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बॉयकॉट बाॉलीवुड : सनातन संस्कृति पर गहरी चोट

बॉयकॉट बाॉलीवुड : सनातन संस्कृति पर गहरी चोट

पिछले एक साल से बॉयकॉट बॉलीवुड की काफी चर्चाएं हो रही हैं। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर बॉयकॉट को लेकर लोग तर्क-वितर्क कर रहे हैं। बॉयकॉट होने के कई कारण सामने आ रहे हैं। जिसमें सबसे पहले बॉलीवुड और इसके ज्यादातर कलाकारों पर भारत की सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ काम करने के आरोप लगाए जा रहे हैं। हाल ही में पठान के बेशर्म रंग इस कड़ी का एक मात्र हिस्सा है। ये लोग देश और हिंदू आस्थाओं को चोट पहुंचाने से जरा भी नहीं कतराते हैं। ऐसा लगता है कि बॉलीवुड का एक मात्र लक्ष्य देश की संस्कृति को नष्ट करना ही रह गया है। बॉलीवुड में हिंदू देवी-देवताओं और आस्थाओं के मजाक उड़ाए जाने की यह पहली घटना नहीं है। फिल्म ब्रह्मास्त्र में जूते पहनकर मंदिर की घंटी बजाने से लेकर पठान में भगवा को बेशर्म रंग कहने तक हाल-फिलहाल में ही विभिन्न हिंदू संस्कृति विरोधी हरकतें की गई हैं। गाने में भगवा रंग के साथ अश्लील चित्रण कहीं न कहीं फिल्म बनाने वालों की मानसिकता को उजागर करता है। दीपिका पादुकोण इससे पहले भी विवादों में रही हैं। जेएनयू में देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगने पर पूरा देश इससे आकोशित था तो दीपिका ऐसे नारे लगाने वालों के समर्थन में खड़ी थीं। साफ है कि दीपिका के लिए इस देश की अखंडता और हिंदू धर्म की अक्षुण्णता दोनों ही महत्वपूर्ण नहीं हैं।

बॉलीवुड में बेहतरीन और मौलिक फिल्मों का अभाव

आज बॉलीवुड कोई भी हिट फिल्म नहीं दे पा रहा है, मौलिकता का अभाव साफ दिख रहा है। यहां कथानक और चेहरे दोनों ही बासी हो चुके हैं। खान-कपूर सरनेम के बिना अच्छी फिल्मों में काम मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं है। इससे भी आगे कहानी में विषय या कथानक नहीं बल्कि स्टार हावी होते हैं। उनकी सुविधानुसार विषय, अभिनेत्री और सह-अभिनेता सब कुछ बदल जाते हैं। उम्रदराज अभिनेताओं के चलते फाइटिंग और नृत्य के दृश्यों के लिए बॉडी डबल का उपयोग करना पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ दक्षिण भारत में सामाजिक, पारिवारिक, देशप्रेम से ओत-प्रोत और मौलिक विषयों पर फिल्में बन रही हैं जो उत्तर-दक्षिण भारत के साथ-साथ वैश्विक पटल पर भी धमाल मचा रही हैं। बाहुबली, केजीएफ, कंतारा जैसी फिल्में इसका उदाहरण है।

रीमेक पर चल रहा बॉलीवुड

बॉलीवुड रीमेक पर रीमेक फिल्में बना रहा है। यह उद्योग चूंकि अपनी जड़ों से ही कट चुका है, ऐसे में स्वाभाविक है कि इसके पास अपनी कोई कहानी भी नहीं है। हाल-फिलहाल में रिलीज हुईं ज्यादातर फिल्में दक्षिण या अन्य फिल्मों की रीमेक भर हैं। पहले लोगों तक स्थानीय फिल्मों के अलावा अन्य फिल्मों की पहुंच सीमित थी लेकिन आज लगातार वैश्विक होती दुनिया, इंटरनेट और ओटीटी के चलते दुनिया की सारी बेहतरीन कहानियां हमारे पास चुटकियों में उपलब्ध हैं, इसलिए बाॅलीवुड का यह पैंतरा किसी काम नहीं आ रहा है। ऐसे में बाहुबली, केजीएफ, कंतारा जैसी मौलिक, आंचलिक, जल-जंगल-जमीन से जुड़े विषयों पर बनी प्रामाणिक फिल्में देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ रही है, वहीं बाॅलीवुड की एक के बाद एक फिल्में थियटरों में दम तोड़ रही हैं।

गौरतलब है कि बॉलीवुड की फिल्मों के विषयों को संक्षेप में लिखना हो तो इनमें मात्र परिवार की संस्था को तोड़ना, शराब-ड्रग्स के सेवन को आम बताना, नग्नता-फूहड़पन और भारतीयता को नष्ट करने वाले आचार-विचार ही बचे हैं। यह कारण है कि इसकी फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही हैं। नशा उत्पादों को बढ़ावा, महिलाओं को नशा और आजादी के नाम पर पश्चिमी सभ्यता के खोखले खुले पन को बढ़ावा दे कर सामान्य महिलाओं को उपर्युक्त सभी चीजों के प्रति आकर्षित करने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। बालीवुड को चाहिए कि यह अपने रसातल में गिरने के कारणों की पड़ताल करे। भाषा और संस्कृति से दूर होकर बॉलीवुड जैसी फिल्में बेचने की कोशिश कर रहा है, वैसी फिल्में हॉलीवुड सत्तर के दशक में बनाता था।

प्रेरणा कुमारी

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