
क्या झारखंड लव जेहाद का नया केंद्र बनकर उभर रहा है? सिर्फ पंद्रह दिनों में झारखंड में चार मामले सामने आना और हर मामले में हिंदू लड़कियों को निशाना बनाना मामूली बात नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हर मामले में मुस्लिम युवाओं का ही नाम सामने आया है। पहला मामला दुमका जिले की अंकिता का आया। 16 साल की अंकिता को सोते वक्त उसके प्रेमी शाहरूख ने रात घर की खिड़की के रास्ते पेट्रोल फेंक कर जला दिया। 22 अगस्त को उसे जलाया गया और बुरी तरह जली अंकिता का इलाज काम नहीं आ सका, और 29 अगस्त को वह दुनिया को छोड़ गई। अभी यह मामला ठंडा भी नहीं पड़ा कि दुमका के ही जामा थाना क्षेत्र के एक गांव की चौदह साल की आदिवासी लड़की की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। हत्या को आत्म हत्या दिखाने के लिए आरोपी ने उसे पेड़ पर लटका दिया। लेकिन घर वालों की शिकायत के बाद आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया गया।
झारखंड में एक के बाद एक हो रही घटनाओं को लेकर राष्ट्रवादी विपक्ष हेमंत सरकार पर हमलावर है। इस मामले पर हेमंत सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि हर राज्य में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। सरकार की यह हीलाहवाली और ढीला रवैया ही है कि झारखंड में लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं।
इसमें दो राय नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम समाज की ओर से हिंदू लड़कियों को जान बूझकर निशाना बनाने की कोशिशें तेज हुई हैं। भारत में नफरत फैलाने के मकसद से काम कर रही अल्पसंख्यक सांप्रदायिक शक्तियों का एक मात्र मकसद हिंदू लड़कियों को निशाना बनाना है। सोशल मीडिया पर इस समुदाय के लोग जिस तरह की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, उससे पता चलता है कि लड़कियों को निशाना बनाने की असल वजह क्या है? दरअसल अल्पसंख्यक सांप्रदायिक ताकतों को लगता है कि हिंदू लड़कियों को निशाना बनाकर वे दरअसल बहुसंख्यक समाज से बदला लेते हैं। एक तरह से वे इस बहाने अपनी नफरती विचारधारा को ही जाहिर करते हैं। उन्हें लगता है कि हिंदू लड़कियों से शादी-विवाह करना और उनसे सेक्स संबंध बनाना उन्हें अपवित्र करना है।
सांप्रदायिक सौहार्द के लिए पता नहीं किसने गंगा-जमुनी संस्कृति नाम दिया है। ध्यान देने की बात यह है कि चाहे गंगा हो या यमुना, दोनों ही हिंदुत्व और सनातन का प्रतीक हैं। लेकिन इन दोनों नदियों के नाम पर कई बार दो समुदायों के युवाओं के बीच के प्यार को गंगा-जमुनी संस्कृति का विस्तार कहा जाता है। इन्हीं दोनों शब्दों के बहाने से लव जिहाद को भी प्रगतिशील और वामपंथी खेमे की ओर से प्रोपेगंडा बताने की कोशिश होती है। जबकि आज लव जिहाद के मूल में लड़कियों को फंसाना, फिर उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर करना और अगर लड़की ना माने तो उसकी हत्या कर देना हो गया है। अपने राजनीतिक रूख के चलते प्रगतिवादी और कथित उदारवादी तबका भले ही लव जिहाद की वास्तविकता को ऑन रिकॉर्ड स्वीकार नहीं कर पा रहा हो, लेकिन अंदरखाने में उस वर्ग के भी ज्यादातर लोग इस तथ्य और इसकी भयावहता को स्वीकार करते हैं। लेकिन आज राजनीति ऐसी अंधी सुरंग हो गई है, जिसके बहाने अपने स्टैंड को लेकर वह अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेती है। चूंकि राजनीति के एक वर्ग को इस जिहाद को नकारने या उसकी अनदेखी करने से अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम वोट की थोक फसल काटने को मिलती है, इसलिए वह इस भयावहता को लेकर चुप रहता है। वह धर्मांतरण की कोशिश भी नहीं मानता। इस वर्ग को यह स्वीकार्य भी नहीं है कि सदियों पहले भारत के एक समुदाय ने गजवा-ए-हिंद का जो सपना देखा, दरअसल लव जिहाद भी उसी मकसद को हासिल करने की दिशा में एक कदम है। अगर ऐसा नहीं होता तो देशभर में ऐसी कहानियां सामने नहीं आतीं। झारखंड के खूंटी जिले में भी एक लड़की को फंसाने और उसका यौन शोषण करने की खबर का सामने आना इसी तथ्य को जाहिर करता है कि इस आदिवासी बहुल राज्य में लव जिहाद की सोच किस कदर तक जड़ जमा चुकी है।
भोजपुरी में कहावत कही जाती है, भूख ना देखे रूखो भात, नींद ना देखे टूटो खाट, प्रेम ना देखे जात-कुजात। सवाल उठता है कि क्या लव जिहाद में सचमुच प्यार भी है? अगर प्यार होता तो तय मानिए कि वहां झूठ बोलने या अपनी पहचान छिपाने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन ज्यादातर मामलों में सोशल मीडिया के जरिए मुस्लिम लड़कों ने हिंदू लड़कियों को हिंदू नाम रखकर प्यार के जाल में फंसाया और फिर उन्हें अपना शिकार बनाया। अकेले झारखंड के दुमका और लोहरदगा से लव जिहाद की जो घटनाएं सामने आईं, उनका भी पैटर्न भी कुछ ऐसा ही रहा। दुमका में आदिवासी लड़की के यौन शोषण के बाद उसकी हत्या के आरोप में जहां अरमान अंसारी को गिरफ्तार किया गया है, वहीं लोहरदगा में यौन शोषित लड़की को कुएं में धकेलकर उसे पत्थर से कुचलने की कोशिश की घटना में रब्बानी अंसारी को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया है। अंकिता केस में भी आरोपी शाहरूख हुसैन गिरफ्तार किया गया है। शाहरूख अपनी गिरफ्तारी के बाद जिस तरह हंस रहा था, उससे लगा नहीं कि उसे अपने किए पर कोई पछतावा है। कहा जा सकता है कि शाहरूख खान सिरफिरा है। लेकिन यह अधूरा सच ही होगा। कुछ लोग मानते हैं कि जिस तरह की तुष्टिकरण की राजनीति विशेषकर सामाजिक न्याय की राजनीति से शासित राज्यों में हो रही है, उससे शाहरूख जैसे लोगों का मन बढ़ता है। उन्हें लगता है कि सामाजिक न्याय की सोच वाले शासन से उसे सहयोग मिलेगा और उसका बाल बांका भी नहीं हो सकता।
कभी किसी ने सोचा है कि ईसाई, जैन, बौद्ध, और हिंदू समुदाय के बीच होने वाली शादियों पर सवाल क्यों नहीं उठता? लव जिहाद के नजरिए से सिर्फ मुस्लिम समुदाय के के व्यक्तियों के साथ होने वाली शादियों को ही क्यों देखा जाता है? तब ना तो विवाद होता है, ना ही राजनीति। इसकी सबसे प्रमुख वजह लड़कियों के साथ होने वाली धोखाधड़ी है। अक्सर मुस्लि लड़के नाम बदलकर ही हिंदू लड़कियों को निशाना बनाते हैं। फिर वे और उनका परिवार धर्मांतरण के लिए दबाव बनाते हैं। दरअसल मुस्लिम धर्म में दूसरे धर्म वाले लोगों को अपने धर्म में शामिल करना एक तरह से धार्मिक जीत माना जाता है। मुस्लिम समुदाय में बचपन से ही इस तरह जिहाद की सोच कई बार जानबूझकर तो कई बार अनजाने में भरी जाती है। दूसरे धर्मों और अनुयायियों के लिए भले ही यह अनुचित हो, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लिए यह सोच सहज है। इस सहज सोच की वजह से इस समुदाय के बच्चे इन दिनों विशेषकर हिंदू समुदाय की लड़कियों को प्रेम जाल में फंसा रहे हैं और अपने जिहाद कर्म को अमली जामा पहना रहे हैं।
चाहे समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला हो या फिर राजशाही के तहत आगे बढ़ रहा है, सामाजिक सौहार्द से बढिय़ा कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन इसके लिए समुदायों के बीच कोई कल-छपट नहीं होनी चाहिए। समुदायों के बीच पारदर्शी संबंध होना चाहिए। हम चाहे जितना भी गांग-जमुनी संस्कृति की बात कर लें, लेकिन यह तय है कि मौजूदा परिदृश्य में विशेषकर मुस्लिम समुदाय की ओर से सामाजिक मानदंडों के हिसाब से जरूरी पारदर्शिता का घोर अभाव है। हो सकता है कि जाने में मुस्लिम युवाओं के एक वर्ग के रगों में गजवा-ए-हिंद की वैचारिकता न बह रही हो, लेकिन जिस तरह के हालात में वह समुदाय रह रहा है, उसके धार्मिक रहनुमा जिस तरह की विचार और भावभूमि के जरिए अपने समुदाय का मानसिक पोषण कर रहे हैं, उसमें ऐसा होना ही है। इससे बचाव के लिए दोहरा प्रयास जरूरी है। सामाजिक पारदर्शिता आना आसान नहीं है, सामुदायिक पारदर्शिता तो और भी दूर की बात है। ऐसे में सनातन समाज को जागना होगा, अपनी ही बच्चियों पर ध्यान देना होगा, ताकि वे गलत हाथों में ना पड़ें और कभी किसी शाहरूख के नापाक पेट्रोल और माचिस की तीली की आग में जलना न पड़े। इसके लिए बच्चों को जागरूक भी बनाना होगा, जिहादी प्यार की सीमाओं को भी समझाना होगा। ऐसा पारिवारिक स्तर पर ही किया जा सकता है। भारतीय समाज में जिस गहराई तक समुदाय और जाति केंद्रित राजनीति का जहर पैठ बना चुका है, उसकी वजह से राजनीति से सकारात्मक बदलाव की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके लिए समाज को खुद ही आगे आना होगा, नापाक मंसूबों को समझना होगा और उसे नेस्तनाबूद करने के लिए खुद तैयारी करनी होगी। नापाक मंसूबों वाली राजनीति को भी कठघरे में खड़ा करने की सामूहिक और एकजुट कोशिश करनी होगी। तभी आने वाले दिनों में हालात बदले जा सकेंगे।
उमेश चतुर्वेदी