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वन की पगडंडी से राजपथ पहुंचने वाली महामहिम से वनवासियों की आशाएं

वन की पगडंडी से राजपथ पहुंचने वाली महामहिम से वनवासियों की आशाएं

आज एक वनवासी क्षेत्र की बेटी बहन और मां द्रौपदी मुर्मू जब देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने जा रही हैं तब मुझे झाबुआ में कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम निवाली की संचालक कांता त्यागी जिन्हें हम दीदी कहते थे, की बहुत याद आ रही है। वे बहुत ही खुश थीं। कारण था उनके यहां से एक वनवासी कन्या सहायक जिलाधिकारी बनी थी।

उस दिन भोजन के साथ खीर परोसी गई थी। वनवासी समाज की प्रगति यात्रा का वह पड़ाव आज अपने सर्वोच्च  लक्ष्य को प्राप्त कर रहा है।

आज के परिवेश मे यह एक साधारण बात है किन्तु वनवासी कन्या आश्रम की स्थापना से पूर्व के समय में इन बच्चियों का भविष्य कोठों के  माफिया के द्वारा बलपूर्वक अपहरण की आशंका से घिरा रहा था। इसी कारण को दूर करने के लिए ही इस प्रकार के आश्रम स्थापित किये  गए थे।

शिक्षा का महत्व समझाने के लिए जब पहली बार इन्हें मुंबई ले जाया गया तो इन बच्चियों ने पहली बार सडक़ देखने पर चप्पल हाथ मे  ले ली थीं कि कहीं सडक़  गंदी न हो जाए, जिन्होंने स्कूल कभी देखा न हो, वहां यह वास्तव में बहुत बड़ी बात थी। झाबुआ का निवाली क्षेत्र भाग्यशाली था कि वहां एक समर्पित कार्यकर्ता पहुंच गई, सारे वनवासी यह सुख न पा सके। अनेक सहायता देने के नाम पर धर्म परिवर्तन करने वाले संगठन अवश्य लगे हुए  थे। जो हमारी सरलता और सहजता का लाभ  लेकर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। विरोध को क्रूरता, जंगलीपन अथवा पिछड़ापन कहा जाता था। शहरी मीडिया भी खोज, रिसर्च किये बिना इसी को कथ्य बनाता था। नई रिसर्च में यही प्रचारित कथ्य, नया सत्य बन जाता था।

हमारे वनवासी भाई जीवन शैली प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य कर रहते हैं इसलिए स्वभाविक रूप से न्याय और सहयोग ही इनकी विशेषता है। इसी कारण अंग्रेजों के खिलाफ पहला जन विद्रोह 1855 में इन्हीं संथाल वनवासियों ने किया था। बंदूक तोप और हाथियों से सज्जित सेना के विरुद्ध यह जन समूह तीर और भालों के साथ लड़ रहा था। तत्कालीन सेना अधिकारी जार्विस मेली  के शब्दों में, ‘यह कोई युद्ध नहीं था। वे लोग आत्मसमर्पण शब्द जानते ही नहीं थे जैसे ही ढोल बजना शुरू होता, वे एक पंक्ति मे खड़े होकर तीर चलाना शुरू कर देते, हमारी गोलियों से लोग मरते जाते किन्तु जीवित लोग कभी पीछे नहीं हटते थे। यदि ढोल बजना बंद हो जाता तो वे चौथाई किलोमीटर पीछे जाते और वहां से तीर चलाना शुरू कर देते। यह एक तरफा युद्ध था और हम बहुत दुखी थे किन्तु हमारे पास कोई चारा नहीं था । पूरी सेना मे एक सैनिक नहीं था जिसे अपने आप पर शर्म नहीं आ रही थी’।

निरंतर संघर्ष और देशप्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले उसी वनवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू जब देश के सर्वोच्च पद को शोभित करने जा रही हैं तो यह निश्चय ही हर्ष का विषय तो है ही साथ ही एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है। उनके बड़बोले प्रतिद्वंदी उनकी क्षमता पर पहले ही प्रश्न खड़े कर चुके हैं। यह सामान्य बात है क्योंकि जब आप उम्मीद से आगे बढ़ जाते हैं तो आलोचना आपका पहला पुरुस्कार होता है!

सक्रिय राजनीति छोड़ वनवासी क्षेत्रों में कार्य करने वाले नानाजी देशमुख ने एक बार कहा था, ‘राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं। राजकुमार राम से पुरुषोत्तम राम हो जाने की यात्रा वन में ही पूर्ण हुई थी। व्यक्ति और संस्था की यह नीति राष्ट्र की नीति बन जाए वह समय अब आ गया है।

आजादी के बाद का हमारा विकास शहर उन्मुख हो गया था। बापू का राम राज्य जिसका मार्ग पंचायती राज से गुजरता था, उसे भी कानून का रूप मिलने मे चालीस साल से अधिक का समय लग गया था। जब ग्राम विकास की गति यह थी तो वनवासी विकास की बात भी बेमानी थी। इसका लाभ लेकर देश की विरोधी शक्तियों ने स्थानीय शोषण से मुक्ति के नाम पर एक देश विरोधी माओवादी आतंक खड़ा कर लिया। भोले-भाले वनवासियों को इतना समझाना भर काफी था कि विकास आएगा तो तुम्हारी जमीन चली जाएगी, तुम्हारी संस्कृति मिट जाएगी। जिसने सत्य समझ कर  विकास की बात की उसे रास्ते से हटा दिया गया। जो थोड़ी बहुत विकास की संभावना थी वह भी सहम-सहम कर सांस ले रही थी।

इस काल में भी राष्ट्रवादी शक्तियां इस क्षेत्र के विकास के लिए जी-जान से प्रयासरत थीं। नानाजी देशमुख ने भी इसे एक मिशन की तरह जिया। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे मंदाकिनी के तट पर बस गये और अपने प्रयासों से चित्रकूट की दशा बदलने का फैसला किया। चूंकि अपने वनवास-काल में राम  ने वनवासी बंधुओं  के उत्थान का कार्य यहीं रहकर किया था, अत: इसी प्रेरणा को हृदय में लेकर नानाजी ने चित्रकूट को ही अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया। उन्होंने अपना  कार्य समाज के सबसे गरीब असहाय व्यक्ति की सेवा से शुरू किया। ‘हर हाथ को काम और हर खेत को पानी।’ का मंत्र लेकर जो काम शुरू हुआ था, आज वह पूरे वनवासी क्षेत्र के विकास का भी मूल मंत्र है।

आतंक के साये में विकास की यात्रा कठिन हो जाती है। विदेशी धन और हथियारों के बल पर देश के मध्य, मध्यपूर्व और मध्य दक्षिण में माओवादी अशान्ति इतनी बढ़ गई थी कि पूर्व प्रधानमंत्री ने इसे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा स्वीकार किया था। वर्तमान काल मे एक विस्तृत संयुक्त योजना के कारण पिछले पांच साल मे अनेक जिले इस आतंक से मुक्त हुए हैं सडक़ स्कूल अस्पताल और रेल अब इस क्षेत्र मे पहुंच रही है। इन सबके बीच सुखद बात यह है कि द्रौपदी मुर्मू खुद ही वनवासी क्षेत्र की बेटी हैं। वे वनवासी बंधुओं के जीवन में आशा रूपी स्वप्न दे सकती हैं। सुरक्षा बलों ने जो सफलता हासिल की है उसे स्थायी बनाने के लिए जिस रोल मॉडल की आवश्यकता है वह आज द्रौपदी मुर्मू के रूप में उपलब्ध हुआ है।

वन की पगडंडी पर चलते हुए वे आज  राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गई है

अब यहां यह प्रश्न उठता है कि राष्ट्रपति जो राष्ट्र का सर्वोच्च संवैधानिक प्रतिनिधि है जिसे मंत्री परिषद की सलाह के अंदर ही कार्य करना है वह इतनी बड़ी चुनौती कैसे निभा सकता है? संविधान सभा की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था, ‘राष्ट्रपति पद वह युक्ति है जिससे राष्ट्र के निर्णय सूचित किये  जाते हैं’ आज जब राष्ट्र विकास की गाड़ी  ग्राम और वन की ओर बढ़ रही है तब द्रौपदी मुर्मू भारत के वनवासियों को यह संदेश सहजता से दे सकती हैं कि राष्ट्र के विकास में उनके सक्रिय सहयोग की घड़ी आ पहुंची है। करोड़ों भारतीयों ने एक वनवासी नारी को शीर्ष पद पर ला  कर इसकी घोषणा बड़ी धूमधाम से की है।

आज हम द्वितीय राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्ण को शिक्षक और डॉक्टर ए. पी. जे. कलाम को युवा भारतीयों से जुडने के लिए जानते हैं, इस कड़ी मे अब राष्ट्रपति और वनवासी समाज का मिलन माओवादी हिंसा से घायल समाज को मरहम लगा सकता है।

आतंक के साये में दशकों जीने वाले उत्तरपूर्व ने प्रधानमंत्री की ‘look east’ अभियान के तहत हुए विकास कार्यों को देख आतंक छोड़ मुख्य धारा को स्वीकार किया है। आतंक के बदल छंटते ही वहां भी पर्यटन में जबरदस्त प्रगति हुई है। 2019 में जब मैंने वहां के अधिकांश होटेल्स में ‘नो बीफ नो पोर्क ‘के बोर्ड देखे तो चकित होना स्वाभाविक था जब मैंने इस का कारण पूछा तो जवाब मिला, ‘जब दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता के लोग हमारा प्रदेश देखने या सकते हैं तो हम उनका भोजन प्रदान न करें यह हमारी संस्कृति नहीं है’ यह सुन कर मेरे सारे संदेह दूर हुए और मन के भय को भूल कर मैं ग्रामीण इलाकों में भी घूम पाया। सबसे बड़ा आश्चर्य था कि स्थानीय लोग भी पहली बार ही घूम रहे थे। इससे पूर्व की उत्तर पूर्व यात्राओं के समय मैं कभी मुख्य बाजार से आगे नहीं गया था, और स्थानीय निवासियों का  कहना था ‘गोली नाम पूछ कर नहीं लगती है इसलिए घर में रहना ही एक मात्र विकल्प है’ तब आधे दिन बाजार खुलते ही नहीं थे और जब खुलते थे तो बहुत कम समय के लिए। अशान्ति गई तो सब कुछ सुखद हो गया। हमारी संस्कृति शांति को इतना महत्व देती थी की हर पूजन का अंत ॐ शांति शांति शांति से ही होता था।

शांति उत्तर पूर्व के लिए बेहतर जीवन ही नहीं लाई है अपितु भारत और इसके  पड़ोसी देशों के लिए नई संभावनाएं लाई है। रेल नेटवर्क, हवाई अड्डे, नए बांध, उद्योग की जीवन रेखा बन रहे हैं। भारत से म्यामार, थाईलेंड से लेकर मलेशिया तक सडक़ मार्ग से व्यापार की संभावनाएं खुली हैं। उत्तर पूर्व भारत के लिए बांग्लादेश होकर आपूर्ति लागत और  समय दोनों बचाती है। आसियान को भी अब भारत में चीन का संभावित विकल्प दिखने लगा है। इन देशों से भारत के संबंध सुधारने का लाभ इन सीमाओं से आने वाले अवैध हथियार  अथवा आतंकी कैंप के खात्मे के रूप मे भी हुआ है। विदेशी भूमि पर भारतीय सेना अपने दुश्मनों पर सर्जिकल अटैक कर पाई। देश की आंतरिक शांति सबसे बड़ी उपलब्धि होती है।

माओवादी हथियार छोड़ेगें तो ‘उत्तर पूर्व’ सी चहल-पहल अब ओडिसा, छत्तीसगढ़ तेलंगाना झारखंड बिहार आदि के वनवासी क्षेत्र में भी महकेगी। इस क्षेत्र का प्राकृतिक सौंदर्य अभी अछूता है, चित्रकोट जल प्रपात, घने जंगल और नदियां लिए यह क्षेत्र भी अद्भुत संभावनाएं संजोये बैठा है, उस पर यहां उपलब्ध प्रचुर खनिज संपदा जहां इस क्षेत्र की काया कल्प कर सकती है वहीं वह भारत को विकास की लंबी छलांग दे सकती है। लाखों रोजगार पैदा होंगे, जो लोग पांच ट्रिलियन की ईकानमी को स्वप्न समझते हैं उन्हें कल्पना भी नहीं है कि माओवादी हिंसा से मुक्त क्षेत्र अकेले ही इस लक्ष्य का अधिकांश हिस्सा ले सकते हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी कब से सोना उगलने को आतुर है। आवश्यकता है संघर्ष में व्यर्थ जा रही ऊर्जा को समन्वय और सृजन मे लाने की।

हमारे राष्ट्रपति के दिल्ली के बाहर भी आवास हैं किन्तु अंगे्रजों की सुविधा के लिए बने, हैदराबाद का राष्ट्रपति निलयम अथवा शिमला की रिट्रीट शायद ही काम आती हैं। विकास उन्मुख भारत के राष्ट्रपति को अब वन कुटीर पर भी विचार करना चाहिए। यदि राष्ट्रपति वर्ष में दो बार इस वन कुटीर में निवास करें और वहां वनोपज, कला, दस्तकारी की प्रदर्शनियां हों, वनोपज से चलने वाले उद्योगों का प्रशिक्षण हो, इस क्षेत्र के श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्मानित किये जाएं तो यह क्षेत्र न केवल विश्व में अपनी गरिमा प्रस्तुत करेगा, पर्यटन विकसित होगा उद्योग विकसित होंगे। लेखक यह कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठता है कि जिन क्षेत्रों ने आज भी सडक़, रेल, स्कूल, अस्पताल आदि भी नहीं देखे वे अपने देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि को हर वर्ष अपने बीच देखेंगे तो आजादी के बाद का उनका वनवास वैसे ही खत्म होगा जैसे राम के अयोध्या लौटने पर खड़ाऊं को प्रतीक मान वन में वनवासी जीवन बिता रहे भरत का हुआ था।

राष्ट्र की सफलता उसके नागरिकों के स्वप्न तय करते हैं , हम पहले ही लिख चुके हैं कि द्रौपदी मुर्मू हमारे वनवासी बहन भाइयों के उन सपनों की नींव डाल सकती हैं। उनका जन्म दिवस वनवासी दिवस बन सकता है।

प्रधानमंत्री द्वारा ‘मन की बात’ में सतना जिले के श्री राम लोटन के जड़ी-बूटी संग्रह की चर्चा मात्र से ही अनेक कंपनी अब इन उपेक्षित जड़ी-बूटियों को पाने को आतुर हैं। यह कोई कल्पना नहीं है अपितु पुणे के औषधि निर्माण क्षेत्र की प्रारम्भिक चर्चा है। वनवासी क्षेत्रों में राष्ट्रपति की प्रेरणा से यदि इस प्रकार के प्रयासों को प्रेरित करने की एक स्थायी व्यवस्था हो जाए तो देश कहां से कहां पहुंच सकता है और वन से शहर की ओर विस्थापन की गति मंद हो सकती है। द्रौपदी मुर्मू संजीवनी बन सकती हैं इस खो रही विरासत को नवजीवन देने  के लिए। कितना अच्छा हो प्रधानमंत्री मन की बात करें और राष्ट्रपति करें ‘वन की बात’। ‘सबका साथ सबका विकास’ प्रधान सेवक और सर्वोच्च सेनापति के साथ ।

दिनकर ने कुछ दशक पहले लिखा था,

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सडक़ों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।’

ए. पी. जे. कलाम हो, कोविन्द हो या द्रौपदी मुर्मू, ये सभी नाम भारत के आम आदमी है सभी का बचपन दरिद्रता का सामना करने मे बीता है। यह धरा से उठ कर गगन छु लेने की गाथा है। भारत के वंचितों के उत्थान  की इस वेला में आकांक्षाएं हैं,

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’

ऌऌपांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने जा रहा देश अब विश्वास रखता है कि जब द्रौपदी मुर्मू का कार्यकाल समाप्त हो तो भारत में उनका वही स्थान हो जो राम के जीवन में गुहराज का है। राम के मर्यादा पुरुषोत्तम बनने की यात्रा मे वन उनका घर था और वनवासी केवट, शबरी, जटायु, अंगद, सुग्रीव, हनुमान और जामवंत उनके साथी थे। जंगल के कानून से जीने वालों ने तब भी जीना हराम किया था और आज भी वही स्थिति लौट आई है, कुछ लोग इक्कीसवीं सदी को छठी शताब्दी के कानूनों से जीना चाहते हैं वह भी 21वीं शताब्दी के आधुनिक हथियारों के साथ। आज जब भारत घर और घर के बाहर के रावणों से जूझ रहा है तब देश के भले लोगों का संगठित  सहयोग अत्यावश्यक है। द्रौपदी मुर्मू राजपथ को वन की पगडंडी से जोडऩे वाली सेतु बन पूरे भारत को सहयोग सौहार्द का स्वर्ग बनाएं  यही जनमानस की आशा है।

 

राकेश कुमार

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