
अब तो यह स्पष्ट हो ही चुका है कि धर्म अलग है और पंथ अलग चीज है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपनी मोहर बहुत पहले ही लगा दी थी। उसने अपना निर्णय सुना दिया था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, एक जीवन शैली है। यह बात अलग है कि हमारे स्वयंसिद्ध ‘सेकुलर-उदारवादी’ महानुभाव अपने-आप को संसद, न्यायालय और संविधान से ऊपर समझते हैं। उनके लिए कानून और न्यायालय का निर्णय तब ही मान्य होता है जब वह उनके अहम् के अनुकूल हो वरन सब गलत।
यह स्मरणीय है कि 30 जनवरी 1948 को जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हुई थी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरसंघचालक गुरु गोवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया था और संघ पर पाबंदी लगा गयी थी। हजारों संघ स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया था। हर कोशिश के बावजूद न गुरूजी और ने ही संघ को इस जघन्य अपराध के लिए दूर-दूर से भी किसी प्रकार से सम्बंधित पाया गया और उन्हें इसलिए छोड़ दिया गया। संघ पर से प्रतिबन्ध भी उठा दिया गया। यह किसी भारतीय जन संघ या भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने नहीं, केंद्र में पंडित जवाहरलाल की तत्कालीन ‘सेकुलर’ सरकार ने किया था। पर फिर भी हमारे ‘सेकुलर-उदारवादी’ महानुभाव समय-समय पर यही कहते फिरते हैं
कि महात्मा को संघ ने व उसकी विचारधारा ने मारा था। औरों को तो छोड़ो, कांग्रेस के आज के बड़े नेता, राहुल गांधी भी अपने पड़दादा स्वर्गीय नेहरू को ही गलत मानते हैं जब वह यह बार-बार कहते फिरते हैं कि महात्मा को संघ और उसकी विचारधारा ने मारा। ऐसा कहने पर राहुल पर कुछ मुकदमें भी चल रहे हैं।
अब तो यह नहीं, ‘जय श्री राम’ और हनुमान चालीसा का पाठ भी कुछ ‘सेकुलर-उदारवादी’ संगठनों और महानुभावों को चुभने लगा है। पिछले वर्ष चुनाव से पहले जब एक दिन पश्चिमी बंगाल की ‘सेकुलर’ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी कार में गुजर रहीं थीं तो सड़क के किनारे खड़े कुछ लोगों ने ‘जय श्री राम’ का नारा लगा दिया। ‘सहिष्णु’ ममता दीदी तो इससे इतनी दुखी हो उठीं कि उन्होंने अपनी गाड़ी रुकवा दी और वहां खड़े लोगों से पूछा कि किसने बोला ‘जय श्री राम’?
और अब एक और तमाशा देखिये जो 23 अप्रैल को मुंबई में घटा। महाराष्ट्र की सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि राणा के साथ जो हुआ वह विचारणीय है कि यह ठीक है या गलत। यह तो माना जा सकता है कि इसमें थी तो राजनीति ही। उनका कहना है कि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिव सेना अपने हिंदुत्व के सिद्धांत को छोड़ चुकीं है जो उनके पिता बाल साहिब ठाकरे को सब से अधिक प्रिय था और उस पर स्थिर रहने के लिए वह कुछ भी त्याग करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। सांसद नवनीत राणा ने घोषणा की कि 23 अप्रैल को उद्धव ठाकरे के निवास के सामने हनुमान चालीसा का पाठ कर वह उन्हें इसकी याद दिलाएंगी।
उन्होंने न तो यह कहा कि वह अपने साथ कोई जनसमूह लाएंगी और न ही उन्हों ने जनता का आह्वाहन ही किया कि वह बड़ी संख्या में आए।
मातोश्री महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का सरकारी आवास नहीं है। यह तो उद्धव ठाकरे का पैतृक आवास है जिसमें वह मुख्यमंत्री बनने से पूर्व भी रहते थे और अब मुख्यमंत्री बनने के बाद भी रह रहे हैं। उन्होंने सरकारी आवास न लेने का निर्णय लिया था।
इसमें यह भी समझने की बात है कि किसी भी घर के सामने जो रास्ता या सड़क होती है वह किसी की निजी संपत्ति नहीं होती और वह सार्वजनिक होती है। वैसे भी स्थान कोई भी हो जनता को मुख्यमंत्री आवास के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन व अपना रोष प्रकट करने का पूरा अधिकार होता है। जहां एक ओर
अपने प्रदर्शन को शांतिपूर्ण रखने का उत्तरदायित्व आयोजनकर्ताओं पर होता है, उसके साथ ही प्रशासन व पुलिस का भी उत्तरदायित्व होता है कि वह सब पग उठाये कि प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे।
पर यहां तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। पुलिस ने सांसद नवनीत राणा व उनके विधायक पति रवि राणा को धारा 149 के अधीन नोटिस 22 अप्रैल को ही थमा दिया था। राणा दंपत्ति ने कहा था कि वह फिर भी जाएंगे।
पर दूसरे दिन जब उन्होंने मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पढऩे जाना था तो एक ओर तो उनके घर पुलिस का एक बड़ा दल उनके घर आ गया और उन्हें अपने कार्यक्रम के लिए अपने फ्लैट से निकलने ही नहीं दिया गया। दूसरी ओर, 600/00 शिव सैनिकों को राणा दंपत्ति के फ्लैट के सामने इकठ्ठा होने दिया गया जो उग्रतापूर्वक राणा दंपत्ति को घर से निकलकर मातोश्री जाने से रोकने कि लिये प्रतिबद्ध थे। आखिर राणा दम्पति को अपना कार्यक्रम रद्द करने का ऐलान करने पर मजबूर होना पड़ा।
सायंकाल को पुलिस ने पहले राणा दंपत्ति को साम्प्रदायिक सद्भावना बिगाडऩे के अपराध पर और बाद में राजद्रोह के आरोप लगा कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
अब हैरानी की बात तो यह है कि जब राणा दम्पति ने मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पढऩे का ‘अपराध’ किया ही नहीं तो वह इस अपराध के लिए दोषी कैसे बन गए? यह समझ नहीं आ रहा।
तर्क के लिए चलो मान लेते हैं कि उन्होंने मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ भी लिया होता, तो उससे धार्मिक सद्भावना कैसे बिगड़ जाती? ऐसा करना थोड़ा-बहुत तब हो जाना समझा जा सकता था जब वह इस पाठ को किसी मस्जिद या चर्च के सामने कर देते। पर मातोश्री न तो कोई मस्जिद है और न ही चर्च।
वैसे किसी चर्च या मस्जिद के सामने हनुमान चालीसा या कोई अन्य पाठ पढ़ देने से धार्मिक सद्भावना कैसे आहत हो जाती जब तक कि वह व्यक्ति या समूह कोई अन्य उत्तेजित नारा या अन्य कुछ गलत काम न करते?
यहां यह भी याद रखने की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व और बाद में भी प्रभात फेरी का चलन था और अब भी है। उसमें भी कई बार मस्जिद और चर्च के सामने से महात्मा गांधी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो उनको कहिये पीड़ पराई जाने रे’ और ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम’ को गाया जाता रहा है। यही नहीं, अनेक धार्मिक संस्थान व सभाएं भी प्रभात फेरी निकलती हैं व थीं जो अनेक बार अन्य पूजास्थलों के सामने से भी गुजरतीं हैं।
वस्तुत: एक छोटी सी बात का बतंगड़ बना दिया गया। एक सांसद-विधायक दम्पति को नेपथ्य से उठाकर ‘हीरो’ बनाकर रख दिया। मातोश्री के सामने जो सड़क है उस पर प्रशासन इतनी व्यवस्था कर सकता था कि वहां अधिक संख्या इकट्ठी करने से मनाही कर दी जाये ताकि कोई अप्रिय घटना न हो सके। घंटे-आधे घंटे में सब कुछ संपन्न हो जाता शांति से। यदि सांसद महोदया यह कर पाती तो यह किसकी जीत या हार होती? किसी की नहीं। लोग मुख्यमंत्री व सांसद-विधायक दोनों की ही उदारता की प्रशंसा करते। पर यह एक छोटी सी घटना एक ओर सत्ता और अहंकार और दूसरी ओर राजनीती के बीच लड़ाई बन कर रह गई।
अब तो यह सारा मामला अदालत के संज्ञान में आ गया है। माननीय अदालत अब सभी पक्षों को ध्यान में रख कर न्याय ही करेंगी। यह सब को उम्मीद है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह के अपराध के बारे में यह लिखा गया है : जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है।
इस पर अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा है। सब को मान्य भी होगा। पर हैरानी की बात तो यह है कि हमारे ‘सेकुलर-उदारवादी’ महानुभाव इस सारे मामले में वह कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। वह तो राजद्रोह के कानून को ही रद्द कर देने के पक्ष में हैं।
अम्बा चरण वशिष्ठ