
यह संयोग ही है कि जिन दिनों रामनवमी पड़ती है, उन्हीं दिनों मुस्लिम समुदाय का रोजे चल रहे होते हैं। कुछ ऐसा ही संयोग विक्रमी संवत के श्रावण के महीने का भी होता है। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में हनुमान जी की पूजा स्वरूप महावीरी झंडा निकलता है, उन्हीं दिनों मुस्लिम समुदाय का रमजान का महीना पड़ता है। इसी तरह जिस वक्त हिंदू दुर्गापूजा का त्योहार मना रहे होते हैं, उन्हीं दिनों मुसलमान समुदाय का त्योहार मोहर्रम पड़ता है। चैत शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन हनुमान जी का जन्मोत्सव होता है। संयोगवश इस वक्त भी रमजान का महीना आता है। भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की यानी एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे के तीज-त्योहारों को साथ मनाने की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन अक्सर होता यह है कि इन त्योहारों के मौके पर दोनों समुदायों के बीच झड़प और बाद में दंगे हो जाते रहे हैं। लेकिन पहले ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का ही होती थीं। लेकिन हाल के दिनों में ऐसी घटनाएं बढ़ गई हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या वजह है कि गंगा-जमुनी संस्कृति वाले देश में ऐसे मौकों पर दंगे बढ़ गए हैं?
मध्य प्रदेश का खरगोन हो या दिल्ली की जहांगीरपुरी का इलाका, जिस तरह यहां रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूस पर विशेषकर मुस्लिम समुदाय की ओर से पत्थरबाजी हुई, झारखंड के कई कस्बों में रामनवमी के जुलूसों पर हमले हुए, उससे स्पष्ट है कि ऐसा अनायास नहीं हो रहा। अनायास का मतलब यह है कि किसी स्थानीय रंजिश या विवादवश जुलूस के दौरान झगड़ा बढ़ा और देखते ही देखते वह दो समुदायों का विवाद बनकर दंगा बन गया। हाल के दिनों में जिस तरह कट्टरता, विशेषकर मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों में बढ़ी है, माना जा रहा है कि रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूसों पर हुए हमले उसी कट्टरता की देन है। ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल एंड एकेडमिशियन की पांच सदस्यीय टीम ने दिल्ली के जहांगीरपुरी की फसाद की जो तथ्य खोजी रिपोर्ट जारी की है, उसके नतीजे साफ हैं। संक्षेप में इस समूह को जिया कहा जाता है। जिया का मानना है कि मस्जिदों के साथ चलने वाले मदरसों में बच्चों को पढ़ाई के साथ ही यह बताया जा रहा है कि गैर मुस्लिम काफिर हैं और उन्हें सबक सिखाया जाना चाहिए। आम मान्यता है कि महिलाएं चाहे किसी भी वर्ग की हों, वे अपनी प्राकृतिक बनावट की वजह से पुरूषों की तुलना में सहज और संवेदनशील होती हैं। लेकिन चाहे खरगोन का मामला हो या फिर जहांगीरपुरी का फसाद, वहां महिलाएं भी जुलुस पर पत्थर बरसातीं नजर आईं। खरगोन की एक मुस्लिम युवती के पत्थर बरसाते वीडियो तो अरसे तक सोशल मीडिया की सुर्खियां बने रहे। जिया की तथ्यात्मक जांच रिपोर्ट में भी सामने आया है कि जहांगीरपुरी में भी मुस्लिम समुदाय की महिलाएं पत्थर बरसाने में आगे रहीं।
जिया की तथ्य जांच रिपोर्ट के अनुसार नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद आदि इलाकों की सड़कों पर जो धरने और प्रदर्शन हुए, उसमें रोजाना जहांगीरपुरी से तीन-चार बसों में भर-भरकर मुस्लिम महिलाओं का समूह जाता रहा है। जिया ने अपनी खोजी रिपोर्ट में पाया है कि मुस्लिम महिलाओं को जाफराबाद ले जाना दरअसल उनकी कट्टरता की दिशा में प्रशिक्षित किए जाने का ही हिस्सा था। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के पास भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो लंबा धरना चला, उसमें भी दिल्ली के तमाम इलाकों की मुस्लिम महिलाओं को ले जाया गया। वहां जो भाषणबाजी हुई, उसका लब्बोलुआब यह तथ्यहीन बात मुस्लिम समुदाय के लोगों के दिमाग में बैठाना था कि बहुसंख्यक यानी हिंदू समुदाय उसका दुश्मन है। जाहिर है कि इस तरह की तथ्यहीन बातें महिलाओं और बच्चों के दिमाग में भर दी गईं।
चाहे जहांगीरपुरी का दंगा हो या फिर कर्नाटक में हिजाब पर उठा विवाद हो, हर जगह के मामले में पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई का हाथ सामने आ रहा है। यहां यह बताना जरूरी है कि पीएफआई पूर्ववर्ती संगठन सिमी का ही नया रूप है। जब सिमी ने इस्लाम के नाम पर आतंकी गतिविधियां फैलानी शुरू कीं, तो उस पर प्रतिबंध लगने शुरू हुए। उसके बाद उसने नाम बदल लिया। पीएफआई आजकल हर ऐसे आंदोलन के पीछे खड़ा हो रहा है। मुस्लिम समुदाय के लोगों को भड़काने में उसकी बड़ी भूमिका बार-बार सामने आ रही है। मदरसा हो या फिर महिलाओं के ट्रेनिंग सेंटर या फिर कोई और जगह, हर जगह पीएफआई और दूसरे संगठन इस्लामिक कट्टरवाद को फैला रहे हैं। इसकी वजह से अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के मन में लगातार जहर भरता जा रहा है। यही वजह है कि जब रामनवमी, हनुमान जयंती या फिर महावीरी झंडा का जुलूस निकलता है, इसी जहर की वजह से शांति विरोधी तत्व इन तत्वों को उकसाते हैं। और फिर दंगे भड़कना आसान हो जाता है।
यह जहर नहीं तो और क्या है कि जहांगीरपुरी के दंगों के बाद वहां की मुस्लिम महिलाएं यह कहती नजर आईं कि क्या मस्जिद के सामने जुलूस के लोग चुप नहीं रह सकते। महिलाएं यहां तक कहतीं नजर आईं कि हमारे रोजे के वक्त वे लोग उकसाते हैं तो हम कैसे चुप रह सकते हैं। यही स्थिति मस्जिदों में चलने वाले मदरसे में पढऩे वाले बच्चों की प्रतिक्रिया भी कुछ वैसी ही है।
केंद्र की मोदी सरकार अब तक की पहली सरकार है, जिसने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए काफी धन खर्च किया है। अल्पसंख्यक मंत्रालय का बजट 2013-14 में तीन हजार एक सौ 30 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2022-23 में पांच हजार बीस करोड़ रुपये कर दिया गया है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने लोकसभा के बीते सत्र में एक सवाल के जवाब में बताया है कि अल्पसंख्यक समुदायों की शिक्षा के लिए 2013-14 में एक हजार आठ सौ 88 करोड़ रुपये का बजट आवंटन 2022-23 में बढ़ाकर दो हजार पांच सौ 15 करोड़ रुपये किया गया है। जाहिर है कि यह सरकार अल्पसंख्यकों के विरोध में नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम समुदाय में यह बात जानबूझकर फैलाई जा रही है कि मोदी और भारतीय जनता पार्टी की सरकार मुसलमानों की विरोधी है। नागरिकता संशोधन कानून के बारे में भी योजनाबद्ध तरीके से फैलाया गया कि यह मुस्लिम विरोधी है। मुस्लिम लोगों को यह सरकार देश से निकालना चाहती है।
यह दिमागी जहर के प्रभाव में ज्यादातर मुस्लिम समुदाय का कमजोर वर्ग है। उसे देशविरोधी तत्व अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। देश विरोधी तत्वों का एक बड़े वर्ग को मोदी सरकार को हिलाने और अस्थिर करने के लिए लगाता परोक्ष मदद मिल रही है, विशेषकर विदेशों से मोटी रकम मिल रही है। यही वजह है कि चाहे रामनवमी का जुलूस हो या हिंदू समुदाय का कोई और महोत्सव, मुस्लिम समुदाय का जहर भरा तत्व उबल पड़ता है। दरअसल वह वर्ग बारूद के ढेर पर बैठा है। दुष्प्रचार के चक्कर में वह गुमराह हो जाता है और फिर फसाद होने लगते हैं।
इसलिए जरूरी है कि दिमागों में बिना वजह का जहर भरते लोगों की पहचान हो, उनकी फंडिंग को नियंत्रित किया जाए और उन्हें दंडित किया जाए। समाज के ऐसे सफेदपोश लोगों का खुलासा करना भी जरूरी है। तभी जाकर सचमुच में भाईचारा की संस्कृति विकसित हो पाएगी। मुस्लिम समुदाय के कमजोर और कम पढ़े-लिखे वर्गों में जागरूकता लानी होगी, ताकि वे जान सकें कि उनके दिमागों में फिजूल का जहर भरा जा रहा है।
उमेश चतुर्वेदी