
साल 2022 में कई राज्यों में चुनाव हुए। जिसमें से गुजरात और हिमाचल में विधानसभा के लिए चुनाव हुआ, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा में उप-चुनाव हुए और दिल्ली में नगर निगम के चुनाव संपन्न हुए। देश के अलग अलग हिस्सों में हुए इन चुनावों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि भारतीय जनता बेहद सावधानी से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करती है। उसने किसी को मायूस नहीं किया। भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और बीजू जनता दल सभी को मतदाताओं ने खुश होने का मौका प्रदान किया। भाजपा को गुजरात और यूपी के रामपुर में जीत दिलाई। कांग्रेस की झोली में हिमाचल प्रदेश डाल दिया। समाजवादी पार्टी को मैनपुरी और खतौली सीट दे दी। आम आदमी पार्टी को दिल्ली एमसीडी का ताज पहनाया और बीजू जनता दल को ओडिशा के पदमपुर की सीट दे दी।
गुजरात में भूपेन्द्र ने नरेन्द्र का रिकॉर्ड तोड़ा
भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में कमाल कर दिया। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल के नेतृत्व में भाजपा ने गुजरात में इतनी सीटें जीत लीं, जितनी मोदी के मुख्यमंत्री रहते नहीं जीती थीं। गुजरात में विधानसभा की 182 सीटें हैं, जिसमें से भाजपा ने 156 सीटें जीतीं। यह गुजरात में किसी भी पार्टी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। इसके पहले सन् 1985 में माधव सिंह सोलंकी के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस ने गुजरात में 149 सीटें जीती थीं। लेकिन यह रिकॉर्ड भूपेन्द्र पटेल ने तोड़ दिया। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी राज्य में 17 सीटों पर सिमट कर रह गई।
गुजरात के रण में पहली बार आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी थी। लेकिन उसकी मौजूदगी ने भाजपा की बजाए कांग्रेस को ज्यादा नुकसान पहुंचाया। गुजरात में कांग्रेस को मात्र 5 सीटें ही मिलीं। लेकिन उसने कई सीटों पर कांग्रेस का खेल जरुर बिगाड़ दिया। आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार इसुदान गढ़वी अपनी खंभालिया की सीट भी नहीं बचा पाए, उसके प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया भी सूरत जिले की कतारगाम सीट से हार गए।
लेकिन मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल ने इतिहास रच दिया। उन्होंने भाजपा को तो जीत दिलाई ही, खुद भी घाटलोडिया सीट से पौने दो लाख वोटों से ज्यादा मार्जिन से जीत गए। जीत के बाद भूपेन्द्र पटेल को निर्विवाद रुप से दोबारा गुजरात का मुख्यमंत्री चुना गया। उनके शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हुए।
खास बात यह थी कि चुनाव परिणाम आते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भूपेन्द्र पटेल को दोबारा मुख्यमंत्री पद सौंपने का संकेत दे दिया था। उन्होंने गुजरात के चुनाव परिणाम सामने आने के बयान दिया था कि ‘चुनाव के दौरान मैंने गुजरात की जनता से कहा था कि इस बार नरेन्द्र(प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी) का रिकॉर्ड टूटना चाहिए और मैने वादा किया था कि भूपेन्द्र (मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल) नरेन्द्र का रिकॉर्ड तोड़े, इसके लिए नरेन्द्र जी-जान से मेहनत करेगा। गुजरात की जनता ने तो रिकॉर्ड तोड़ने में भी रिकॉर्ड कर दिया। उसने गुजरात की स्थापना से लेकर अब तक के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए।’
हिमाचल में बेहद कम मार्जिन से भाजपा चूकी
वैसे तो हिमाचल प्रदेश में सरकार बदलने का इतिहास रहा है। वहां की जनता भाजपा और कांग्रेस को बदल बदलकर सत्ता सौंपती है। लेकिन इस बार के चुनाव में यह रिकॉर्ड बहुत कम मार्जिन से टूटते-टूटते रह गया। वैसे तो हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को 40 और भाजपा को 25 सीटें मिली हैं। लेकिन दोनों को मिले वोटों में मात्र 0.9 प्रतिशत का ही फर्क है। वैसे तो पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने मंडी इलाके से 38 हजार वोटों से जीत दर्ज की, जो कि कुल वोटों का लगभग 85 फीसदी हैं। लेकिन हिमाचल में लगभग दर्जन भर ऐसी सीटें रहीं, जिसमें कांग्रेस पार्टी को बहुत कम मार्जिन से जीत मिली। इसमें बिलासपुर, झंडूता, सुजानपुर, ठियोग, उना जैसे कई विधानसभा क्षेत्र हैं। 68 सीटों वाले राज्य में दर्जन भर सीटें मायने रखती हैं, जहां बेहद कम वोटों से भाजपा हारी। केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के इलाके हमीरपुर में भाजपा की बजाए एक निर्दलीय को जीत मिली। वहीं भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के इलाके बिलासपुर से भाजपा को मात्र 276 वोटों से जीत हासिल हुई। हिमाचल के आंकड़ों को गौर से देखा जाए, तो ऐसा लगता है कि इस बार का चुनाव जयराम ठाकुर अकेले लड़ रह थे। उन्हें अगर भाजपा दिग्गजों का थोड़ा भी सहयोग मिलता तो हिमाचल में भाजपा सत्ता में लौट सकती थी। इस पहाड़ी राज्य में भाजपा की बेहद कम मार्जिन से हार भीतरघात का भी संकेत देती है।
मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिमाचल का मुख्यमंत्री बनाया था। जिन्होंने बहुत कम समय में जनता के बीच अपनी छाप छोड़ी थी। हिमाचल के कई वरिष्ठ नेता मुख्यमंत्री बनने की हसरत रखते थे। जिनको जयराम ठाकुर का उभार पसंद नहीं आ रहा था। ऐसे हालात में दर्जन भर सीटों पर भाजपा का बेहद कम मार्जिन से हारना भाजपा की अंदरुनी गुटबाजी और भीतरघात की तरफ इशारा कर रहा है। अगर इस तरह की आशंका सच है, तो भाजपा नेतृत्व को समय रहते इस प्रवृत्ति को संभालना होगा। क्योंकि गुटबाजी और साजिश वह दीमक है, जो कि बड़ी से बड़ी राजनीतिक पार्टी को दीमक की तरह अंदर से खोखला कर देता है।
यूपी में थोड़ी खुशी-थोड़ा गम
उत्तर प्रदेश में तीन सीटों पर उप चुनाव हुए थे- मैनपुरी, खतौली और रामपुर। इसमें से मैनपुरी की सीट समाजवादी पार्टी की पारंपरिक सीट है। यह सीट सपा के दिग्गज नेता मुलायम सिंह यादव की मृत्यु के बाद खाली हुई थी। जिसपर उनकी बहू डिंपल यादव चुनावी मैदान में उतरी थीं। जिन्हें मतदाताओं ने सहानुभूति वोट देकर जिता दिया।
लेकिन खतौली सीट पर हार होना भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। क्योंकि खतौली भाजपा की सीट थी। जिसपर बेहद तगड़ा मुकाबला हुआ। यहां पर सपा, राष्ट्रीय लोकदल और आजाद समाज पार्टी ने मिलकर भाजपा के खिलाफ मदन गुर्जर को चुनाव मैदान में उतारा था। जिसके बाद जाट, गुर्जर, मुस्लिम और दलित मतदाता एकजुट हो गए। जिसकी वजह से भाजपा को खतौली में हार मिली। जबकि खतौली में भाजपा प्रत्याशी राजकुमारी सैनी के पक्ष में प्रचार करने के लिए खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आए थे। फिर भी भाजपा अपनी सीट नहीं बचा पाई। खतौली में हार यह संकेत देती है कि भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा। क्योंकि खतौली का ट्रेंड अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी अगर जारी रहा, तो यह भाजपा के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
लेकिन रामपुर की सीट जीतना भाजपा के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि इस मुस्लिम बहुल सीट पर आजादी के बाद पहली बार आकाश सक्सेना के रुप में कोई हिंदू विधायक बना है। रामपुर की सीट सपा के दिग्गज नेता आजम खान की विधायकी रद्द होने के बाद खाली हुई थी। रामपुर मुस्लिम बहुल सीट है। यहां से आजम खान लगातार 10 बार विधायक चुने गए थे। रामपुर में जीत भाजपा के लिए जश्न मनाने का मौका है। क्योंकि यह सीट जीतकर भाजपा ने आजम खान का तिलिस्म तोड़ दिया है। जिसका परिणाम बहुत आगे तक यूपी की राजनीति को प्रभावित करेगा। रामपुर का चुनाव बेहद दिलचस्प भी रहा। क्योंकि मतगणना के 20वें राउंड तक आजम खान के उम्मीदवार आसिम रजा आगे थे। लेकिन उसके बाद आकाश सक्सेना ने जो बढ़त बनाई, वह उन्हें जीत दिलाने तक जारी रही।
रामपुर में भाजपा की जीत के बाद मुस्लिम मतदाताओं में यह धारणा प्रबल होने लगी है कि समाजवादी पार्टी अब भाजपा को रोक पाने में सक्षम नहीं है। अगर यह धारणा जोर पकड़ती है तो उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता कांग्रेस या फिर बसपा की तरफ रुख कर सकते हैं।
यूपी में जल्दी ही शहरी निकाय के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में यादव, मुस्लिम और दलित मतदाताओं का क्या रुख रहने वाला है। यह उस चुनाव के परिणामों के बाद ही पता चलेगा। वैसे मुख्यमंत्री योगी के पास यूपी में काम करने के लिए पूरे साढ़े चार साल मौजूद हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 के लिए उन्हें यूपी के मतदाताओं को जोड़कर रखना ही होगा।
बिहार में कुढ़नी के परिणाम से मुख्यमंत्री नीतीश आहत
वैसे तो बिहार में केवल एक विधानसभा सीट कुढ़नी पर ही चुनाव हुए। जिसमें सत्तारुढ़ जेडीयू को करारी हार मिली। लेकिन इस एक विधानसभा सीट के परिणाम ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंतित कर दिया है। क्योंकि इस सीट पर नीतीश के चहेते प्रत्याशी मनोज कुशवाहा चारो खाने चित्त हो गए और भाजपा के केदार गुप्ता बाजी मार ले गए। इसीलिए लेकिन इस हार से नीतीश कुमार निजी तौर पर बेहद आहत हैं। क्योंकि कुढ़नी उपचुनाव को उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।
कुढ़नी से पहले बिहार के गोपालगंज और मोकामा में भी उप चुनाव हुए थे। जिसमें गोपालगंज में भाजपा और मोकामा में आरजेडी सीट निकाल ले गई थी। कुढ़नी मूल रुप से आरजेडी की सीट थी। जिसके विधायक अनिल सहनी को एलटीसी घोटाले में सजा हो गई थी। इस वजह से कुढ़नी सीट पर चुनाव कराना पड़ा। जेडीयू ने यह सीट आरजेडी से मांग ली थी। लेकिन यहां पर खड़े मनोज कुशवाहा को भाजपा के केदार गुप्ता के हाथों 3645 वोटों से करारी हार मिली। जबकि मनोज कुशवाहा को जिताने के लिए तेजस्वी यादव ने खुद पूरे इलाके में कैंपेन किया। लालू यादव की बीमारी का इमोशनल कार्ड भी खेला। उधर जेडीयू की तरफ से उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह पूरे समय कुढ़नी में ही बैठे रहे। बिहार सरकार के कई मंत्रियों और विधायकों ने मनोज कुशवाहा के पक्ष में कैंपेन किया। खुद मुख्यमंत्री नीतीश ने कई सभाएं की और वोटरों के सामने कुढ़नी में जीत को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बताकर उन्हें एकजुट करने की कोशिश की। लेकिन जब नतीजा आया..तो पता चला कि मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा धूल में मिल चुकी थी।
नीतीश ने अनुमान लगाया था कि कुढ़नी में वैश्य समुदाय के वोट और अति पिछड़ा वोट मिलकर उन्हें जीत दिला देंगे। लेकिन भाजपा ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। भाजपा ने भी वैश्य समुदाय से आने वाले केदार गुप्ता को टिकट दिया। इसके अलावा अति पिछड़े वोटों को अपने पाले में खींचने के लिए भाजपा सांसद अजय निषाद की ड्यूटी लगाई। जिन्होंने मल्लाह वोटरों को खिसकने से बचाया। बाद में खबर मिली कि मतदान से एक दिन पहले कुढ़नी के कई इलाकों में देर रात तक बैठकों का दौर चला। जिसमें अति पिछड़ा वोटरों ने जेडीयू प्रत्याशी मनोज कुशवाहा का बहिष्कार करने का फैसला किया। अंदरखाने यह भी बताया जा रहा है कि आरजेडी भी नहीं चाहती थी कि कुढ़नी से जेडीयू का उम्मीदवार जीते। इसलिए तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी का कोर वोट जेडीयू को ट्रांसफर करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनता दल के वोटर अंतिम समय में भाजपा की तरफ झुकने लगे थे। जिसने नीतीश कुमार की हार की इबारत लिख दी।
लेकिन बात सिर्फ कुढ़नी तक सीमित नहीं है। इसके बाद पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में जेडीयू का अधिवेशन हुआ। जिसमें सीएम नीतीश कुमार ने जो भाषण दिया, उससे एक नई सियासी बहस छिड़ गई है। नीतीश कुमार ने पहली बार सार्वजनिक रुप से कहा कि वह अपने वरिष्ठ मंत्री बिजेन्द्र यादव और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह के कहने पर भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए से अलग हुए हैं। नीतीश का यह बयान बेहद अहम है। उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ने की जिम्मेदारी अपने कंधों से उतार कर बिजेन्द्र यादव और ललन सिंह पर डाल दी है और खुद पल्ला झाड़कर अलग हो गए हैं। जो यह बताता है कि वह भाजपा से फिर से नजदीकी बढ़ाने की फिराक में हैं।
इस बात का दूसरा अहम संकेत यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने 5 सितंबर को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, जिसमें नीतीश कुमार शामिल नहीं हुए। लेकिन 8 दिसंबर को कुढ़नी उपचुनाव का परिणाम आने के बाद 11 दिसंबर को पीएम मोदी ने फिर से बैठक बुलाई। जिसमें नीतीश कुमार दौड़े दौड़े पहुंचे।
कुढ़नी विधानसभा उप चुनाव के बाद यह स्पष्ट हो चुका है कि जेडीयू का कोर वोट बैंक अति पिछड़ा अब उससे खिसकने लगा है और राष्ट्रीय जनता दल के वोटर जेडीयू के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए नीतीश कुमार के लिए फिर से पशोपेश की स्थिति है। वैसे भी नीतीश कुमार पलटी मारने में माहिर हैं। ऐसे में वह फिर से कोई अप्रत्याशित फैसला ले लें, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अब अगले साल यानी 2023 में देश के 9 राज्यों में चुनाव की रणभेरी बजने वाली है। जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक भाजपा के लिए बेहद अहम हैं। क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों ने पीएम मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए बड़ी संख्या में सांसद जिताकर भेजे थे। इसके अलावा छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में भी जबरदस्त घमासान होने वाला है। क्योंकि इन दोनों राज्यों में भाजपा की धुर विरोधी पार्टियां सत्ता में हैं। साथ ही त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों के चुनाव भी बेहद अहम हैं। क्योंकि बॉर्डर पर स्थित इन राज्यों में भाजपा की सरकार बनना राजनीति नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बेहद अहम है। ऐसे में साल 2022 का क्वार्टर फाइनल तो निपट गया। लेकिन 2023 का सेमी फाइनल ही 2024 के फाइनल यानी लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा तय करेगा।
अंशुमान आनंद