
देश के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। पहली चुनौती है भ्रष्टाचार और दूसरी चुनौती है भाई-भतीजावाद, परिवारवाद। भारत जैसे लोकतंत्र में जहां लोग गरीबी से जूझ रहे हैं, तब यह दृश्य देखने को मिलते हैं कि एक तरफ वह लोग हैं जिनके पास रहने के लिए जगह नहीं है। दूसरी तरफ वह लोग हैं, जिनके पास अपना चोरी किया हुआ माल रखने के लिए जगह नहीं है। यह स्थिति अच्छी नहीं है। इसलिए हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी ताकत से लडऩा है।’’
–स्वाधीनता दिवस को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
पिछली सदी के साठ के दशक के आखिरी दिनों से शायद ही कोई चुनाव हो, जिसका एक बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार का खात्मा ना रहा हो, लेकिन भ्रष्टाचार ऐसा रक्तबीज बन गया कि वह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। सुरसा के मुंह की तरह वह बढ़ता ही रहा। ऐसे माहौल में कभी कोई नरेंद्र मोदी उभरता है और भ्रष्टाचार पर मुकम्मल लगाम की बात करता है तो इसके पीछे भी राजनीति देखी जाने लगती है। हाल ही में केंद्रीय जांच ब्यूरो की कार्रवाई को भी राजनीति से ही जोडक़र देखा जा रहा है। चाहे शराब नीति लागू करने में हुई अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के घर और दफ्तर पर सीबीआई की छापेमारी हो या फिर बिहार में महागठबंधन की सरकार के विश्वासमत हासिल करने के ठीक पहले राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं से जुड़े नेताओं के घरों और कार्यालयों पर छापेमारी हो।
सीबीआई की छापेमारी को लेकर राजनीति के आरोप को उसकी टाइमिंग की वजह से बल मिला। राष्ट्रीय जनता दल को कहने को मौका मिल गया कि चूंकि बिहार में भारतीय जनता पार्टी सरकार से बाहर हो गई है, इसी खीझ में वह राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं के ठिकानों पर छापेमारी करा रही है। बिहार के उप मुख्यमंत्री ने यहां तक कह दिया कि छापेमारी से भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार जनता दल यू और राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों को डराने की कोशिश कर रही है। ताकि विधायक टूट जाएंगे। लेकिन हमारे विधायक नहीं टूटेंगे। तेजस्वी यहीं नहीं रूके। उन्होंने यहां तक कहा कि सीबीआई और ईडी उनके घर में ही दफ्तर बना ले। चौबीसों घंटें वहीं रहे। उन पर कोई असर नहीं पडऩे वाला है। उनकी मां और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी तो यहां तक कहने से नहीं चूकीं कि वे लोग डरने वाले नहीं है।
कुछ ऐसी ही स्थिति दिल्ली में मनीष सिसोदिया के घर हुई छापेमारी को लेकर भी यही हालत हुई। दिल्ली की नई शराब नीति पर आरोप है कि इससे ना सिर्फ नियमों की अनदेखी की गई, बल्कि राजस्व का बड़ा नुकसान हुआ। राजस्व के इस नुकसान का आकलन करीब तीन हजार करोड़ रूपए का है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एक तरह से दिल्ली को शराब का केंद्र बनाने की ठान ली थी। दिल्ली का राजस्व बढ़ाने के लिए उन्हें गली-गली शराब की दुकान खोलना ही आसान रास्ता नजर आया। इसमें आरोप है कि उन्होंने अपने लोगों को फायदा पहुंचाया। आरोप तो यहां तक लगा कि पार्टी की महत्वाकांक्षाएं बढ़ गई हैं। पार्टी इस साल के अंत तक होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में गंभीरता से लडऩे की तैयारी में है। भारतीय जनता पार्टी चूंकि इन राज्यों में सत्ता में है, इसलिए विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के निशाने पर इसीलिए केजरीवाल हैं। हालांकि भारतीय जनता पार्टी इससे साफ तौर पर इनकार कर रही है।
दिल्ली सरकार ने पिछले साल नवंबर में नई आबकारी नीति लागू की थी। हालांकि इस पर विवाद हुआ तो इसे वापस ले लिया और पुरानी नीति को ही लागू कर दिया। इसे लेकर दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी की सरकार की ओर से पूर्व उप राज्यपाल अनिल बैजल पर आरोप लगाया, जबकि उन्होंने इससे इनकार कर दिया। जब यह मामला दिल्ली के नए उपराज्यपाल वी के सक्सेना के सामने पहुंचा तो उन्होंने इस पर सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी। अव्वल तो इसी मामले में हो रही जांच के सिलसिले में सीबीआई ने मनीष सिसोदिया के ठिकानों पर छापा मारा और दस्तावेज लेकर चली गई।
अरबो रूपए के घोटाले के बाद मेहुल चौकसी और विजय माल्या के विदेश भाग जाने के बाद से ही सीबीआई जब भी कोई जांच हाथ में ले रही है तो उस मामले के संदिग्ध आरोपियों के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी करती है, ताकि अपराधी विदेश ना भाग सकें। इसी नियम और परंपरा के तहत हालिया जांच के लिए भी सीबीआई ने लुकआउट नोटिस जारी किया। चूंकि मनीष सिसोदिया जनप्रतिनिधि हैं, लिहाजा उनके खिलाफ नोटिस नहीं जारी किया गया। क्योंकि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वे विदेश जा ही नहीं सकते। लेकिन आम आदमी पार्टी और मनीष सिसोदिया ने खुद को भी लुकआउट नोटिस जारी करने वाली सूची में शामिल करने का ऐलान करते हुए ट्वीट किया कि मोदी जी आपकी सीबीआई मुझे ढूंढ़ नहीं पा रही है, आप बताइए कि मुझे कहां आना है।
दिलचस्प यह है कि जिस दिन मनीष सिसोदिया पर सीबीआई ने छापा मारा, उसी दिन उनके दिल्ली के कथित शिक्षा मॉडल को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स और खलीज टाइम्स में स्टोरी छपी थी। इसका हवाला देते हुए केजरीवाल ने बयान दिया कि मनीष सिसोदिया को भारत रत्न मिलना चाहिए, लेकिन उन्हें सीबीआई के जरिए तंग किया जा रहा है।
चाहे अरविंद केजरीवाल का बयान हो या फिर मनीष सिसोदिया या बिहार के तेजस्वी और राबड़ी का बयान, इन नेताओं ने सीबीआई छापे को लेकर दिए अपने बयानों के जरिए अपने वोटरों को भरोसा दिलाने की कोशिश की। भरोसा यह कि उन्होंने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया है। बल्कि उन्हें नीतीश कुमार के साथ सरकार बनाने के लिए तंग किया जा रहा है। आजकल जिस तरह की राजनीति हो रही है और वोटरों की जो सोच है, वह इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देता कि राजनीति में आने के पहले जिन नेताजी को बमुश्किल घर खर्च चल पा रहा था, चुनाव जीतने या सत्ता में आने के बाद उन्होंने कौन सा कारोबार कर लिया कि उनकी संपत्ति इतनी हो गई कि सात पीढिय़ां भी मौज कर सकें। राजनीति में सफल होने के पहले जिन नेताजी की जिंदगी एक कमरे में कटा करती थी, आखिर चुनाव जीतते ही उनके पास किस लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की डिग्री आ जाती है कि वे रूपए बनाने की मशीन बन जाते हैं? अव्वल तो जनता को इन सवालों से जूझना चाहिए, लेकिन जिस तरह हमने लोकतांत्रिक राजनीति को विकसित किया है, उसमें मतदाता जातियों में बंट गए। उन्हें अपनी जातियों के नेताओं में कोई दाग नजर नहीं आता, बल्कि उस पर पडऩे वाले भ्रष्टाचार के छींटे विपक्षी दल या खुदा न खास्ता वह दल या नेता विशेष विपक्ष में रहा तो इसे सत्ता पक्ष की कारगुजारी लगने लगती है।
वैसे विपक्ष को सीबीआई को हथियार बनाने का आरोप लगाने का मौका इसलिए मिलता है कि क्योंकि भ्रष्टाचार को लेकर सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय के घेरे में भारतीय जनता पार्टी के नेता नहीं आ रहे। साल 2019 में पूर्व वित्त और गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम् के खिलाफ जब सीबीआई ने कार्रवाई की थी तो उसे भी राजनीति से ही प्रेरित बताया गया था। कुछ महीने पहले जब महाराष्ट्र के महाविकास अघाड़ी के नेताओं नवाब मलिक और अनिल देशमुख के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने कार्रवाई की तो उसे भी राजनीति से प्रेरित कार्रवाई बताया गया। लेकिन सवाल यह है कि जब राजनीति से प्रेरित ही ये सारी कार्रवाइयां हैं तो अदालतों से इन नेताओं को राहत क्यों नहीं मिल रही है? क्यों ज्यादातर नेता जेलों में बंद हैं?
आज की राजनीति इस कदर खांचे में बंट गई है कि उसके असर में वोटर भी बंट गए हैं। वैसे भी मतदाता ज्यादातर जातियों के हिसाब से बंट गए हैं। अब मतदाताओं को भी लगता है कि उसकी जाति में अपराधी नहीं है और उसकी जाति के नेता के खिलाफ हो रही कार्रवाई राजनीति से प्रेरित है, जबकि दूसरी जाति का नेता दोषी है। तकरीबन हर तरह मतदाता अपने नेताओं को सही और दूसरे नेताओं को गलत मानने लगा है। अव्वल तो सवाल होना चाहिए कि आखिर नेताओं के पास अकूत संपत्ति कहां से आती है और राजनीति में आते ही वे किस कॉलेज की डिग्री ले लेते हैं कि उसके दम पर लगातार पैसा पीटने लगते हैं? शुचिता का जो सामूहिक बोध होना चाहिए था, ईमानदारी को लेकर जो सामूहिक सोच होनी चाहिए थी, वह लगातार कम हो रही है और शायद यही वजह है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय की वाजिब कार्रवाई को राजनीति का हथियार बताया जाने लगता है। कहना न होगा कि इसका चुनावी फायदा भी उठाया जाता है। इसी वजह से भ्रष्टाचार की कहानियां और उनके खिलाफ होने वाली जांचें अक्सर बेअसर रह जाती हैं।
यह बात और है कि लाल किले से प्रधानमंत्री ने जो घोषणा की है, उसका संकेत साफ है। अब सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में किसी को ढील देने के मूड में नहीं है। चाहे इसके लिए उस पर राजनीति के कितने ही आरोप लगें। चूंकि यह सरकार भी लोकतंत्र की ही देन है और भारतीय जनता पार्टी को भी मौजूदा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच ही रहना है, इसलिए उसे राजनीति बदले की भावना से सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय को हथियार बनाने के आरोपों का मुकम्मल जवाब भी तैयार रखना होगा। ताकि लोग भी समझें कि जिनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है, उसकी ठोस वजह उनका भ्रष्टाचार है, राजनीति नहीं।
उमेश चतुर्वेदी