
सचमुच भारत टूट रहा है या टूट चुका है? यह सवाल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत यात्रा की वजह से उठ रहा है। राहुल गांधी की अगुआई में कांग्रेस की कोशिश यह दिखाने की है कि भारतीय जनता पार्टी देश को तोड़ रही है। केरल में भीड़ जुटाकर उसने कुछ हद तक यह संदेश देने की कोशिश भी की है कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ देश का मानस है। इसके लिए जिस तरह प्रतीकों का सहारा लिया जा रहा है, उससे साफ है कि कांग्रेस देश जोडऩे के बहाने अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल करने की कोशिश कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत जोड़ो के बहाने वह जिन टोटकों का सहारा ले रही है, उनकी वजह से वह सफलता हासिल कर सकती है?
राहुल गांधी की अगुआई में भारत जोड़ो यात्रा की तैयारी पार्टी के रणनीतिकारों ने सुचिंतित तरीके से की है। इसका समय और पार्टी के संगठनात्मक चुनाव का एक ही समय पर होना कोई संयोग नहीं है। पार्टी एक साथ दोनों कदम उठाकर एक तरफ यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह सही मायने में लोकतांत्रिक नजरिए और कामकाज वाली पार्टी है तो दूसरी तरफ वह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वही एक मात्र पार्टी है, जो देश को जोड़ सकती है। राजनीतिक जानकार भले ही कांग्रेस की पहली कोशिश को भारतीय जनता पार्टी का जवाब मानें, लेकिन यह भी सच है कि इस यात्रा और संगठनात्मक चुनाव के बहाने अपने उन अंसतुष्ट नेताओं को जवाब देने की भी कोशिश कर रही है, जिन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व पर सवाल उठाए थे। ग्रुप 23 के नाम से प्रसिद्ध हुए इस समूह की अगुआई एक दौर में पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद कर रहे थे, जिसमें मंजे हुए वकील कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा जैसे प्रतिबद्ध कांग्रेसी और मनीष तिवारी जैसे नेता भी शामिल रहे। गुलाम नबी आजाद जहां कांग्रेस के हाथ को छोड़ कश्मीर की वादियों में नई बयार बहाने निकल चुके हैं, वहीं कपिल सिब्बल ने उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के सहयोग से राज्यसभा में कांग्रेस से अलग दांव खेलना शुरू कर दिया है। मनीष तिवारी और आनंद शर्मा की गाड़ी भी अलग ट्रैक पर चल रही है। हो सकता है कि हिमाचल के भावी चुनावों के मद्देनजर आनंद शर्मा जल्द ही देवभूमि में नया देव खोजने निकल पड़ेंगे।
कांग्रेस में एक तरह से उसे छोडऩे की होड़ काफी वक्त से लगी है। भारतीय राजनीति में सबसे ज्यादा वक्त तक सत्ता का स्वाद चखने वाली कांग्रेस का पिछले दो आम चुनावों के दौरान जैसा प्रदर्शन रहा, उससे कांग्रेस के सत्ता के आदी रहे कार्यकर्ताओं और नेताओं को काफी निराशा हुई है। उन्हें सत्ता की हांड़ी उनकी पहुंच से लगातार दूर होती चली गई है। जिस आलाकमान के हाथ पार्टी की कमान है, उसकी अगुआई में पार्टी की जीत की उम्मीदें करना नेताओं को बेमानी लगने लगा है। इस वजह से पार्टी में पहले सवाल उठे। लेकिन जब उन सवालों का जवाब नहीं मिला तो निराश नेताओं ने सियासी मंझधार में कांग्रेस को छोड़कर अपनी – अपनी नावों की पतवार थामनी तेज कर दी। अश्विनी कुमार, हेमंत विस्वसर्मा से लेकर गुलाम नबी आजाद तक लंबी कतार है, जो पार्टी छोड़ नई राह पकड़ चुके हैं। जिस तरह से महाराष्ट्र से खबरें आ रही हैं, उसमें अगर कुछ दिनों में पार्टी के राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके दो नेता पृथ्वीराज चव्हाण और अशोक चव्हाण हाथ का साथ छोड़ सकते हैं। दोनों के भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने की संभावना ज्यादा है।
अव्वल तो ऐसे माहौल में कांग्रेस आलाकमान को चाहिए था कि वह किसी न किसी तरह अपने प्रतिबद्ध नेताओं को रोक कर रखे, उनके उठाए सवालों का जवाब दे। उनकी सोच के मुताबिक, संगठन में बदलाव भी लाए। लेकिन लगता नहीं कि पार्टी इससे कोई सबक सीखने को तैयार है। कांग्रेस पार्टी एक तरह से एनजीओ वालों की पार्टी बन गई है। कभी उसने देश में एनजीओ को फलने-फूलने का मौका दिया, अब उन्हीं एनजीओ के सहारे वह आगे बढऩे की कोशिश कर रही है। अब कांग्रेस की बातें, उसकी नैरेटिव का प्रसार और कांग्रेस के प्रथम परिवार गांधी-नेहरू परिवार की तरफदारी पार्टी कार्यकर्ताओं की बजाय एनजीओ कर रहे हैं। वे एनजीओ, जो बदली हुई नीतियों के चलते फाकामस्ती की ओर बढ़ रहे हैं या फिर उनकी दुकान बंद हो रही है। अव्वल तो जितना कार्यकर्ता उसके पक्ष में उठ खड़ा होना चाहिए, वैसा होता नहीं दिख रहा है। स्वाधीनता आंदोलन की पार्टी रही कांग्रेस के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए। कांग्रेस लगता है कि अपना शुरूआती इतिहास दोहरा रही है। कांग्रेस की स्थापना इटावा के कलेक्टर रहे ए ओ ह्यूम ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए नहीं की थी, बल्कि 1857 की नाकामी के बावजूद डरी हुई अंग्रेजी कौम के खिलाफ जारी भारतीय गुस्से को निकालने और इस बहाने अंग्रेजों की तरफदारी करने के लिए की थी। शुरूआती कई सालों तक कांग्रेस वैसी ही रही। यह बात और है कि जब कांग्रेस का विस्तार होने लगा, जब उसमें बिपिनचंद्र पॉल, लाला लाजपत राय और बालगंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने कांग्रेस की कमान संभाली तो पार्टी का चरित्र बदलने लगा। फिर वह भारतीय जनमानस का प्रतिनिधि बनती चली गई। लेकिन अब जिस तरह एनजीओ उसके पक्ष में खड़े हो रहे हैं, जिस तरह वामपंथी नैरेटिव उसके पक्ष में खड़ा हो रहा है, उससे पार्टी के उन्नीसवीं सदी वाले दिन ही याद आ रहे हैं। लगता है कि पार्टी एक बार फिर उसी ट्रैक पर चल रही है। तब पार्टी का उद्देश्य अंग्रेज सरकार की चापलूसी करना था, चूंकि अब अंग्रेज नहीं रहे तो वह अपने प्रथम परिवार की ही चापलूसी कर रही है।
प्रथम परिवार के इर्द-गिर्द सिर्फऔर सिर्फ वामपंथी वैचारिकी के सूत्रधार ही चिपटे पड़े हैं। वामपंथ की सबसे बड़ी कमी है कि वह भारतीय समाज को भी माक्र्सवादी नजरिए से ही परखता है। वह भारतीय संदर्भों में माक्र्स की सैद्धांतिकी की व्याख्या नहीं करता। वह संस्कृति वाले देश में नैरेटिव की लड़ाई खड़ा करना चाह रहा है, वह तुष्टिकरण को ही समाज जोडऩे का सबसे बड़ा हथियार मानता है। इस पूरी प्रक्रिया में बहुसंख्यक सोच पर चोट पहुंचाने से भी उसे हिचक नहीं रही है। यहीं पर भारतीय वामपंथ पिछड़ जाता है। वह भारतीय समाज को समझने से चूक जाता है। जिसकी परिणति यह होती है कि वह सिमटता चला गया है। अब वह पूरी तरह खुद सिमट चुका है और अब उसी वैचारिकी के सहारे वह अब कांग्रेस को भी सिकोड़ रहा है। कांग्रेस आलाकमान के ऐसे सलाहकारों पर भी खूब सवाल उठे हैं। कांग्रेस छोडऩे वाले कद्दावर नेताओं की एक शिकायत यह भी रही है। लेकिन कांग्रेस आलाकमान है कि इसे मानने को भी तैयार नहीं है। पार्टी का संगठनात्मक चुनाव हो रहा है। जिस तरह की सूचनाएं आ रही हैं, उनके मुताबिक पार्टी का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का होगा, लेकिन यह भी सच है कि नया अध्यक्ष भी गांधी परिवार के इशारे पर ही चलेगा। अगर वह स्वत: आगे बढऩे की ओर कोशिश करेगा तो उसका पाजामा भी खींचा जा सकता है, जैसे कांग्रेस के पिछले निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी की धोती खींची गई थी। नरसिंहराव भाग्यशाली रहे, क्योंकि उनके पास सत्ता थी, अन्यथा गांधी परिवार के वर्चस्व के दौर में वे भी बाहरी अध्यक्ष ही थे और उनसे भी केसरी जैसा सलूक हो सकता था। हालांकि निधन के बाद उनके साथ जैसा सलूक हुआ, वह भी कोई सम्मानजनक नहीं रहा। कांग्रेस के भावी अध्यक्षों को यह तथ्य पता है। दिलचस्प यह है कि आज की पीढ़ी को यह तथ्य भी गहराई से पता है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस चौतरफा घिरी नजर आती है, लोकतंत्र के मैदान होते हुए संगठन की सीमा से लेकर लोगों की सोच तक वह लगातार पिछड़ रही है। पार्टी का जैसा विस्तार हुआ है, उसमें एक खतरा यह भी है कि जैसे ही वह गांधी-नेहरू प रिवार से बाहर निकलने की कोशिश करती है, उसका अंदरूनी चुंबक कमजोर पडऩे लगता है और वह बिखराव की ओर बढऩे लगती है। वैसे इस बार बिखराव गांधी-नेहरू परिवार के केंद्र में होने के बावजूद हो रहा है। इस वजह से कांग्रेस के लिए गांधी-नेहरू परिवार वरदान भी नजर आ रहा है और अभिशाप भी।
कांग्रेस के साथ दिक्कत यह भी है कि वह अपनी कमियों की बजाय सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की कमियों को ही खोज रही है। वह पुराने फॉर्मूले पर ही अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रही है। वह भारतीय समाज की संरचना में आए बदलाव, भारतीय समाज की इच्छाएं, जातियों की सत्ता की भूख और समुदायों के बदले नजरिए से भी दूर हुई है। वह भारत को उसी खांचे में अब भी देख रही है, जिसे उसने ही जाने और अनजाने में पिछली सदी के बीस के दशक में देखना शुरू किया था। तब उसने खिलाफत आंदोलन का समर्थन करके एक तरह से देश के एकात्मिक मानस को बांटा था, जो बाद में सांप्रदायिकता का जहर बना। बाद के दिनों में इसी जहर का डर दिखाकर वह भारतीय समाज के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाने की कथित कवायद करती रही और इस बहाने उसे सत्ता हासिल होती रही। लेकिन आज समाज उसकी वैचारिकी के इस छद्म को समझ गया है, वह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा संगठित तरीके से खुद को अभिव्यक्त करने लगा है और उसकी यात्रा इसी आधार पर आगे बढऩे की ओर है। भारतीय जनता पार्टी ने इस तथ्य को पहचाना है और वह लगातार सफल हो रही है। कांग्रेस जिस दिन इस तथ्य को समझ जाएगी, तब उसे भारत जोडऩे के कथित आंदोलन की जरूरत नहीं रहेगी, भारत यात्रा का उसका उद्देश्य भी दूसरा होगा , तब शायद वह सत्ता के करीब फिर पहुंचने की ओर होगी। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि उसका आलाकमान इसे समझने को तैयार है?
उमेश चतुर्वेदी