
अरब सागर की लहरें वैसी ही उठ रही हैं, जैसी सामान्य दिनों में उठती हैं। गुजरात के किनारे से रोजाना की तरह अपने रूटीन में टकरा रही हैं। सवाल यह है कि क्या राज्य की सियासी धारा भी वैसी ही बह रही है, या फिर उसमें कोई नया ज्वार उठ रहा है। यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है, क्योंकि देश के दिल से उठी हिलोर ने पंजाब तक को अपने साये में समेट लिया है और वह लहर गांधी और पटेल की जन्मभूमि और नरेंद्र मोदी की कर्मभूमि को अपने लपेटे में लेने की कोशिश कर रही है। यह लपेटा जाना कुछ वैसे ही हो रहा है, जैसे 2013 में दिल्ली में हुआ। आम आदमी पार्टी ने जिस तरह गुजरात में हल्लाबोल अंदाज में चुनावी अभियान जारी रखा है, उसने सियासी धुंध पैदा करने की कोशिश जरूर की है। उसने गुजरात के मतदाताओं को यह संदेश देने का प्रयास किया कि जिस तरह उसने दिलवालों की दिल्ली और वीरों के पंजाब को कब्जे में लिया। उसी तरह वह राष्ट्रपिता और लौहपुरूष की धरती को भी अपने सियासी आगोश में ले लेगी।
गुजरात विधानसभा चुनाव पर पूरी दुनिया की निगाह है। निगाह की वजह यह नहीं है कि पश्चिमी भारत का यह राज्य गांधी और पटेल की धरती है, वजह यह भी नहीं है कि पूरी दुनिया में अपनी व्यवसायिक बुद्धि के लिए मशहूर कारोबारियों का है। इन विधानसभा चुनावों पर निगाह इसलिए है, क्योंकि गुजरात वह राज्य है, जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आते हैं, जहां के सांसद भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार अमित शाह हैं। जिनकी अगुआई में भाजपा लगातार आगे बढ़ती रही है। जहां 27 साल से भारतीय जनता पार्टी काबिज है। जहां के मशहूर शासन मॉडल को प्रस्तुत करके नरेंद्र मोदी ने गांधीनगर के सचिवालय से दिल्ली के प्रधानमंत्री निवास तक की प्रभावी यात्रा तय की है। जाहिर है कि गुजरात के चुनावों के नतीजों का असर भारतीय जनता पार्टी पर जितना नहीं पड़ेगा, उससे ज्यादा नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा। राज्य में कांग्रेस कई सालों से हतप्रभ-सी है। ऐसे में उस पर बहुत असर पड़ना नहीं है। हालांकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की वजह से पार्टी उत्साहित जरूर है। यह बात और है कि उनकी यात्रा गुजरात को छूकर निकलने वाली है। कांग्रेस की राजनीति में राहुल गांधी के उभार के बाद से गुजरात और हिमाचल विधानसभा के चुनाव पहले हैं, जिनमें राहुल गांधी की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं है। वे एक दिन भी प्रचार करने गए हैं।
गुजरात विधानसभा चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए लिटमस टेस्ट भी होने जा रहे हैं। बेशक लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग होते हैं, लेकिन यह भी सच है कि दोनों ही चुनावों का दोनों ही चुनावों पर किंचित ही सही, असर जरूर पड़ता है। वैसे अगर गुजरात में भारतीय जनता पार्टी जीतती है तो तय है कि मोदी के विजय रथ के आगे बढ़ने पर सवाल नहीं उठेगा, लेकिन अगर गुजरात में भाजपा की जमीन दरकती है तो विपक्ष को अवसर मिल जाएगा और वह मोदी के तिलिस्म के खात्मे की घोषणा करने लगेगा और इस बहाने भाजपा के विजय रथ की अनवरत यात्रा पर ब्रेक लगाने की कोशिश करेगा। यही वजह है कि 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए गुजरात में भारी जीत जरूरी है। इस तथ्य को पार्टी के दोनों शिखर पुरूष भी समझ रहे हैं, शायद यही वजह है कि ना सिर्फ पहले राज्य में सत्ता के चेहरा बदला गया, बल्कि राज्य के शीर्ष आठ नेताओं से पहले ही चुनाव न लड़ने की हामी भरवा ली गई।
चुनावों के ठीक पहले आए ओपिनियन पोल के राज्य में भाजपा की जीत की भले ही घोषणा कर रहे हों, भले ही आम आदमी पार्टी ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया हो, लेकिन यह भी सच है कि अब तक राज्य में कोई लहर नहीं दिख रही है। जबकि राज्य में पिछले कई चुनावों के दौरान सियासी लहरों ने नतीजों पर बहुत असर डाला।
गुजारत में 1980 में कांग्रेस को 182 में से 141 सीटें हासिल हुई थी। जनता पार्टी की विजय यात्रा पर कांग्रेस ने उन चुनावों में ब्रेक लगा दिया था। इसके ठीक पांच साल बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति थी, जिस पर सवारी करते हुए कांग्रेस एक बार फिर जीत हासिल करा दी। तब कांग्रेस को पिछली बार की तुलना में आठ सीटें ज्यादा हासिल हुई थीं। जबकि स्थितियां चुनावों से ठीक पहले उलट थी। 1981 में राज्य में आरक्षण विरोधी आंदोलन उभरा, जो 1984 आते-आते कांग्रेस विरोधी माहौल की व्यापक जमीन बना गया। लेकिन 31 अक्टूबर 1984 को हुई इंदिरा गांधी की हत्या ने तमाम समीकरणों को बदल दिए। तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधवसिंह सोलंकी ने केएचएएम यानी खाम यानी क्षत्रीय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय को जोड़कर फॉर्मूला बनाया था। इसका भी लाभ कांग्रेस को हुआ था।
लेकिन 1990 आते-आते गुजरात राम लहर पर सवार हो गया। गुजरात के सोमनाथ से शुरू लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने जनमानस को ऐसे हिलोरकर रख दिया कि कांग्रेस को जोरदार चुनावी झटका लगा। तब बोफोर्स दलाली के चलते कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर सवालों के घेरे में थी। उसके खिलाफ जनता दल की अगुआई में विपक्षी दलों ने राष्ट्रीय मोर्चा बना रखा था। 1990 के चुनावों में भाजपा का जनता दल के साथ गठबंधन हुआ और दोनों पार्टियों ने चिमनभाई पटेल की अगुआई में सरकार बनाई। बाद में जब जनता दल का विभाजन हुआ तो पटेल पहले चंद्रशेखर के साथ गए, बाद में उन्होंने अपना अलग अस्तित्व बनाने की कोशिश की। तब तक राममंदिर आंदोलन इतनी तेजी से उभरा कि गुजरात राम रंग में नजर आने लगा। अरब सागर की लहरों ने उस तरह गुजरात को जितना आप्लावित न किया होगा, उतना राम लहर ने किया। इसके असर से 1995 में पार्टी ने पहली बार अपने दम पर गुजरात में सरकार बनाई। तब केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री बने। तब भाजपा ने चुनाव अभियान में डर, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त गुजरात का वादा जोर-शोर से किया था। इन मुद्दों को सांप्रदायिक होने का आरोप झेल रही भाजपा ने एक ढाल के रूप मे इस्तेमाल किया और हिंदुत्व के साथ उसके चुनावी वायदों ने भाजपा को भारी जीत दिलाई। लेकिन इस जीत के महज सात महीने बाद ही केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाए जाने से नाराज शंकरसिंह वघेला ने 121 विधायकों में से 105 के साथ पार्टी तोड़ दी और कांग्रेस के साथ सरकार बनाई। लेकिन जैसा कांग्रेस की फितरत रही है, वह दूसरे की अगुआई को स्वीकार नहीं कर पाती। बाघेला की भी कांग्रेस से नहीं बनी और 1998 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और चुनाव की नौबत आ गई। तब भाजपा ने बाघेला को खजूरिया बताते हुए उन पर जोरदार हमला बोला। गुजरात को समझाने में भाजपा कामयाब रही कि उसके बिना राज्य में स्थिरता संभव नहीं और 1998 के चुनावों में पार्टी को अपने दम पर फिर बहुमत मिला और केशुभाई पटेल एक बार फिर मुख्यमंत्री बने।
केशुभाई पटेल का कार्यकाल हादसों का शिकार बन गया। साल 2001 में पहले कांडला में भारी चक्रवात आया। इसके बाद इसी साल राज्य में भयंकर भूकंप आया। जिसमें जानमाल की भारी तबाही हुई। 2001 में आया भूकंप भाजपा के भीतर भी भूकंप की वजह बना और असंतोष इतना बढ़ा कि 2001 में पार्टी ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाकर राज्य की कमान सौंप दी। इसके ठीक साल भर बाद ही फरवरी 2002 के आखिर में साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में गोधरा में आग लगाई गई, जिसकी प्रतिक्रिया में राज्य में भयंकर दंगे फैल गये। इस दौरान पार्टी हिंदुत्व के चेहरे के रूप में उभरी और इसका असर यह हुआ कि 2002 के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को 127 सीटों के साथ बहुमत हासिल हुआ। इन चुनावों में कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आठ दिसंबर 2002 को नवसारी की एक सभा में नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर बताया। भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बना दिया। तब कांग्रेस मजबूत विपक्षी की भूमिका में थी। लेकिन मौत का सौदागर की ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि भाजपा भारी बहुमत में सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही। इसके बाद तो गुजरात में नरेंद्र मोदी के नाम का डंका बजने लगा। 2007 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी विजयी रही। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने कार्यों ने दुनिया और देश का ध्यान गुजरात की ओर खींचना शुरू किया। इसका असर यह हुआ कि देश के मतदाताओं का एक हिस्सा नरेंद्र मोदी को भारत का भावी प्रधानमंत्री मानने लगा। मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार भारतीय जनता पार्टी ने जुलाई 2013 में घोषित किया, लेकिन मोदी की राष्ट्रीय छवि मजबूत होती गई। इसका असर 2012 के विधानसभा चुनावों में भी दिखा और भाजपा एक बार फिर बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही। इसी कामयाबी के रथ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी दो साल बाद देश के प्रधानमंत्री बने।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में भाजपा की बड़ी लहर चलनी चाहिए थी, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों के कांग्रेस ने भाजपा को जोरदार टक्कर दी। भाजपा बमुश्किल 99 सीटें ही जीतने में कामयाब रही। इसकी वजह रहा, हार्दिक पटेल की अगुआई में शुरू हुआ पाटीदार आंदोलन। पाटीदारों ने अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण हासिल करने की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ दिया। तब हार्दिक का साथ युवा छात्र नेता अल्पेश ठाकोर भी दे रहे थे। हालांकि वे बाद में अड़ गए कि पाटीदार आरक्षण से उनके समुदाय के हिस्से पर असर नहीं पड़ना चाहिए। उन्हीं दिनों राज्य के ऊना में कुछ दलितों पर हमला हुआ। इसके विरोध में युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी ने सरकार पर दलित सुरक्षा को लेकर जबर्दस्त आंदोलन चलाया। दोनों आंदोलनों को कांग्रेस का समर्थन मिला। इस बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी गुजरात में मंदिर-मंदिर घूमते रहे। इसका असर भी हुआ और बमुश्किल भाजपा को बहुमत हासिल हुआ।
लेकिन इस बार गुजरात में कोई चुनावी लहर नहीं दिख रही है। बेशक आम आदमी पार्टी अपनी लहर दिखाने की कोशिश कर रही है। इस बीच हार्दिक पटेल कांग्रेस होते हुए भाजपा में शामिल हो गए हैं। उन्हें पार्टी ने उम्मीदवार भी बनाया है। पार्टी एक बार फिर अपने पुराने वोट बैंक पाटीदार के साथ ही दलितों और आदिवासियों पर भरोसा कर रही है। बीती जुलाई में आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने बड़ा संदेश दिया है। वहीं आम आदमी पार्टी दिल्ली की तरह मुफ्त बिजली देने, महिलाओं और बेरोजगारों को पेंशन देने आदि लोकलुभावन वायदा करके चुनावी माहौल को भाजपा बनाम आप करने की कोशिश कर रही है। पार्टी ने जिस तरह चुनावी अभियान की शुरूआत की, उससे लगा कि वह टक्कर देने की मुद्रा में हैं। तब कांग्रेस निस्तेज दिख रही थी। लेकिन अब माहौल बदलने लगा है। कारोबारी गुजराती समुदाय शायद मुफ्त मिलने वाले वायदे के साइड इफेक्ट को समझने लगा है। इस बीच कांग्रेस एक बार फिर मैदान में दिखने लगी है। वैसे पिछले नगर निकाय चुनावों में आम आदमी पार्टी ने सूरत में कुछ सीटें जीती थीं। इससे उसका मनोबल बढ़ा हुआ है। हालांकि अब ऐसा लगने लगा है कि शुरू में ज्यादा तेजी दिखाने के चलते उसकी ऊर्जा कम होती नजर आ रही है। वैसे आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट बैंक लगभग एक जैसा है, जाहिर है कि अगर आम आदमी पार्टी मुकाबले में रहेगी तो ज्यादातर वोट कांग्रेस का ही काटेगी। जाहिर है कि भाजपा की राह इसकी वजह से आसान होगी।
लेकिन चुनाव और राजनीति में हमेशा दो धन दो दो चार नहीं होते, कभी शून्य भी हो जाते हैं और कभी बाइस भी। कई बार स्थानीय मुद्दे अचानक से उभर जाते हैं , जो कई बार सत्ता विरोधी होते हैं तो कई बार सत्ता के सवार के हितसाधक। इसलिए गुजरात का चुनाव इस बार महत्वपूर्ण रहने वाला है। यह चुनाव इसलिए भी अहम होगा कि इससे ना सिर्फ आम आदमी पार्टी के विस्तार की भावी कथा लिखी जाएगी, बल्कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के संगठन कौशल और लोकप्रियता की भी परीक्षा होगी। रही बात कांग्रेस की तो वह जैसे स्थितिप्रज्ञता की ओर बढ़ चली है। इसलिए अगर उसे कुछ सीटों का फायदा भी होता है तो वह उत्साह जताने की कोशिश करेगी, उस नतीजे को भी वह नरेंद्र मोदी विरोधी बताएगी। अगर उसकी सीटों में बढ़ोतरी नहीं होगी तो वह सदा की भांति संतभाव से विपक्ष की भूमिका निभाने की ओर अग्रसर होगी।
उमेश चतुर्वेदी