
श्री रामचरितमानस महाकाव्य के नायक राम के जीवन की अधिकांश महत्वपूर्ण घटनाएं वनवास के दौरान ही घटित होती हैं। इन्हीं से रामलीला के विभिन्न रंग उद्घाटित होते हैं।
नगरों की सुविधाओं का वनों में सर्वथा अभाव होता है। श्रीराम तो वन स्थित बस्तियों में भी प्रवेश नहीं कर सकते थे। वन तो आखिर वन होते हैं। वन बीहड़ एवं ऊँचे-ऊँचे दुर्गम पर्वत, कंटकाकीर्ण मार्ग, पग-पग पर निशाचरों का आतंक, जंगली जानवरों का भय और पेट भरने के लिए कंदमूल, वह भी दुसाध्य-कभी-कभार। इन्हीं कठिनाइयों का वर्णन कर माता कौशल्या और फिर राम ने सीता को वनगमन से रोकना चाहा था।
रामचरितमानस वन्य जन्य प्रकृति चित्रण से भरपूर है। यहाँ के पेड़-पौधों, लताओं, पशु-पक्षियों, जल-प्रवाहों, तड़ाग-तालाब, सूर्य-चाँद के विविध रंगों की छटा का साक्षात्कार होता है। इस महाकाव्य में पशु-पक्षियों का केवल प्राकृतिक अंग के रूप में ही वर्णन नहीं हुआ। अपितु वे तो इस महाकाव्य के जीवन्त पात्र हैं। इसमें रीछों और वानरों की भूमिका तो इतनी महत्वपूर्ण है कि उनके बिना इस लीला की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पक्षियों की गिनती वानरों से कम जरूर है परन्तु रामकथा को आगे बढ़ाने में इनका अत्यधिक योगदान है। इसके साथ ये पात्र तत्कालीन समाज में मानव-पक्षी के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध और प्रेम को रेखांकित करते हैं।
इन पक्षियों का कवि ने प्रकृति-वर्णन के हर पक्ष से इसका प्रयोग किया है। सीता अपहरण के तुरन्त पश्चात राम इन्हीं से पूछते हैं:
‘हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृग नैनी।।”
राम भटकते-भटकते अपने मार्ग में पड़े एक घायल पक्षी को देखते हैं। वह था गिद्धराज जटायु। जटायु ने उन्हें पहचान लिया कि वह उसके मित्र राजा दशरथ के पुत्र हैं। राम को उस पक्षी ने बतलाया कि नभ में उड़ते हुए विमान से घायल पक्षी की भांति रोती-कुरलती हुई किसी नारी की आवाज सुनाई दी। वह उसे सुन आशंकित हो उठा और वह विमान को धरती पर खींच लाया:
‘गीधराज सुनि आरत बानी।
रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।।
अधम निशाचर लीन्हें जाई।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
जटायु ने दशानन से कहा कि वह जानकी को छोड़ दे, पर वह नहीं माना और इस पर परस्पर भिड़ गए और उसने दानव को इसमें मूर्च्छित कर दिया:
‘चोचन्ह मारि विदारेसि देही।
दण्ड एक भई मुरूछा तेही।।
मगर अपहरणकर्ता ने होश में आते ही अपनी तेज कटार से जटायु के पंख काट दिये और उसे मृत प्राय छोड़ वह पुनः विमान ले उड़ा :
‘तब सक्रोध निसिचर खिसियाना।
काटेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी।
सुमिर राम करि अद्भुत करनी।।
इसी भेंट के दौरान जटायु ने ही राम को बतलाया कि दशानन ने ही सीता का अपहरण किया है।
‘नाथ दशानन यह गति कीन्ही।
तेहिं खल जनक सुता हर लीन्ही।।
इस प्रकार इस पक्षी को ही यह श्रेय प्राप्त है कि उसने सर्वप्रथम राम को सीताहरणकर्ता का नाम बतलाया। इससे सीता की खोज को एक निश्चित दिशा मिली। इसके साथ-साथ रामकथा भी आगे बढ़ने लगी। इसी सूचना की पुष्टि में वानर-सम्राट सुग्रीव ने राम को, सीता द्वारा विमान से फेंके गए वस्त्र दिखा कर की थी। उसने अपनी ओर से यह भी जोड़ा कि वह विमान ‘दक्षिण दिशा” को जा रहा था। इस प्रकार श्रीराम के पास यह जानकारी हो गई कि अपहरण दशानन नामक किसी निशाचर ने किया है जिसका निवास दक्षिण दिशा में है।
जटायु का प्रसंग मानव-जीव-जन्तुओं के अंतरंग रिश्तों-मैत्री का प्रसंग है। स्पष्ट है कि जीवन में प्रत्येक जीव का अपना महत्व है। कोई भी नगण्य नहीं। इन्हीं सम्बन्धों की अनदेखी कर आज का मानव संताप को भोग रहा है। प्रकृति-संतुलन को बिगाड़ अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी चला रहा है। सुग्रीव ने सीता की तलाश में वानर भेजे। वे दत्तचित्त हो ढूंढने में लगे हैं। वन-वन, पर्वत-पर्वत भटकते हैं। परन्तु बात आगे नहीं बढ़ती। ऐसी दारूण स्थिति में वे करें तो क्या करें। कुछ सूझता नहीं था। न सुग्रीव के पास लौट सकते हैं, न भूख-प्यास ही उनका पीछा छोड़ती है। वे पानी की तलाश में एक अंध गुफा में दाखि़ल हुए। वहाँ एक बूढ़ा पक्षी अपनी चोंच को फैलाये उन्हें खाने के लिए तैयार बैठा है। सब डर गए। अंगद को ऐसे समय में जटायु की याद आती है:
‘कह अंगद बिचारि मन माहीं।
धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
इस नाम को सुनते ही घायल सम्पाती चौंक उठा और उनसे यह कथा सुनकर कहने लगा कि उसे तुरन्त सिंधु तट पर ले जाया जाए ताकि वह अपने भाई का तर्पण कर सके। इसके बदले में उसने वानरों को सीता की खोज में सहायता का आश्वासन दिया।
उसने बतलाया कि ’हम द्वौ बंधु ’ तरूणाई में उड़ान की स्पर्धा में उड़ने लगे। जटायु उड़ते-उड़ते सौर्यमंडल में पहुँच गया। सम्पाती को चिन्ता हुई कि सूर्य के ताप को वह कैसे सहन करेगा। यह सोचकर वह भी तेजी से सूर्य की ओर उड़ा। जटायु पर अपने पंखों से छाया करके सम्पाती ने उसे बचा लिया।
परन्तु इस अभियान में सम्पाती के पंखों में आग लग गई। वह निःशब्द होकर पर्वत पर गिरा। वहाँ एक मुनि ने उस पर कृपा की कि उसके पंखों की आग को बुझा दिया और उसे गुफा में लिटा दिया। वह अब उड़ नहीं सकता है। अपनी विवशता को प्रकट करते हुए वह वानरों से कहता है कि वह लाचार है, उनकी सहायता करने में असमर्थ है। परन्तु िगद्ध की दृष्टि अपार है, उसी के बल पर उसनेे वानरों
से कहा
‘गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका।
तहँ रह रावन सहज असंका।।
तहँ असोक उपवन जहँ रहई।
सीता बैठि सोच रत अहई।।’’
और उसने यह भी बतलाया:
‘जो नाघई सत जोजन सागर।
करई सो राम काज मति आगर।
इस प्रकार सम्पाती ने रावण के ठौर-ठिकाना और उसके निश्चित नाम का पूर्ण विवरण दे दिया। जिससे सीता की खोज का मार्ग प्रशस्त हुआ।
अब केवल चौड़े सागर को पार कर त्रिकूट पर बसी लंका से सीता की खबर लाना शेष था। इस कार्य के लिए भी कपीस हनुमान जी ही आगे आए।
डॉ. प्रतिभा गोयल