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मोदी बनाम खंडित विपक्ष की एकता, दूर की कौड़ी

मोदी बनाम खंडित विपक्ष की एकता, दूर की कौड़ी

गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा तथा दिल्‍ली नगर निगम के चुनाव संपन्‍न हो चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में न केवल जीत का सिलसिला जारी रखा बल्कि इस बार अपने रिकार्डतोड़ प्रदर्शन से धुरविरोधियों को प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व के करिश्‍मे के आगे विवश कर दिया। भाजपा ने गुजरात की 182 सदस्‍यीय विधानसभा के अबतक के इतिहास में सर्वाधिक 156 सीटें जीतकर नया रिकार्ड बनाया और उसकी पारंपरिक प्रतिद्वंदी कांग्रेस 17 सीटों पर सिमट गई।

जहां तक हिमाचल प्रदेश के नतीजों की बात है तो वहां राज बदल गया, रिवाज नहीं बदला। भाजपा के लिए यह कहा जा सकता है कि पार्टी बहुत गंभीरता से लड़ी और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद 25 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। हिमाचल प्रदेश में हर बार सरकार पलटने के रिवाज के तहत कांग्रेस एक बार फिर सत्‍ता में लौट आई। दिल्‍ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को हराकर पहली जीत दर्ज की लेकिन हिमाचल प्रदेश में उसके सारे प्रत्‍याशियों की जमानत जब्‍त हो गई। गुजरात में आप के नेता अरविंद केजरीवाल के तमाम दावे खारिज हो गये और उनकी पार्टी के मुख्‍यमंत्री पद के उम्‍मीदवार इसुदान गढवी भी चुनाव हार गये। केजरीवाल ने पिछले छह महीने से गुजरात में दिल्‍ली और पंजाब की तर्ज पर पर मतदाताओं को लुभाने का भरसक प्रयास किया लेकिन आप को महज पांच सीटों से संतोष करना पडा और दूसरा स्‍थान हासिल करने के मंसूबे पर भी पानी फिर गया।

इस बार तीन चुनाव हुये और भाजपा, कांग्रेस और आप को एक-एक चुनाव में जीत हासिल हुई। यह भी सही है कि इन चुनावों में भाजपा को हिमाचल प्रदेश और दिल्‍ली में नुकसान हुआ। दिल्‍ली की हार की जिम्‍मेदारी लेते हुये प्रदेश अध्‍यक्ष आदेश गुप्‍ता ने इस्‍तीफा दे दिया है और उनकी जगह पर वीरेंद्र सचदेवा को कार्यकारी अध्‍यक्ष नियुक्‍त किया गया है। इस तरह चुनाव के बाद होनेवाली फेरबदल की कार्रवाई भी शुरू हो गई है। हार जीत का राजनीतिक विश्‍लेषण होना स्‍वाभाविक है। एक बार फिर मोदी बनाम विपक्ष को लेकर नये समीकरण गढने की कवायद शुरू हो गई है।

बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ने फिर से अपनी पुरानी सोच को बुलंद करने की शुरूआत की है और कहा है कि अगर सारा विपक्ष एकजुट हो जाये तो वह अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हरा सकता है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा है कि कई राजनीतिक दल के मुखिया विपक्ष की एकता को लेकर बात करे हैं। उनके पूरे कथन में अगर-मगर, किंतु-परंतु की मजबूरियों को आसानी से देखा जा सकता है। कई संभावनाओं को लेकर समीकरण गढे़ जा सकते हैं लेकिन अबतक तीन बडे़ मौकों पर विपक्ष सत्‍तारूढ दल या गठबंधन के खिलाफ एकजुट होकर अपने मकसद में सफल रहा है लेकिन ज्‍यादा दिन टिक नहीं पाया। पहला मौका था इमरजेंसी (आपातकाल), जब वाम दलों को छोडकर सभी राजनीतिक दल एकजुट हुये और जनता पार्टी का गठन हुआ। जनसंघ समेत कई राजनीतिक दलों के विलय के साथ बनी जनता पार्टी ने सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्‍व में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हराया और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था।

विपक्ष के लिये यह एक बडी उपलब्धि थी जिसे लोकतंत्र का पहरुआ भी माना जाता है लेकिन व्‍यावहारिकता के पैमाने पर जनता पार्टी ढाई साल भी नही टिक पाई और फिर टुकड़े-टुकडे़ हो गई। कांग्रेस में इंदिरा गांधी के धुर विरोधी रहे वरिष्‍ठ नेता मोरारजी  देसाई गुजरात के सूरत से लोकसभा के लिए चुने गए और उन्हें सर्वसम्मति से संसद में जनता पार्टी के नेता के रूप में चुना गया एवं 24 मार्च 1977 को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उनके आरंभिक कार्यकाल में देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई।

जनता पार्टी के इस कृत्‍य को बदले की कार्रवाई के रूप में देखा गया और तब ऐसा लगा कि इंदिरा गांधी के युग का अंत हो गया। लेकिन विरोधाभाषी विचारधाराओं के बेमेल गठजोड से बनी जनता पार्टी की नींव दो साल में दरकने लगी और 28 जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद से इस्‍तीफा देना पडा। फिर 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा इंदिरा गांधी के नेतृत्‍ववाली कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। उन्‍हें बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 20 अगस्त तक का समय दिया गया था लेकिन ठीक एक दिन पहले 19 अगस्त को इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया। उत्‍तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले चौधरी चरण सिंह की सरकार गिर गई। संसद का बगैर एक दिन सामना किये चरण सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा और फिर लोकसभा चुनाव हुये और इंदिरा गांधी चुनाव जीत गईं और जनता पार्टी हार गई फिर टुकड़े-टुकड़े में बंट गई।

दस साल बाद राजीव गांधी सरकार के बोफोर्स घोटाले के मद्देनजर सारा विपक्ष एक बार फिर एकजुट हुआ और 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई। कांग्रेस छोडकर आये विश्‍वनाथ प्रताप सिंह दो दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बने लेकिन विपक्ष की एकजुटता के रग-रग में निहित अंतर्कलह का वह शिकार हो गये। उनका शासन एक साल से कम चला और उन्‍हें 10 नवंबर 1990 को इस्‍तीफा देना पड़ा। एक बार फिर कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और एकजुट विपक्ष बिखर गया। पुरानी कहानी दोहरायी गई और कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद चंद्रशेखर सरकार गिर गई। यह वह दौर था जब अयोध्‍या में राममंदिर निर्माण को लेकर आंदोलन चरम पर था और भारतीय जनता पार्टी की चार राज्‍यों गुजरात,राजस्‍थान, मध्‍यप्रदेश और उत्‍तर प्रदेश में सरकारें बन चुकी थीं। विवादित बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस के बाद भाजपा की चारों राज्‍य सरकारों को बर्खास्‍त कर दिया गया।

1996 के लोकसभा चुनावों में भाजपा सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्‍व में भाजपा की सरकार बनी। स्‍पष्‍ट बहुमत नही होने के कारण वाजपेयी को इस्‍तीफा देना पडा और विपक्ष को एकजुट रखने के लिये बने यूनाइटेड फ्रंट ने कर्नाटक के नेता एच डी देवेगौड़ा को संसदीय दल का नेता चुना और वह प्रधानमंत्री बने। इस बार भी यूनाइटेड फ्रंट बिखरने लगा और महज दस महीने में कांग्रेस की समर्थन वापसी के बाद देवेगौड़ा को इस्‍तीफा देना पडा। फिर 21 अप्रैल 1997 को इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने लेकिन उनका हश्र भी देवेगौड़ा जैसे हुआ। लोकसभा चुनाव हुये और अटल बिहारी वाजपेयी  राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता चुने गये और 19 मार्च 1998 को दोबारा प्रधानमंत्री बने। उनकी सरकार एक साल बाद लोकसभा में एक मत से हार गई लेकिन अगले लोकसभा चुनाव में राजग स्‍पष्‍ट बहुत हासिल करने में सफल रहा और उसने अपना कार्यकाल पूरा किया।

एकजुटता के नाम पर विपक्ष को एकजुट करने की कवायद अपने आप में जटिल है। वाम दल राजनीति में पहले ही हाशिये पर जा चुका और उनके साथ कई क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक दायरा सिमटता जा रहा है। हर क्षेत्रीय दल की अपनी सीमायें है और अधिकतर एक राज्‍य तक सीमित हैं। खुद नीतीश कुमार का जनता दल बिहार की सरहद पार नहीं कर पाया है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल से बाहर नही निकल पाई। द्रमुक एवं अन्‍नाद्रमुक तमिलनाडु तक सीमित है। बीजू जनता दल उडीसा तेलंगाना राष्‍ट्र समिति तेलंगाना और कांग्रेस वाईएसआर आंध्र प्रदेश तक सीमित हैं।

कुछ विकल्‍प पर गौर किया जा सकता है जैसे चुनाव से पहले विपक्ष एक गठबंधन बनाकर सीटों का बंटवारा करके लोकसभा की हर सीट पर भाजपा के खिलाफ एक सर्वमान्‍य उम्‍मीदवार को उतारे ताकि विपक्ष का वोट आपस में नहीं बंटे। कांग्रेस जैसे राष्‍ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के लिये अपनी कुर्बानी देने को तैयार हों और जस का तस की स्थिति को बरकरार रखने के लिये तैयार हों। एक विकल्‍प यह भी है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर चुनाव से पहले हर लोकसभा सीट के लिये एक उम्‍मीदवार का नाम तय हो जो भाजपा को चुनौती देने में सक्षम हो और बहुकोणीय मुकाबले की स्थिति बनने से रोका जाय। ऐसी आदर्श स्थिति सिर्फ इमरजेंसी के बाद हुये लोकसभा चुनाव में बन पाई थी जब कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष का, जनता पार्टी, का एक उम्‍मीदवार था और प्रचंड बहुमत पाने में सफल रहा था।

कांग्रेस अपने खोये हुये जनाधार और पार्टी के अंर्तकलह से उबरने की कोशिश कर रही है और उसकी कमजोरी का फायदा खंडित विपक्ष भी उठाने में कोई कसर बाकी नहीं रखता है। खंडित विपक्ष के घटक दल कांग्रेस और वामदलों की जमीन पर पनपे और लंबे समय से फल-फूल रहे हैं। वे कांग्रेस के नेतृत्‍व को स्‍वीकार करने के लिये तैयार नहीं दिखते ऐसे में भाजपा के खिलाफ उनके मिलकर चुनाव लड़ने की संभावना को दूर की कौड़ी कहा जा सकता है। फिलहाल जो स्थिति है उसमे यही समीकरण बन रहा है, मोदी बनाम खंडित विपक्ष। इस स्थिति में अब तक के चुनावी गणित और उसके इतिहास 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेन्‍द्र मोदी के पक्ष को मजबूत करते हैं।

 

 

उमेश उपाध्याय
पूर्व संपादक, यूनीवार्ता

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