
लोकतंत्र को मजबूत बनाये रखने के लिये संवैधानिक पद संभालने वालों का सम्मान जरूरी है और इस लक्ष्मण रेखा की अनदेखी करने वाले के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई भी होनी चाहिये। हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को चलाने के लिये पदों के सृजन के साथ अनेक नियम भी बनाये और ऐसा करते समय उन्होंने इस तथ्य को ध्यान में रखा होगा कि अगर इन तीनों संवैधानिक व्यवस्था के संचालन में मान-सम्मान का ख्याल नही रखा गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है। लोकतंत्र में हर राजनीतिक दल को जनमत के आधार पर कार्य करने की आजादी है लेकिन उसके लिये उसे पहले चुनाव की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। निर्वाचित सरकार को संविधान और कानून सम्मत तरीके से कार्य करना पड़ता है और उसकी जबाबदेही निश्चित होती है।
पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल खत्म होते ही पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीपी) की नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने उनके बारे में जो टिप्पणी की उसे लेकर एक बार फिर यह विचार करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि राष्ट्रपति पद को विवाद में घसीटने की कोशिश की कैसे समीक्षा की जाय और उसे कैसे रोका जाय। एक तरफ राष्ट्रपति पद के लिये निर्वाचित देश की प्रथम आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को रामनाथ कोविंद पदभार सौंप रहे थे, ठीक उसी समय महबूबा मुफ्ती ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुये उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने पद रहते हुये भाजपा के एजेंडे को लागू करने का काम किया।
महबूबा मुफ्ती जम्मू-कश्मीर के एक राजनीतिक परिवार की उत्तराधिकारी हैं और वह भली-भांति जानती हैं कि राष्ट्रपति कैसे अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति लोकसभा चुनाव में निर्वाचित दल के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करता है और एक दौर ऐसा भी आया जब किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत नही मिला तो उन्होंने समर्थन देने वाले दलों से समर्थन पत्र लेने के बाद संविधान विशेषज्ञ और कानूनविदों से सलाह किया और फिर निर्वाचित दल या उसके गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया। ऐसा पहला मौका 1989 में आया जब लोकसभा चुनाव में किसी एक दल को बहुमत नही मिला लेकिन समर्थन देने वाले दलों की संख्या पर्याप्त थी और राष्ट्रीय मोर्चा के नेता वी. वी. सिंह की सरकार बन गई। इससे पहले जितने भी लोकसभा चुनाव हुये उसमें एक ही राजनीतिक दल को बहुमत मिला, चाहे वह कांग्रेस हो या जनता पार्टी। इसके बाद सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया गया और राष्ट्रपति ने संविधान में प्रदत्त अधिकारों के अनुरूप सबसे बड़े राजनीतिक दल के नाते 1991 में पी. वी. नरसिंह राव और फिर 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री नियुक्ति किया। फिर केंद्र में गठबंधन सरकार का दौर चला और राष्ट्रीय मोर्चा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और फिर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकारें बनीं। दरअसल 1996 में सबसे बड़े राजनीतिक दल का नेता होने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार आवश्यक समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण तेरह दिनों में गिर गई। इस प्रयोग के बाद संविधान विशेषज्ञों और कानूनविदों की राय बदली और आगे चलकर राष्ट्रपति ने यह सुनिश्चित किया कि सरकार बनाने का दावा करने वाले इन तीनों गठबंधन के नेता को अपेक्षित समर्थन प्राप्त है कि नहीं।
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश का चुनावी गणित बदला और एक बार फिर एक ही राजनीतिक दल अर्थात भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत हासिल करने में कामयाब रही। इस बार नरेंद्र मोदी को राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नियुक्त किया और वह 2019 में दोबारा स्पष्ट बहुमत से जीतकर प्रधानमंत्री बने। जहां तक राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों का प्रश्न है तो वह बहुमत के आधार पर सरकार बनने के बाद मंत्रिपरिषद के फैसलों और संसद में पारित विधेयकों को कानूनी जामा पहनाने के लिये अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पर उनका कार्यकाल खत्म होते ही आरोप लगाया कि उन्होंने भाजपा के हिंदू एजेंडे को लागू करने का काम किया। महबूबा ने ऐसा करके अखबारों में सुर्खियां बटोरी लेकिन वास्तविकता तो यही है कि केंद्र में भाजपा की सरकार है और वह संविधान सम्मत तरीके से अपने निर्णयों को लागू कराती है तो उसमे गलत क्या है। फिर राष्ट्रपति का नाम घसीटने की क्या जरूरत पड़ गई।
महबूबा मुफ्ती खुद मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और उनके पिता एवं पीडीपी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में गृहमंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्य्मंत्री रहे। महबूबा अच्छी तरह जानती हैं कि 1989 में जब उनकी बहन रूबैया सईद का श्रीनगर में दिन दहाड़े चार अपहर्ताओं ने अपहरण किया था तो उन अपहर्ताओं का सरगना अलगाववादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का नेता यासिन मलिक था। रूबैया को छुड़ाने के लिये फारूक अब्दुल्ला सरकार के रूख के विपरीत पांच दुर्दांत आतंकवादियों को केंद्र सरकार ने रिहा किया और उसके बाद कश्मीर घाटी में आतंक का भयावह तांडव शुरू हो गया था। हफ्ते भर के भीतर मुफ्ती मोहम्मद सईद की सलाह पर वी. पी. सिंह सरकार ने जगमोहन को फिर से जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया जिनके रिश्ते फारूक अब्दुल्ला से कभी अच्छे नही रहे। नतीजा यह हुआ कि जगमोहन स्थिति संभल नही पाये और हजारों कश्मीरी पंडितों का कश्मीर घाटी से पलायन हुआ और वे आज तक अपने घरों को लौट नही पाये।
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी सरकार बनाने के लिये भाजपा के साथ गठबंधन कर चुकी है और महबूबा पर पाला बदलने की राजनीति करने और आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी रखने के आरोप लगते रहे हैं। यही नही जब यासीन मलिक की गिरफ्तारी हुई तो उन्होंने अपनी बहन के इस अपहर्ता के लिये कहा कि यासीन मलिक को कैद कर सकते हो लेकिन उसके विचारों को नहीं। फिर जब उनकी बहन रूबैया ने इन अपहर्ताओं की पहचान की तो उनका चौंकाने वाला बयान आया कि सिर्फ यासीन मलिक की शिनाख्त की गई है। दूसरी ओर अधिकारियों के हवाले खबरे आईं कि रूबैया ने चारो आतंकवादी को पहचान लिया।
भाजपा शुरू से जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 लगाये जाने को देशहित के खिलाफ एवं ऐतिहासिक भूल मानती रही है और जब नरेंद्र मोदी की सरकार दोबारा बनी तो उसने संविधान सम्मरत तरीके अनुच्छेद 370 को हटाया। बकायदा संसद में विधेयक पारित हुआ और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उसे कानूनी मान्यता प्रदान की। मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर में हालात को सामान्य बनाने में जुटी है और उसे काफी हद तक सफलता मिली है। वहां स्थानीय निकाय के चुनाव कराये जा चुके हैं और अब विधानसभा चुनाव कराने की तैयारी चल रही है। महबूबा भाजपा का दामन थाम चुकी हैं और सत्ता सुख भी भोग चुकी हैं। सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिये वह देश की भावनाओं के खिलाफ बयानबाजी करने से नहीं चूकती हैं। वह जानती है कि राष्ट्रपति कैसे संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हैं फिर भी उन्होंने बेवजह रामनाथ कोविंद के खिलाफ टिप्पणी की।
दरअसल राष्ट्रपति का पद देश सर्वोच्च संवैधानिक पद है और उसपर आसीन व्यक्ति के खिलाफ पहले या बाद में ऐसी टिप्पणी नही की जानी चाहिये जिससे पद की गरिमा को ठेस पहुंचे। अभी हाल में लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की जिसको लेकर लोकसभा की कार्यवाही बाधित हुई। अंतत: अधीर रंजन चौधरी की चौतरफा फजीहत हुई और उनको माफी मांगनी पड़ी।
अशोक उपाध्याय
(लेखक, पूर्व संपादक, यूनीवार्ता हैं)