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एक गुरू एक शिष्या

एक गुरू एक शिष्या

कुछ समय पहले मेड़ता से जालंधर तक समरसता यात्रा निकाली गई। मेड़ता राजस्थान में कृष्ण भक्त मीराबाई का जन्म स्थान है और जालंधर के बलियान में संत रविदास की याद में स्थापित किया गया भव्य मंदिर है। मीराबाई का संबंध मेड़ता और चित्तौड़ के राज कुल से था और संत रविदास वाराणसी के उस समय निम्न समझी जाने वाली जाति से थे। यात्रा के सहज दर्शक होने के नाते मन में जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक था कि संत रविदास को चित्तौड़ की रानी मीराबाई ने अपना गुरु कैसे बनाया? इन दोनों में ऐसी क्या समानता थी के गुरु और शिष्य का संबंध स्थापित हो सका? दोनों के जीवन और विचारों की जानकारी प्राप्त करने की स्वाभाविक उत्कंठा जागृत हुई।

वह झोपड़ी में रहने वाला और समाज में दीन-हीन समझी जाने वाली निम्न जाति में वह पैदा हुआ निर्धन, साधन-विहीन। न कोई जमीन न जायदाद। मानव की देह पाकर भी पशुओं का सा व्यवहार। निरंतर तिरस्कार और मानसिक प्रताडऩा। उसी की समकालीन एक नारी जिसने महलों में जन्म लिया, सभी प्रकार की सुख सुविधा में पली, वह राजकुमारी। छोटे राजा की राजकुमारी और राजघराने की राजरानी।

झोपड़ी में जन्मे निम्न जाति के व्यक्ति को निरंतर सामाजिक अन्याय और उत्पीडऩ को झेलना पड़ा। वहीं महलों की वासिनी को भी समाज का कोपभाजन करना पड़ा क्योंकि वह तत्कालीन समाज में उपेक्षित नारी जाति से थी। निम्न जाति और नारी जाति दोनों की ही गणना हमारे समाज में निकृष्टतम पायदान पर की जाती रही है। संत रविदास का परिवार तो बनारस के आसपास मृत डोरों की ढुलाई और उनकी खाल उतार कर पेट पाला करता था । वह तो इस बात को स्वयं स्वीकार करता है-

मेरी जाति कुटबांढला ढोर ढवंता।

नितहि  बनारसीआसापासा।

वह तो डंके की चोट पर यह सार्वजनिक घोषणा करता है –

जाति भी ओछी कर्म भी ओछा

मेरी जाति कमीनी पाति कमीनी

ओछा जन्मु  हमारा

और यह पनहीगान्ठने का काम करता है। तब ऐसा समझा जाता था कि निम्न जाति के किसी व्यक्ति को देखने मात्र से ही नरक कुंड का टिकट कट जाता है।

जा दखीया घिन  उपजै

नरक कुंड महं बास

तिरस्कृत -अभिशप्त वह गंगा मैया में स्नान भी तो नहीं कर सकता था। इन विषम परिस्थितियों और अमानवीय व्यवहार ने उसे भी असह् पीड़ा दी होगी। वह भी तड़प उठा होगा। मानसिक वेदना से वह कराह उठा होगा। मगर यह भीषण स्थितियां उसे कटु ना बना सकी। उसने अपने माधुर्य भाव को अपने हाथों से एक पल के लिए भी ना जाने दिया। उसने धीरज रखा। वह सभी का सत्कार करता। उसने मन-मन ही मन में जान लिया था कि सभी प्रकार के भेदभाव कृत्रिम और  सारहीन है। वह अपना काम ईमानदारी से करता। मेहनत मशक्कत से पेट भरता। सभी की बातें सुनता।किसी का बुरा न  मनाता। मीठा  बोलता। प्रेम और विनम्रता से सभी के आगे झुक जाता। वह साधु संतों की संगति में बैठने लगा। वहां उसने इस मर्म को जान लिया कि  इस संसार में रहने वाले सभी प्राणी एक ही परम पिता परमात्मा की संतान है। संसार में रहते हुए भी परमात्मा को प्रेम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

रविदास अपने समय के प्रसिद्ध स्वामी रामानंद का शिष्य हो गया। गुरु  के सानिध्य ने उसे संत बना दिया।

मगर मीरा तो उच्च कुल और श्रेष्ठ वर्ग की राजकुमारी थी। उसे भी अनेकानेक  यातनाओं को सहन करना पड़ा क्योंकि उस का आचरण तत्कालीन समाज में तथाकथित नारी धर्म के प्रतिकूल समझा जाता था। माता-पिता ने उसे बचपन में ही कृष्ण जी की एक मूर्ति ला कर दे दी थी। उस मूर्ति से वह पल भर के लिए भी जुदा नहीं होती नई। रात दिन उसे अपने सीने से लगाए रखती।  कृष्ण की छवि उसके ‘उरÓ में आन बड़ी थीÓ। जब वह किशोरावस्था को पहुंची तो उसने अपने महल के करीब से घोड़े पर एक मुकुट धारी सवार को उसके पीछे पीछे बारात थी।

राजकुमारी ने उत्सुकता वश पूछा, ‘मां यह घुड़सवार कौन है?Ó

‘दूल्हा।Ó

‘मेरा दूल्हा कब आएगा?Ó

‘पगली तेरा दूल्हा तो मोर मुकुट धारी है जिसके संग तू दिन रात रहती है। तेरा दूल्हा भी बहुत जल्दी आने वाला है।Ó

उसका दूल्हा आया- चितौड़ का राजकुमार और उसे वहां से राज महलों में ले गया। उसने अपने पति को साक्षात कृष्ण मानते हुए सेवा की।  मगर भोजराज की कुछ समय के पश्चात ही मृत्यु हो गयी। मीरा पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। तत्कालीन समाज अपेक्षा और राज कुल की परंपरा के अनुसार उसे अपने पति के साथ सती होने के लिए जोर दिया जाने लगा। मगर उसने साफ इंकार कर दिया और कहा

‘मेरे तो गिरधर गोपाल ,दूसरो न कोई

जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति माई

माईरी मैं तो लियोगोविंदो मोल

कोई कहैछानै कोई कहै छुप के

लियोरी  बजन्ता ढोलÓ

उसे चूडिय़ां तोडऩे, सिंदूर मिटाने, बिंदिया हटाने और विधवा का सा भेस बनाकर रहने के लिए कहा गया। उसने मानने से मना कर दिया। वह तो गिरिधर नागर को ही अपना पति मानती थी। वह अनादि और अनंत है। उसने राजकुल की मर्यादाओं और परंपराओं को  तोड़ा और सामाजिक लोक लाज को त्याग कर वह महलों से निकलकर, पग घुंघरू बांध शहर के मंदिरों में खूब नाचती। कृष्ण जी को मानने और रिझाने के लिए गाती-

मैं तो सांवरिया के रंग राती

म्हारे जन्म मरण सा साथी

थाने नहीं बिसरू दिन राती

इस दीवानगी के लिए उसे अनेक यातनाएं दी गई। उसकी इह लीला समाप्त करने के लिए कभी सांप की पिटारी और कभी विष का प्याला भेजा जाने लगा। ऐसे माहौल में उसके लिए सांस लेना भी दूभर हो गया। उसने गोस्वामी तुलसीदास को मार्गदर्शन के लिए पत्र लिखा।

घर के स्वजन हमारे जेते, सबंन्ह् उपाधि बढ़ाई

साधु संग अरु भजन करतमाहि, देतकलेसमहाई।

मेरे माता-पिता के सम हो, हरि भक्तनसुखदाई

हमको कहा उचित कर बो है, सो लिखिए समझाई

और गोस्वामी जी का उत्तर:

जाके प्रिय न राम वैदेही

सो नर ताजिए कोटि बैरी सम

जद्यपि परम स्नेही

और वह चित्तौड़ के राज महलों को सदा के लिए त्याग कर मथुरा, वृंदावन और बनारस के लिए  चल दी। बिरहन का वेश धारण कर लिया और हाथ में एक तारा संभाले वह अपने प्यारे के गीत गुनगुनाते जिधर से गुजरती उधर ही भीड़ जमा हो जाती लोग सत्कार करते, सम्मान देते। वह बनारस पहुंच गई। उसने यहां एक निम्न जाति के संत को अपना  गुरु धारण किया। यह समाज के लिए फिर एक चुनौती थी। नई विचारधारा की चुनौती।  संत रविदास ने इस राजकुमारी को प्रेम पुजारिन बना दिया। प्रेम मार्ग की प्रहरी।

रविदास ने संत बनते ही सगल भवन के  नाइका से सीधे संवाद करते हुए यही कहा-

बहुत जन्मु  बिछड़े थे माधउ। इहुजन्मु तुम्हारे लेखे।

और उनसे नाता जोड़ते हुए कहते हैं-

जउ तुम गिरिधर तउ हम मोरा

यह तो प्रेम का सौदा है बराबरी का।

माधवे तुम ना तोरहु तो हम ना तोरही

तुम  सिउतोरीकवन  सिउजोरी।

जैसे माया अपनी रस्सी से संसार को बांध लेती है उसी प्रकार संत ने प्रेम की डोरी से अपने माधव को ऐसे बांधा कि इससे उसका इष्ट छूटना भी चाहे तो वह छूट ना पाएगा।

जउ हम बांधे मोह फांस

हम प्रेम बधनी तुम बाधे

अपने  छूटन को जतन करहु हम  छूटे  तुम आराधे।

फिर क्या था? संत की महिमा फैल गई। जो कभी उससे घृणा करते थे वही  उसके आगे दंडवत हो गए।

अब विप्र परधानतिहिकरहिदंडउति ….

ऐसी लाल तुझ बिन कौन करे

गरीब नवाजगुसइआ मेरा माथे छ्त्र  धरे।

नीचहऊचकरे मेरा गोविंदु

काहुते न डरै।

लोग यह देखकर भी चमत्कृत हो गए जब उन्होंने मोची की कुठढ्ढली के नीचे गंगा मैया को बहते देखा। गंगा स्नान को जाते एक यात्री के आग्रह पर जब संत ने अपनी चवन्नी यह कर कर दी कि  गंगा मैया को मेरी चवन्नी तभी देना जब स्वयं इसे स्वीकार करने के लिए अपना हाथ बाहर निकाले  तब तुच्छ सेवक की भेंट स्वीकार करने के लिए गंगा मैया ने ऐसा ही किया। संत रविदास अन्य मध्ययुगीन भक्त कवियों की तरह प्रभु भक्त, प्रेम पुजारी, समाज सुधारक, कर्म योगी और दूरदृष्टा थे । उन्होंने समाज ,धर्म ,अध्यात्म और मानव गरिमा को नई दिशा दी।

संत रविदास ने तो ऐसे नगर की कल्पना भी की है जहां समता, सरसता,  समरसता, प्रेम और सद्भावना की सरिता  प्रवाहित है  जिसमें सभी प्रकार के भेदभाव और आधि व्याधि  खत्म हो जाते हैं। यह बेगमपुरा शहर आदर्श समाज का प्रतीक है।

प्रेम पुजारिन मीरा मथुरा वृंदावन के मंदिरों में अपने प्रियतम के लिए  प्रणय गीत गाती, गुणों का बखान करती, महिमा का यशोगान करने के लिए कीर्तन करती। गली-गली में अपने प्यारे को ढूंढती रहती।

तेरी सूरत के कारने

मह र्ध लिया भगवा भेस

मोर मुकुट पीतांबर सोहे

घुंघर वाला केस

मीरा के प्रभु गिरिधर मिलिया

दुनोबढ़हैसनेस …

फिर वह गाने लगती-

दर्द की मारी बन बनडोलू

बैद मिला नहीं कोय

मीरा के प्रभु पीर जब्बेद

जद बैदसांवरियाहोय

इस अनोखी प्रेम दीवानी ने भी अपने अनन्य प्रेम द्वारा आखिर प्रभु की प्राप्ति कर ली। मीरा द्वारकाधीश के दर्शनार्थ द्वारका में पहुंच गई। उन्हीं की मूर्ति के आगे दंडवत होकर  उसी में समा गयी।

संत रविदास के इष्ट निर्गुण थे जब मीरा के सगुण। मगर दोनों में कोई अंतर नहीं है। ऐसा ज्ञानी लोग प्रमाणित कर चुके हैं। दोनों ने प्रेम मार्ग का अनुसरण कर प्रभु को पा लिया।

राजस्थान के मेड़ता से पंजाब के जालंधर तक की समरसता यात्रा जन-जन में एकता और क्षमता का संचार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रविदास जयंती के शुभ अवसर पर ऐसे अनेक होर्डिंग दिखाई पड़े जिन पर संत रविदास के साथ मीरा को भी दर्शाया गया था। यह सद्भावना यात्रा घर-घर में संत रविदास और मीरा बाई के मानव प्रेम और प्रभु भक्ति के संदेश को ले जाने में सफल हुई। ऐसे  प्रयास निरंतर होने चाहिए।

 

 

डॉ. प्रतिभा गोयल
(लेखिका प्रोफेसर,  पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, लुधियाना, हैं)

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