
एक जनजातीय महिला का महामहिमा मंडित राष्ट्रपति के पद पर पहुंचना भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य का एक चमत्कार है। जिस प्रकार श्रीमती द्रौपदी का राजनीतिक और संवैधानिक सर्वोच्च पद पर पहुंचना एक अद्वितीय उपलब्धि है, रामायण की एक भील जातीय वृद्धाशबरी ने ऐसी ही उपलब्धि आध्यात्मिक क्षेत्र में प्राप्त की थी जब उसने श्री राम के दर्शन पाकर परमगति को प्राप्त किया था।
भारत की कुल जनसंख्या में जनजातीय आबादी बहुत नगण्य है। मात्र 9 प्रतिशत। परंतु यह देश के विशाल भूभाग में फैली हुई हैं। इनकी संस्कृति और इन पर भारतीयता की छाप को भारतीय जनजीवन पर स्पष्ट देखा जा सकता है। यह जनजातियां विशेषता वनों और पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में बसी हुई है। यह जनजातियां गिनती में तो लगभग 300 से भी अधिक हैं मगर इनमें भील, गोंड, संथाल, मुंडा, मीणा, नैकदा, ओराओ, नागा और खोड ही प्रमुख कही जा सकती हैं। राष्ट्रपति मुर्मू संथाल जनजाति से हैं।
यह जनजातियां भारत की मूल वासी हैं। भारत के आदिकाल से ही यह यहां बसी हुई हैं। इसलिए इन्हें देश के आदिवासी भी कहा जा सकता है। यह जनजातियां प्रारंभ से ही वनवासी हैं। यानी यह वनों में ही अपना ठिकाना बनाए हुए हैं। वन ही इनका स्थाई बसेरा है। इन्हें अपनी रिहाइशगाहों से ही जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध होती रहती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सडक़, संचार, बिजली तथा अन्य सुख-सुविधाओं से वंचित यह अपनी संस्कृति एवं परंपराओं को सुरक्षित रखते आए हैं। जीवन निर्वाह और सुरक्षा हेतु इन्हें किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने पुरातन कालीन हथियारों तथा तीर कमान नेज़ा, भाला, कुल्हाड़ी इत्यादि का ही अपनी सुरक्षा के लिए प्रयोग करते आए हैं। यह लोग अत्यंत स्वतंत्रता प्रिय हैं। अपने जीवन में इन्हे किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप सहनीय नहीं है। अपनी पहचान को कायम रखने के लिए अपने हाथों में हथियारों को थाम कर मैदान में उतर पड़ते हैं। वन और अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए इनकी गहरी आस्था है।
महाभारत और रामायण काल में भी इन जनजातियों के विद्यमान होने के यथेष्ठ प्रमाण मिल जाते हैं। महाभारत की हिडंबा जाती भी एक जनजातीय ही थी। जिसकी राजकुमारी हिडिंबा ने पांडव पुत्र भीम से विवाह किया था। इस जाति के पुत्र घटोत्कच ने महाभारत की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
रामायण काल तो अनेक जनजातियों, पिछड़ों और जीव-जंतुओं के वर्णन से भरा पड़ा है। इन निर्बलों के बल पर ही श्री राम रावण सरीखे योद्धा की सबल सेना को परास्त करने में कामयाब हुए। धरती लंकापति रावण के पाप से भी मुक्ति प्राप्त कर गई। किसी राजा महाराजा ने तो श्रीराम की इसमें कोई सहायता नहीं की थी।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर रामायण की भीलनीवृद्धा की याद स्वत: ही आ जाती है। भील का द्रविड़ भाषाओं में अर्थ है कमान। यही संज्ञा भील जाति से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति को भी दे दी गई। धीरे-धीरे तीर कमान सभी जनजातियों की मूल पहचान बन गया।
लोक मान्यता के अनुसार शबरी बचपन से ही शाश्वत जीवन व्यतीत करने वाली कन्या थी। वह सात्विक भोजन करती। कंदमूल खाकर ही संतुष्ट थी। भीलों के पुश्तैनी शिकारी पेशे को वह पसंद नहीं करती थी। उसे तो साधु संतों की संगत करना ही पसंद था। जब वह किशोरावस्था में पहुंची तो मां-बाप ने उसकी मंगनी ऐसे नवयुवक से कर दी जिसे इलाके में प्रसिद्ध शिकारी के रूप में जाना जाता था। एक दिन, किवदंति के अनुसार, शबरी उसके साथ वन में घूम रही थी। यकायक उसके मंगेतर ने हिरण को देखा और उस पर तीर चला दिया। हिरनी धरती पर धड़ाम से गिर पड़ी और वहीं तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिए। इस दृश्य को देखकर शबरीविहवल हो गई। वह घर पहुंच कर भी दुखी रही। कुछ खा पी न सकी। रात को एक पल के लिए भी आंख न लगी। उसी समय उसने गृह त्याग का मन बना लिया। वह घर से निकल ली। चलते-चलते बहुत दूर निकल गई। वह पंपासर पहुंच गई। वहां उसने ऋषियों के आश्रम देखे। वहीं रुक गई। वह हर रोज ऋषियों के आने जाने वाले मार्ग को साफ करने लगी. झाडू पोछा करती। रास्ते के कांटों को हाथों से चुन चुन कर दूर करती। मतंग ऋषि का आश्रम भी वहीं था। ऋषि ने एक दिन उसे मार्ग को बुहारते हुए देखा। प्रसन्न होकर उसके लिए अलग से एक कुटिया का प्रबंध करवा दिया। शबरी की भक्ति भावना को देखकर ऋषि ने उसे विश्वास दिलाया कि प्रभु श्री राम स्वयं तुम्हारी कुटिया में पधार कर तुम्हें दर्शन देंगे। बस कुछ समय लगेगा। इंतजार करो। वह प्रभु आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। वह प्रतिदिन कुटिया को वह झाड़ती, साफ करती, लीपती पोंछती। उसे भी विश्वास था कि प्रभु आएंगे एक दिन। दिन महीने साल गुजरते रहे। शबरी बूढ़ी हो गई। उसके बाल सफेद हो गए। कमर झुक गई। लाठी लेकर चलने लगी और आंखों की ज्योति भी क्षीण हो गई। उसका परंतु उसका विश्वास डावाडोल न हुआ।
उसकी आंखों ने एक सुबह सुंदर नजारा देखा। प्रभु श्री राम लक्ष्मण सहित अब उसकी कुटिया की ओर चले आ रहे हैं। वह गदगद हो गई। प्रसन्नता उससे संभल नहीं रही थी। आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। उसने श्री राम और लक्ष्मण का भव्य स्वागत किया।
तौदृष्ट्वातुसिद्धासमुतथायकृतांजलि:
पादौजग्राहरामस्यलक्ष्मणस्य च धीमत:
(वाल्मीकि रामायण)
गोस्वामी को तुलसीदास का कथन:
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनिपुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लैचरनपखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
और तत्पश्चात उन्हें कंदमूल भेंट किए :
कंदमूल फल सुरस अति दिए राम कहुंआनि।
प्रेम सहित प्रमु खाए बारंबार बखानी।।
लोक मान्यता है कि शबरी ने उन्हें बेर खिलाए थे। उसने सोचा कहीं बेर खट्टे न हो इसलिए बेरो को दांतो से काटती और मीठे होने पर श्री राम और लक्ष्मण को खिलाती। प्रभु भी मग्न होकर बेरो के स्वाद से अभिभूत होते रहे। शबरी यह भलीभां जानती थी कि वह ‘अधम से अधम अति नारी तिन्हमंह मैं मतिमंद अघारी’ है। प्रभु श्री राम ने उन्हें इस पर यही कहा :
जाति पाति कुल धर्म बढ़ाई।धनबल परिजन गुण चतुराई।।
भगति हीन सोहई कैसा।बिन जल बारिददेखअ जैसा।।
अथवा…
जाति पातिनहिपूछै कोई, राम को भजै सो राम का होई।
श्री राम ने शबरी से सीता जी के बारे में पूछा :
जनकसुताकइसुधिभामिनी।
जानहिकहुकरिबरगामिनी॥
इस पर शबरी का विनम्र निवेदन यही है: पंपासरहिजाहु रघुराई। तहंहोइहि सुग्रीव मिताई॥
तत्पश्चात जटाधारी शबरी शरीर पर ‘चीर’ और ‘काला मृग चर्म’ धारण किए परम गति को प्राप्त कर गई। शबरी ने सुग्रीव-श्रीराम की मैत्री की नींव डाली जो लंकापति रावण के विनाश में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू और शबरी दोनों ही जनजातीय महान विभूतियां हैं।
डॉ. प्रतिभा गोयल
(लेखिका प्रोफेसर, पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, लुधियाना, हैं)