
जम्मू कश्मीर सरकार ने राज्य में गान्धी जयन्ती के अवसर पर सरकारी शिक्षण संस्थानों में सर्व धर्म प्रार्थना की जाए , ऐसा विचार किया। जम्मू कश्मीर में गान्धी जयन्ती मनाई ही जाती है। महात्मा गान्धी का कश्मीर से वैसे भी विशेष सम्बध रहा है। पाकिस्तान बनने से कुछ दिन पूर्व वे श्रीनगर जाकर महाराजा हरि सिंह , व शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार सहित आम कश्मीरियों से मिल कर भी आए थे। उन्होंने कहा भी था कि जब विभाजन के कारण देश भर में आग लगी थी , उस हालत में कश्मीर अन्धेरे में आशा की किरण है। उन्होंने श्रीनगर में कोई सार्वजनिक कार्यक्रम तो नहीं किया था लेकिन अपना प्रिय भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नामÓ वे गाते रहे थे । शायद इसीलिए जम्मू कश्मीर सरकार ने महात्मा गान्धी को श्रद्धांजलि देने के लिए निर्णय किया कि सभी शैक्षणिक संस्थानों में सर्व धर्म संवाद का प्रतीक यह भजन गाया जाना चाहिए। लेकिन इसको लेकर घाटी में दो गुट बन गए हैं। एक एटीएम यानि कश्मीर में रह रहे (अरब+तुर्क+मुगल) मूल के मुसलमानों का और दूसरा डीएम यानि देसी मुसलमान कश्मीरियों का। एटीएम की ओर से मोर्चा पीडीपी की अध्यक्षा सैयदा महबूबा मुफ़्ती ने संभाला है। सैयद अरब मूल के मुसलमान हैं जिनके पूर्वज कश्मीर घाटी में ईरान से तैमूरलंग की मार से डरते हुए कश्मीर घाटी में आए थे और यहाँ के स्थानीय शाहमीरी व दरद शासकों के साथ मिल कर कश्मीरियों को मतान्तरित करने का काम किया था। इसमें उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली। कश्मीरियों ने ईश्वर के अनेक नामों में खुदा या अल्लाह का नाम भी शामिल कर लिया। मस्जिदों के आगे भी सिजदा करना शुरु कर दिया। अलबत्ता कश्मीरियों ने अपना सर्वसमावेशी स्वभाव और संस्कृति नहीं छोड़ी। एटीएम चाहता था कि कश्मीरी भी कश्मीरियत त्याग कर अरबी लिबास ही नहीं अरबी स्वभाव भी अपना लें। एटीएम का यह प्रयास पिछले पाँच सौ साल से चल रहा है। लेकिन यह बद्दुओं का दुर्भाग्य है कि वे कश्मीर को रेगिस्तान नहीं बना सके। लेकिन अरबी नस्ल हार थोड़ा मानेगी।
आज 2022 में भी सैयदा महबूबा मुफ़्ती कह रही हैं कि हम ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सब को सम्मति दे भगवानÓ नहीं गा सकते क्योंकि इससे इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है। सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि एटीएम के सैयदों को गान्धी जी का यह भजन गाने के लिए किसने कहा है ? एटीएम को यह भजन गाने के लिए कोई विवश नहीं कर सकता। अलबत्ता जिसकी इच्छा होगी वह बखुशी यह भजन गा सकता है। गान्धी जी का यह भजन गाने की यह योजना कश्मीरियों के लिए है जिसमें हिन्दु कश्मीरी , इस्लाम पंथ को मानने वाले कश्मीरी , शिया मजहब को मानने वाले कश्मीरी और गुज्जर इत्यादि शामिल हैं। यानि यह राजाज्ञा डीएम यानि देसी मुसलमानों के लिए है और कश्मीर के देसी मुसलमानों को यह भजन गाने में कोई आपत्ति नहीं है। वैसे महबूबा मुफ़्ती कह सकती हैं कि यह सभी सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए आज्ञा है। सरकारी स्कूलों में एटीएम मूल के लोगो, ख़ासकर सैयदों के बच्चे भी पढ़ते हैं। कश्मीर में इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं हो सकता। गुपकार रोड के कुलीनों के बच्चे सरकारी स्कूलों में कभी नहीं पढ़ते। वे दिल्ली और चंडीगढ़ के कानवैंट स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी स्कूल कश्मीर के देसी मुसलमानों के बच्चों के लिए है। वैसे इन कुलीनों के बच्चे दिल्ली या चंडीगढ़ के पब्लिक स्कूलों में गान्धी जी का यह भजन चाव से गा भी लेंगे। महबूबा मुफ़्ती का कष्ट तो यही है कि अब विदेशी मूल के अशरफ मुसलमानों को भी सरकारी स्कूलों के अफजाल/ अजलाफ/पसमांदा देसी मुसलमानों के साथ एक ही मैदान में खड़े होकर ईश्वर और अल्लाह को अंभेद बताना होगा। लेकिन मुफ़्ितयों को इस विषय को जानने के लिए लेकर शायद महबूबा मुफ़्ती को अरबी भाषा की डिक्शनरी खोलने की जरुरत नहीं है। गुपकार रोड के पढ़े लिखे वाशिन्दों की बात छोड़ भी दें तो डल झील पर रहने वाला कोई हांजी भी आराम से बता देगा कि इस भजन में ख़तरे वाली कोई बात नहीं है केवल परमात्मा से , (जिसके नाम अलग अलग हैं , मसलन अल्लाह , ईश्वर ) गुज़ारिश की गई है कि सभी प्राणियों को अच्छी बुद्धि दे, ताकि वे अच्छे काम कर सकें। हांजियों का जि़क्र मैंने इसलिए किया है क्योंकि एटीएम की नजऱ में हांजी अरजाल या पसमान्दा में आता है। एटीएम तो अपने आप को अशरफ कहता है यानि सबसे ऊँचा। पसमान्दा यानि सबसे नीचे। अशरफ की नजऱ में जो पसमान्दा है वह भी समझता है कि ईश्वर और अल्लाह एक ही चीज़ है। लेकिन महबूबा मुफ़्ती नहीं समझ सकती। बात स्पष्ट है। यदि अल्लाह से अशरफ को भी सम्मति मिल गई तो कश्मीर घाटी में उग्र अनेक समस्याओं का अन्त नहीं हो जाएगा? हांजी , भंगी , गुज्जर और अशरफ एक दस्तरख़ान पर नहीं बैठ जाएँगे? किसी सैयदा की डोली गुज्जर के घर नहीं उतर आएगी ? फिर गुपकार रोड और शेख या भंगी बस्ती रोड का फ़कऱ् नहीं मिट जाएगा? इसलिए महबूबा मुफ़्ती ने ‘सम्मतिÓ यानि निर्मल बुद्धि सभी को मिले , इसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। लेकिन इसके लिए बहाना उन्होंने वही पुराना ही लिया है जो उनके बुजुर्ग भी लिया करते थे यानि इससे इस्लाम ख़तरे में पड़ जाएगा। जबकि वे अच्छी तरह जानती हैं कि इससे इस्लाम नहीं बल्कि गुपकार रोड ख़तरे में पड़ जाएगा।
लेकिन गुपकार रोड के ही फ़ारूख अब्दुल्ला ने महबूबा मुफ़्ती के इस अभियान को ललकारा है। फ़ारूख अब्दुल्ला का कहना है कि यह भजन गाने से इस्लाम के ख़तरे में पडऩे की बात कहाँ से आती है ? उनका कहना है कि हम द्विराष्ट्र के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करत। भारत मज़हबी देश नहीं बल्कि पंथ निरपेक्ष देश है। मैं तो ख़ुद भजन गाता हूँ। क्या यह ग़लत है ? उन्होंने महबूबा मुफ़्ती जैसों से पूछा भी है कि क्या क्या अजमेर की दरगाह में जाने से कोई हिन्दु मुसलमान हो जाता है ? फारुख अब्दुल्ला जब राम के भजन गाते हैं तो इससे उनका इस्लाम ख़तरे में नहीं पड़ता। लेकिन जब महबूबा मुफ़्ती ऐसे भजन सुनती भी हैं तो उनका इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है। लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि फारुख अब्दुल्ला कश्मीर के डीएम यानि देसी मुसलमान हैं। उनके पूर्वज न तो अरब के सैयद हैं और न ही मध्य एशिया के तुर्क व मुगल। वे खाँटी कश्मीरी हैं। यह ठीक है कि जब उनके बुज़ुर्गों ने अपना पंथ छोड़कर अरबों का मत ग्रहण किया तो उनको लगा होगा कि मतान्तरण के बाद नाम के साथ कोई अरबी पंख लगा लिया जाए ताकि एटीएम के लोग उन्हें भी अपनी अशरफ बिरादरी का मान लें। इसलिए उन्होंने अपने नाम के आगे अरबी टाईटल शेख लिखना शुरु कर दिया था। लेकिन धीरे धीरे उन्हें आभास होने लगा था कि अरबी टाईटल लगा लेने से भी एटीएम उन्हें अशरफ नहीं मानेगा बल्कि अफजाल/अजलाफ/ पसमान्दा ही रहने देगा। फ़ारूख अब्दुल्ला के पिता मोहम्मद अब्दुल्ला तक अपने नाम के आगे शेख लिखते रहे लेकिन उनको शायद अपने जीवन काल में ही आभास हो गया था कि एटीएम देसी मुसलमानों यानि डीएम को लाख कोशिश के बाद भी अपने बराबर बैठने नहीं देगा , इसलिए उन्होंने अपनी संतान के आगे शेख लिखना बन्द कर दिया था। शायद यही कारण था कि फारुख अब्दुल्ला , शेख फारुख अब्दुल्ला न हुए। कश्मीर के देसी मुसलमान का जीना मरना देसी के साथ ही सम्भव है एटीएम के साथ नहीं जिनकी साम्राज्यवादी मानसिकता अभी भी बरकऱार है । वे अभी भी हम ‘भारत पर शासक रहे हैं Ó की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा महाभारत सीरियल के संवाद लिखने वाले डा0 राही मासूम रजा ने भी महसूस कर लिया था , जो पहले अपने आप को सैयद लिखते थे। उनके पूर्वज भी ब्राह्मण थे। लेकिन जब सैयद लिखने पर भी एटीएम ने घास नहीं डाली तो उन्होंने सैयद लिखना बन्द कर दिया और देसी मुसलमानों की अपनी बिरादरी में वापिस लौट आए थे। फ़ारूख अब्दुल्ला का कि़स्सा भी कुछ ऐसा ही है । अब वे अपनी देसी कश्मीरी बिरादरी में लौट आए हैं । यही कारण है कि उनके लिए ईश्वर और अल्लाह एक समान हो गए हैं। उन्हें भजन गाने में इस्लाम से किसी प्रकार का विरोध नहीं दिखाई देता। सबको सम्मति मिलनी चाहिए , यह प्रार्थना तो कश्मीरी सदियों से करते आए हैं। कश्मीरियों ने नुन्द ऋषि के आश्रम को अपना माना क्योंकि नुन्द ईश्वर और अल्लाह के अभेद होने का प्रचार करते थे लेकिन एटीएम के आतंकवादियों ने नुन्द ऋषि के चरारेशरीफ को जला दिया था क्योंकि उन्हें नुन्द ऋषि का यह आचरण पसन्द नहीं था। ऋषि परम्परा की शुरुआत लल्लेश्वरी ने की थी जो शिव भक्त थी। आज कश्मीरियों को ईश्वर के अल्लाह स्वरूप को अपनाए हुए पाँच छह सौ साल हो गए हैं। लेकिन उसके बावजूद जेहलम के किनारे खड़े होकर एक मुसलमान कश्मीरी भी क्या गाता है? उपर अल्लाह नीचे लल्ला। इसी का सरलीकरण किया जाए तो गान्धी का वह भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सब को सम्मति दे भगवानÓ बनता है , जिसे आज सारा कश्मीर गाना चाहता है लेकिन एटीएम की महबूबा मुफ़्ती के गले कश्मीर का यह आचरण नहीं ऊतर रहा। इन मुफ़्ितयों , मौलवियों और काजियों की यही सबसे बड़ी दिक्कत है। वे कश्मीर में पाँच सौ साल रह कर भी कश्मीरियों की संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाए। वे आज भी यही आशा लगाए बैठे हैं कि कश्मीरी कभी न कभी अपनी केसर क्यारियों में से केसर के पौधे उखाड कर यहाँ अरबी खजूरों के पेड़ लगा देंगे। लेकिन कश्मीर केसर का प्रदेश है जिसमें खजूर उग ही नहीं सकता। फारुख अब्दुल्ला इसको बख़ूबी समझते हैं। महबूबा मुफ़्ती चाह कर भी समझ नहीं सकतीं , क्योंकि उनका मन अभी भी कश्मीर की केसर क्यारियों की बजाए अरब के रेगिस्तानों में भटकता है। इसे कश्मीरियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि खाँटी कश्मीरी शेख मोहम्मद अब्दुल्ला अपने व्यक्तिगत राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए , कश्मीरियों की चिन्ता न करते हुए , बीच बीच में एटीएम मूल के लोगों से हाथ मिलाते रहे , जिसके कारण कश्मीरी, मुल्लाओं के चक्रव्यूह में फँसते गए। कश्मीरियों ने तो उनको शेरे कश्मीर तक कह कर नवाज़ा था लेकिन वे अपनी स्वार्थी राजनीति के कारण कश्मीरियों की विरासत छोड़ कर बकरों के साथ घास चरने लगे थे। यहाँ तक की फारुख अब्दुल्ला भी कुर्सी की ख़ातिर मीरवायजों की अवामी एक्शन कमेटी के चक्करों में फँसते रहे। यदि ऐसा न होता तो आज कश्मीर, एटीएम मूल के देसी विदेशी आतंकवादियों का शिकार न होता और न ही किसी मुफ़्ती को कश्मीर में बैठ कर ईश्वर और अल्लाह को अलग कहने का साहस होता।
कश्मीर में सबसे बड़ी समस्या यही है कि एटीएम मूल के लोगों ने कश्मीरियों के मतान्तरण के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। वे केवल मतान्तरण से संतुष्ट नहीं हुए। दूसरे चरण में वे कश्मीर के अरबीकरण का प्रयास कर रहे हैं। उनका यह प्रयास भी पिछले पाँच सौ साल से चल रहा है। एटीएम को कश्मीर में अपने पहले चरण यानि मतान्तरण में इसीलिए सफलता मिल गई क्योंकि कश्मीरी ईश्वर और अल्लाह में भेद स्वीकार नहीं करता। लेकिन एटीएम को दूसरे चरण यानि कश्मीरियों के अरबीकरण में सफलता नहीं मिल रही । कश्मीरी एक साथ ही अल्लाह और लल्ला (लल्लेश्वरी) को पकड़े हुए हैं। मुल्लाओं और मुफ़्ितयों को उनका यह आचरण विरोधाभासी लगता है लेकिन कश्मीरियों के लिए जीवन यात्रा का यही सत्य है। भेद शब्द का है तत्व का नहीं। मुफ़्ितयों का तत्व से कुछ लेना देना नहीं है। उनका सारा कारोबार और हलवा माँड़ा ही शब्द पर टिका हुआ है। लेकिन कश्मीरी, चाहे वह हिन्दु है या मुसलमान , तत्व का साधक है। इसी मरहले पर पिछले पाँच सौ साल से कश्मीरियों और एटीएम वालों का टकराव हो रहा है। कश्मीरियों का दुर्भाग्य है कि सत्ता के लालच में उन्हीं में से कोई न कोई सूहा भट्ट निकल कर एटीएम के साथ मिल जाता है। यह हर सदी में होता आया है। देखना होगा इस बार कौन कश्मीरी , एटीएम के साथ मूल कर आधुनिक सूहा भट्ट की भूमिका में उतरता है। फि़लहाल अब्दुल्ला परिवार तो अपनी कश्मीरी बिरादरी के साथ ही खड़ा नजऱ आता है। लेकिन सैयदा महबूबा मुफ़्ती के साथ भी कुछ गिलानी, करमानी, हमदानी, करमानी, मुगल, बुख़ारी, अन्द्राबी खड़े हो ही जाएँगे। इससे लाभ ही होगा। कश्मीरी भी अपने भीतर छिपे ऊँटों को बख़ूबी पहचान पाएँगे और समस्या की तह तक पहुँच सकेंगे। कहा गया है , जब जागो तभी सवेरा।
प्रो. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री