
राजा दशरथ के चार राजकुमार हैं। सबसे बड़े हैं राम, फिर भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न। राम ने माता कौशल्या और भरत ने रानी कैकेयी की कोख से जन्म लिया है। चारों भाइयों में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है। परन्तु बचपन से ही राम के जोड़ीदार लक्ष्मण हैं और भरत के शत्रुध्न। यह जोड़ियाँ रामलीला के अन्त तक चलती रहीं।
राम और भरत श्याम वर्ण के हैं, लक्ष्मण और शत्रुध्न गौर। चारों राजकुमार अत्यन्त सुन्दर, समझदार, शक्तिशाली, बलवान, विद्वान और गुणों की खान हैं। श्री राम का विवाह राजा जनक की बेटी, सीता से, भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुध्न का श्रुतिकीर्ति से जनकपुरी के राजघराने में होता है।
राजा दशरथ ने चैथे पहर में पुत्र-सुख को प्राप्त किया है। उनकी कुमारावस्था तक राजा बूढ़े हो गए हैं। एक बार अपनी कनपटी पर सफेद केशों को देखकर उन्होंने मन में सोचा कि क्यों न अब रघुकुल की रीति के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन सौंप दिया जाए। जिस किसी से भी उन्होंने इस सम्बन्ध में सलाह-मशविरा किया, उसने अपनी सहर्ष सहमति व्यक्त की। राजा दशरथ ने राम को राजसिंहासन देने की घोषणा कर दी और इसके लिए किसी तिथि का भी निर्धारण कर दिया। तब भरत, शत्रुध्न सहित ननिहाल गए हुए थे। राजा की रानी कैकेयी से भी इस सम्बन्ध में कोई बात न हो सकी थी।
राज्याभिषेक की तैयारियाँ खूब होने लगीं। गली-बाजार सजने लगे, घर-घर में चहल-पहल और रौनक दिखाई पड़ने लगी, चैराहे जगमगा उठे, बाजा-गाजा बज रहा है, नृत्य-संगीत बराबर चल रहा है, बच्चे-बूढ़े-सब बढ़िया परिधानों में नज़र आते हैं। राज्याभिषेक की तैयारियाँ लगभग मुक़म्मल हैं, इच्छित सामग्री जुटाई जा रही है- बस एक रात बीच में है, कल सुबह होते ही राजतिलक हो जाएगा।
इस दौरान रानी कैकेयी की निजी दासी इस समाचार को सुनती है। वह स्वभाव से ही कुटिल है, कुबुद्धि भी है और किसी को खुश भी नहीं देख सकती। ऊपर से ‘श्री रामचरितमानस” में तो यह भी उल्लेख है कि सरस्वती ने किसी बृहत प्रयोजन की पूर्ति से उसकी बुद्धि को भ्रष्ट किया हुआ था। परन्तु वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई विवरण नहीं है।
मंथरा उन्हीं पैरों महल को लौटती है। उसके मुख पर विशाद की रेखाएं हैं, मुँह उतरा हुआ है, मन खिन्न है, उसकी कड़वाहट बाहर को टपक रही है। कैकेयी उसे देखकर पूछती हैं- ‘क्या हुआ; कुशल तो है?”
’’मेरी और तुम्हारी तो कोई कुशलता नहीं; कुशलता है तो बस आज कौशल्या महारानी की है।’’
और मंथरा ने राम के राज्याभिषेक की ख़बर सुना डाली। जब उसकी यह बात कैकेयी के पास नहीं चली तो उसने पैंतरा बदलते हुए सौतिया डाह जगाने की डगर पकड़ी- ’’आज तुम्हें राम-भरत में अन्तर, कौशल्या के लिए इतना प्यार, इतना विश्वास उमड़ा आ रहा है, कल देखना तुम दासी होगी और वह मालकिन। कल तुमसे वह झाड़ू-पोंछा करवायेगी।’’
इस भावी स्थिति से छुटकारा पाने के लिए अब किया भी क्या जा सकता है। कैकेयी ने कहा -’’मंथरा। हमारे पास समय ही नहीं रहा।’’
इसके लिए भी मंथरा के पास योजना थी। उसने रानी कैकेयी को दो वर माँगने के लिए तैयार कर लिया जिससे भरत अयोध्या का राजा होगा और दशरथ राम को चाैदह वर्ष के लिए वनवास भेजेंगे।
कैकेयी संगदिल, तंग-दृष्टि और कान की कच्ची निकलीं, वह कुटिल-कुबुद्धि दासी के बहकावे में आ गई। सरस्वती ने मंथरा की बुद्धि को भ्रष्ट किया था, उसकी बुद्धि को तो नहीं। उसने इस निर्णय पर पहुँचने से पूर्व किसी से न मंत्रणा की, न किसी से सलाह की, कुल-मर्यादा का ध्यान नहीं किया और तो और उसने यह भी नहीं सोचा कि इसका परिणाम क्या होगा? क्या इस के पश्चात राजा दशरथ जीवित भी रह पायेंगे अथवा इसे भरत किस तरह से लेगा? उसने अपने इस अनुचित निर्णय से राज-परिवार के सुख, शान्ति और समृद्धि को आग की लपटों के हवाले कर दिया। इस फैसले से सभी पक्षों का भारी नुकसान हुआ, शायद सबसे बड़ी हानि तो स्वयं कैकेयी को ही झेलनी पड़ी।
उसको अपना बेटा, भरत ही, ’पापिनी और ’कुल कलंकिनी’ ठहराता है। भरत तो उसे यह भी कहता है,
’’तू बाँझ क्यों न रही। अच्छा होता यदि तुमने मेरा बचपन में ही गला घोंटा होता :
- पापिनी सबहिं भांति कुल नासा।
- जनमत काहे न मारे मोहि।
- गरि न जीह मुंह परेउन कीरा।
- कैकई जठरि जननि जग माहीं।
और अपनी मां से कहता है : आंखि ओट बैठइ जाई।’’
उसी क्षण, भरत कौशल्या माता के पास जाता है। उनके चरणों में लोटता है, रोता है, विलाप करता है, पिता को याद करता है, बार-बार यही कहता है- ’’माता! इसमें मेरा कोई दोष नहीं, कोई हाथ नहीं। यदि हो तो मुझे इस भरे-पूरे संसार में कोई ठौर न मिले, बडे़ से बड़े पाप की सजा मुझे मिले।’’ कौशल्या उसके मन को जानती हैं। वह तो भरत में श्रीराम को देखती हैं। वह तो भरत की माता को भी माफ कर चुकी हैं। सभी कैकेयी को उसके कुकृत्य के लिए क्षमा कर चुके हैं पर भरत जीवन-पर्यन्त कैकेयी को क्षमा नहीं कर पाया।
कैकेयी को फटकार लगाने, कौशल्या से अपने दोष-रहित होने की बात करने और राजा दशरथ की अन्त्येष्टि करने तथा अन्य औपचारिकताओं को पूरा करने के पश्चात भरत श्री राम को लक्ष्मण-सीता सहित अयोध्या लौटा लाने के लिए सम्पूर्ण अयोध्या नगरी सहित वन में पहुँच जाते हैं। इस प्रकार उनके दल-बल सहित आने की खबर सुनकर राम-लक्ष्मण को अटपटा सा तो लगा; लक्ष्मण को बहुत क्रोध भी आया। परन्तु राम तो भरत के मर्म को जानते हैं कि भरत कभी भी दुर्भावना से कोई कार्य नहीं कर सकता। उनको ऐसा विश्वास है।
वन में पहुँच कर भरत राम से अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, यह जानते हुए भी कि यह पिता की आज्ञा का उल्लंघन है। वह यह भी पेशकश करते हैं कि राम-लक्ष्मण के स्थान पर वह शत्रुध्न के साथ वनवास में रहते हैं। वह यह भी कहते हैं कि वह राम की जगह वनवास की अवधि काटने को तैयार हैं। परन्तु धर्म-धुरन्धर और धर्म की धुरी को धारण करने वाले राम अपने वचनों पर अटल रहते हैं। आखिर भरत के आग्रह पर श्रीराम ने उन्हें अपनी पादुका दे दी। भरत ने उसे अपने सिर पर उठा लिया और कहने लगे -’’अयोध्या में पादुका को सिंहासन पर स्थापित करूँगा, इन पर छत्र डुलाऊँगा और इनकी आज्ञानुसार राज्य धर्म का पालन करूँगा :
प्रभु करि कृपा पाँवरि दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं।।
सिंहासन प्रभु पादुका बैठारे निरूपाधि।
चित्रकूट से लौटकर भरत ने नंदिग्राम को राजधानी बना लिया। वहां उन्होंने अपने लिए एक पर्ण-कुटिया बनवाई, उसके फर्श की मिट्टी को खोद कर उस पर घास-फूस-पत्तों की शैय्या बनवाई, आभूषणों और राजकीय वस्त्रों को त्याग कर त्यागी-तपस्वी बनकर वनवासी की तरह वहां रहने लगे :
नंदिग्राम करि परन कुटीरा।
कीन्ह निवासु धरम धुरधीरा।।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी।
महि खनि कुस साँथरी संवारी।
असन वसन बासन ब्रत नेमा।
भरत कठिन रिषि धरम सप्रेमा।।
राम को पिता ने वनवास को भेजा। उसी पिता ने भरत को अवध का राज दिया, परन्तु भरत हैं कि वह राजभोग का परित्याग कर स्वेच्छा से वनवासी बन बैठा। वह पिता के दिये हुए राजभोग के मोह में नहीं फँसता। वह न ताज पहनता है, न तख्त पर बैठता है। वह तो राम के वियोग में उनके अयोध्या लौटने के इन्तज़ार में तिल-तिल जल रहा है। वह तथाकथित रिश्तों की भीड़-भाड़ में भी एकदम एकाकी है, तन्हा है। कैकेयी उसके निकट ही है पर वह उससे कोसों दूर है। उसकी पत्नी माण्डवी का उसके साथ होने का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
राम वनवास में भी सीता और लक्ष्मण के साथ हैं। लगभग ग्यारह वर्ष तक सीता का भी साथ रहा। वनवास के अन्तिम वर्ष में राम ने बहुत दुख झेले हैं। हम सभी ने इन्हें हजारों बार देखा है। इनके बारे में पढ़ा और सुना है। परन्तु भरत के दुखों की दास्ताँ तो न किसी ने कही है, न हमने जानी है। भरत के दुखों को तो केवल महसूस किया जा सकता है। उनके बारे में तो बस कल्पना ही की जा सकती है। परन्तु उनके दुख तो कल्पनातीत हैं।
राम के वनगमन की घटना महत्वपूर्ण है जिसने इस कथा के राम और भरत दो प्रमुख चरित्रों के ऐसे पक्ष प्रस्तुत किये हैं जिनमें ये दोनों नर नारायणत्व को प्राप्त करते हैं। वे दोनों इस धरती के हैं फिर भी वे ऐसा नज़र नहीं आते। वे उदाहरण हैं, आदर्श हैं और अनुकरणीय हैं। इस दुनिया में कोई भी जन ऐसे किरदारों की कल्पना तक नहीं कर सकता। वे दोनों धर्म परायण, महात्मा, महापुरूष, महामानव हैं। फिर भी वे नर हैं। राम तो नर की देह में नारायण हैं। भरत में भी नारायणत्व है।
भरत, राम के चरणों के परम अनुरागी हैं, हनुमान की तरह। भरत जैसा सम्पूर्ण रामकथा में कोई अन्य पात्र नहीं है। इसका प्रमाण स्वयं श्री राम के कथन हैं।
हनुमान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए वह हनुमान से कहते हैं कि वह हनुमान को ’लक्ष्मण से दूना’ प्रेम करते हैं और फिर किसी दूसरे संदर्भ में उन्हीं से कहते हैं-’’हे हनुमान तुम मेरे ’भरतसम’ भाई हो।’’
भरत के लिए ननिहाल से लौटने और राम की अयोध्या वापिसी तक का समय ऐसा था जिसमें भरत ने अपने आप को तप, त्याग और तपस्या की अग्नि में झोंके रखा और उनके तन-मन की अग्नि तब शान्त हुई जब उन्होंने राम की अमानत को राम के हवाले कर दिया। वह अब सुखी हुए। वास्तव में उन्होंने तभी से सुख की सांस लेना आरम्भ किया।
महात्मा भरत महान हैं। उनकी महानता को याद करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कह उठते हैं :
धन्य भरत, धन्य राम गोसाईं ।
प्रो. प्रतिभा गोयल