शान को बचाने के लिए निकल पड़े थे। इसे फिर बलिदान की जरूरत है। इसलिए मां तू मेरा चोला बसंती रंग में रंग दे और मुझे देश को आजाद कराने के लिए भेज दे।
इस गीत का अगला चरण वह था जिसमें इसी भाव को दृढ़ करने के लिए गीतकार ने महाराणा प्रताप सरीखे योद्धा का उदाहरण प्रस्तुत किया जिन्होंने स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए अनगिनत कठिनाइयों का सामना किया और अपने ध्येय से कभी विचलित न हुए।
मेरा रंग दे बसंती चोला
माए! रंग दे बसंती चोला।
यही रंग हल्दीघाटी में
खुलकर था खेला।।
मेरा रंग दे बसंती चोला
माए रंग दे चोला।
इस तरह की एक अन्य कविता में इसी गीतकार ने लिखा था –
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें,
सरफरोशी की अदा होती हैं यूं ही रसमें।
सच तो यह है कि भारतीय इतिहास के तीन नायक हैं- शिवाजी, महाराणा प्रताप और गुरु गोविंद सिंह जो क्रांतिकारियों के आदर्श नायक रहे हैं। अपने आदर्श नायकों की भांति नौजवान गीतकार कहता है: मैं और मेरी टोली के साथी इन्हीं बसंती वस्त्रों को पहनकर देश पर न्योछावर होने के लिए निकल पड़े हैं। मां तुम आशीर्वाद दो।
मेरा रंग दे बसंती चोला
माए! रंग दे बसंती चोला।
नव बसंत में भारत के हित
निकला वीरों का यह टोला।
मेरा रंग दे बसंती चोला।।
इस गीत के गीतकार कौन थे? बहुत से लोग तो शहीद भगत सिंह को ही इस गीत का लेखक मानते हैं। मगर यह सही नहीं है। इस ओजस्वी गीत के लेखक हैं- भारतीय क्रांतिकारियों के अग्रणी, अमर बलिदानी और काकोरी के शहीद राम प्रसाद बिस्मिल। जिस प्रकार उनकी लिखी कविता ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है’ देशभक्ति के काव्य की बेजोड़ रचना है उसी प्रकार ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ में भी वही भाव मुखरित हो रहे हैं। अंतर है तो केवल यही कि सरफरोशी की तमन्ना की भाषा उर्दू है और बसंती चोला की भाषा हिंदी। ‘बसंती चोला’ देशभक्ति काव्य की अद्वितीय रचना है।
बिस्मिल के इस गीत ने भगत सिंह सहित न जाने कितने नौजवानों को देशहित में बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। ऐसा गीत राम प्रसाद बिस्मिल जैसा क्रांतिकारी कवि और बलिदानी ही लिख सकता था और भगत सिंह जैसा वीर ही इसे लोकप्रिय बना सकता था।
डॉ. प्रतिभा गोयल
(लेखिका प्रोफेसर, पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, लुधियाना, हैं)