
ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना भारत, भारतवंशियों और विशेषकर हिन्दुओं के लिए ख़ुशी की बात है। वे ब्रिटिश हैं लेकिन अपनी हिन्दू पहचान को लेकर क्षमाप्रार्थी नहीं है। भारत में तो अपनी हिन्दू पहचान को सार्वजनिक रूप से न बताना ही सेकुलरवाद का पर्याय बना दिया गया है। इस कारण कुछ लोगों को पेट में दर्द भी हो रहा है। एक धार्मिक हिन्दू सुनक के ब्रिटेन सरीखे घोषित ईसाई देश में प्रधानमंत्री बनने को लेकर शशि थरूर और चिदंबरम जैसे कांग्रेस नेताओं ने खुलकर टिप्पणी करना भी शुरू कर दिया है कि भारत में ऐसा कब होगा? पंजाबी में एक कहावत है ‘कहे बेटी को, सुनावे बहू को।’ इन नेताओं की ये टिप्पणियाँ कहने को तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के लिए हैं लेकिन ये छद्म सेकुलरवादी बयान दरअसल देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए सुनाने के लिए दिए गए हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है? इसे समझना जरूरी है। एक व्यक्तिगत अनुभव इसके मूल में जाने के लिए बताना ठीक रहेगा। हमारे पिताजी दिल्ली में उत्तर रेलवे के मुख्यालय में काम करते थे। पिताजी अपनी धार्मिकता के कारण माथे पर वैष्णवी तिलक लगाते थे और शिखा रखते थे। उन दिनों माहौल ऐसा था कि सार्वजनिक रूप वो भी सरकारी कार्यालय में हमारे पिताजी जैसा कोई इक्का दुक्का ही ऐसा ‘साहस’ कर पाता था। इसलिए पिताजी का तिलक लगाकर और शिखा बांधकर रोज़ दफ्तर जाना एक असामान्य सी बात मानी जाती थी। तभी क्यों, आज भी आपको ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जो किसी पूजा के बाद जब दफ्तर या किसी व्यवसायिक मीटिंग में जा रहे होते हैं तो पहले वो तिलक मिटाना नहीं भूलते। ऐसा वे क्यों करते हैं?
यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि तिलक या कोई अन्य धार्मिक चिन्ह धारण करके बाहर निकलना या नहीं निकलना, ये नितांत व्यक्तिगत फैसला है। इसे सही या गलत कहकर हम इसके महत्व को कम या अधिक नहीं करना चाहते। व्यक्तिगत रूप से इस संवेदनशील मामले को यहाँ उद्धृत करने का अभिप्राय सिर्फ इतना भर है कि कैसे कुछ लोगों ने सार्वजनिक स्मृति में इसे सेकुलरवाद का झूठा प्रतीक बनाकर रख दिया है। याद दिलाने की आवश्यकता नहीं कि आज़ादी के फ़ौरन बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में लगे अपने मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उनकी ‘हिन्दू पुनर्जागरण’ की इस कोशिश के लिए केबिनेट मीटिंग में लताड़ा था। उसके बाद जब 11 मई 1951 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए जाने का फैसला किया था तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें रोकने की भरसक कोशिश की थी। तर्क था कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों को सार्वजनिक रूप से धार्मिक नहीं दिखना चाहिए।
सेकुलरवादियों का ये तर्क मान भी लिया जाये कि धार्मिक पहचानों को सार्वजनिक रूप से दिखाना नैतिक या राजनैतिक रूप से ठीक नहीं तो फिर सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनते ही भारत में ‘मुस्लिम पीएम’ ये किसने ट्रेंड करवाया? इस ट्रेंड के तले हुई ट्वीट्स को आप देख लें। सेकुलरवाद के बड़े-बड़े झंडाबरदारों के नाम इसमें आपको दिखाई देंगे। क्यों फिर स्कूलों में हिजाब पहनने की पुरजोर वकालत की जाती है? ये दोगलापन नहीं तो और क्या है? कहने का अर्थ ये कि सेकुलरवाद की मोहर का चुनींदा इस्तेमाल आप मज़हब देखकर नहीं कर सकते। आपने ऐसा करके क्या सेकुलरवाद का ये इकतरफा बोझ सिर्फ बहुसंख्यकों के कन्धों पर नहीं लाद दिया? आपने ऐसा नेरेटिव बनाया कि हिंदू आस्था के प्रतीक चिन्ह धारण करने से लोगों को अपराधबोध होने लगा। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में अंदर ही अंदर एक रोष पनपता रहा। जब भी उन्होंने इसे प्रकट करने का यत्न किया तो आपने उन्हें साम्प्रदायिक बताकर गाली देना शुरू कर दिया। कुछ लोग आज भी इसी में लगे हुए हैं।
ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री निर्वाचित होने की घोषणा के तुरंत बाद भारत में इस तरह के बयान इसी झूठे नेरेटिव को आगे बढ़ाते हैं। इस नाते ही ऋषि सुनक की हिन्दू अस्मिता और उसकी सार्वजनिक पहचान । बहुत अच्छा हुआ है कि ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी ने भारतीय मूल के हिन्दू सुनक को प्रधानमंत्री चुना है। इसके लिए पार्टी और ब्रिटेन की व्यवस्था को बधाई। परन्तु इसकी भारत से तुलना क्यों? इसे लेकर भारतीय व्यवस्था और हिंदू समाज को उलाहना देना हमारे इतिहास, हमारी बहुलतावादी सोच, सर्व समाहक हिन्दू विचार और उसकी सहिष्णुता के साथ घोर अन्याय है। ऐसा कहने वाले पढ़े लिखे तो हैं, पर उनमें समझदारी और इतिहास बोध कम है। या फिर वे मूलतः हीन भावना से ग्रसित हैं। ये अनावश्यक अपराध बोध उनमें आत्मबोध और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है। भारतीय दृष्टि को वे जरा भी समझते तो वे ऐसा नहीं कहते।
भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जज, सेना प्रमुख, मुख्य सचिव, अनेक राज्यों के राज्यपाल व मुख्यमंत्री, सेनाध्यक्ष, देश की बड़ी पार्टियों के सर्वेसर्वा तथा चुनाव आयोग के प्रमुख आदि कौनसे पद हैं जो अल्पसंख्यकों में से नहीं बने? क्या हिन्दू समाज को अपना सेकुलरवाद दिखाने के लिए बार बार इनकी सूची बनाकर अपने गले में लटकाकर घूमना होगा ताकि इन कतिपय नेताओं को बताया जा सके कि वे संकीर्ण नहीं हैं? ठीक ही है, सोये आदमी को तो जगाया जा सकता है, परन्तु सोने का अभिनय करने वाले इन आत्ममुग्ध बुद्धिजीवियों को कौन जगा सकता है?
वैसे सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं तो इससे एक हद तक ही हम खुश हो सकते हैं। उनसे भारत के प्रति किसी विशेष बर्ताव की अपेक्षा रखना खामख्याली ही होगी। बल्कि इससे उल्टा ही होने की संभावना अधिक है। हो सकता है कि वे थोड़े और सजग होकर भारत के प्रति व्यवहार करें ताकि ब्रिटेन जैसे औपचारिक रूप से ईसाई देश में उनकी साख पर कोई बट्टा न लगे। याद रहे कि ब्रिटेन का राजा वहाँ के चर्च का भी प्रमुख है। ब्रिटेन के राजा रानियों का राज्यारोहण एक चर्च यानि वेस्टमिनिस्टर एब्बे में होता है। उन्हें दफनाया भी वहीँ जाता है।
एक अच्छा भारतवंशी और हिन्दू होने के नाते हमारी प्रधानमंत्री सुनक से इतनी ही अपेक्षा हो सकती है वे अपने देश ब्रिटेन को उस गहरे आर्थिक संकट से निकालें जिसमें वो फंसा हुआ है। भारत और भारतीयों के प्रति सदाशयता बनायें रखें।
इस पद पर पहुँचने के लिए उन्हें पुनः बधाई!
उमेश उपाध्याय