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आम बजट के राजनीतिक संदेश

आम बजट के राजनीतिक संदेश

आलोचकों की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर वक्त राजनीति के ही मूड में ही रहते हैं। उनकी शख्सियत का यही पक्ष उनके चहेतों की नजर में उनका सकारात्मक आयाम भी है। केंद्रीय राजनीति में मोदी के उभार से ही नैरेटिव के तीरों से उन पर निशाने साधती रही राजनीति के लिए मोदी की सतत राजनीति की यह सूझ उनका बड़ा हथियार भी बन गई है। कहना न होगा कि एक फरवरी को लोकसभा में पेश वित्त विधेयक यानी बजट प्रस्ताव को भी राजनीति के इसे नजरिए से ही देखा जा रहा है। चूंकि बजट के प्रावधान ऐसे हैं, जिनका प्रभाव बहुत गहरा होना है, जो लोकलुभावन भी हैं और राजनीतिक भी, इस वजह से चाहकर भी विपक्ष उसकी तीखी आलोचना नहीं कर पा रहा है। सरकार विरोधी नैरेटिव रचने वाले वर्ग के भी तीर भोथरे नजर आ रहे हैं।

दरअसल बजट प्रावधानों के जरिए मोदी सरकार ने अपने पारंपरिक मतदाताओं को तो साथ रहने का गंभीर संदेश तो दिया ही है, तटस्थ नजर आ रहे मतदाताओं के बड़े वर्ग को भी बजट ने बड़ा संकेत दिया है। संकेत यह कि मोदी सरकार को लेकर उनकी आशंकाएं निर्मूल हैं। आशंकाएं यह कि यह सरकार उनका ध्यान नहीं रखती और उनकी आर्थिकी का असर उस पर नहीं पड़ता। इस संदेश की ताकत और मारक क्षमता को मोदी विरोधी समझ रहे हैं। लेकिन उसके तीखे विरोध का उल्टा पड़ने की आशंका भी है। इसलिए तीखी आलोचना का हथियार वे चाहकर भी नहीं उठा पा रहे हैं।

मोदी सरकार का नारा है, ‘सबका साथ , सबका विकास, सबका विश्वास’। नारों को लेकर मान्यता रही है कि वे सिर्फ मिथ होते हैं, जमीनी हकीकत नहीं। लेकिन लगता है कि इस बार सरकार ने इस सोच को ही गलत साबित करने की ठान ली थी। शायद यही वजह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का आम बजट पहली नजर में ऐसा लग रहा है, मानो वह मोदी सरकार के बहुश्रुत इस नारे को जमीन पर उतारने जा रहा है। राजनीतिक नारों के बारे में यह भी कहा जाता है कि राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल अपने वोटरों की भावनाओं को उभारने और भड़काने में करते हैं, और इसके जरिए वोटों की भरपूर फसल हासिल करते रहे हैं। लेकिन शायद यह पहला मौका है, जब किसी नारे को जमीनी हकीकत बनाने की दिशा में यह बजट आगे बढ़ रहा है और ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को जमीन पर उतारने की गंभीर तैयारी में है।

भारतीय वोटरों में सबसे बड़ी हिस्सेदारी विशाल मध्य वर्ग की है। हाल के वर्षों में संसदीय लोकतंत्र  में सबसे बड़ी हस्तक्षेपकारी भूमिका में यही मध्य वर्ग रहा है। कुछ वर्षों से यह वर्ग सरकार से नाराज था। वैसे उसकी नाराजगी अब तक इतनी गंभीर नहीं रही कि वह मोदी से मुंह मोड़ ले। साल 2014 के चुनावों में यह वर्ग उम्मीदों से लबालब रहा तो 2019 में उद्दाम आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मोदी के पक्ष में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के बटन को दबाने में आगे रहा। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में उसका धैर्य चूकने लगा था। आयकर में छूट सीमा बढ़ाने की मांग जिस तरह टाली जा रही थी, आशंका थी कि इस वर्ग के धैर्य का बांध टूट सकता है। शायद मोदी और निर्मला सीतारमण को इसका भान रहा होगा। शायद यही वजह है कि मौजूदा बजट में आयकर की छूट सीमा बढ़ाकर सात लाख कर दी गई है। ऐसे में नौकरीपेशा मध्य वर्ग का गदगद होना स्वाभाविक है। भारतीय मध्य वर्ग दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता समूह भी है। आयकर में छूट की वजह से संभावना है कि हाथ की मैल यानी अपने पैसे का यह वर्ग जमकर उपयोग करेगा। इसकी वजह से मुद्रा परिचालन बढ़ेगा। जिसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ेगा। कुछ जानकारों का मानना है कि आयकर छूट का यह प्रस्ताव भारतीय आर्थिकी की मशीन में लुब्रिकेंट का काम करने जा रहा है।

चुनावी राजनीति में बड़ी भूमिका निम्न आयवर्ग के लोगों की भी है। बजट के प्रावधान इस वर्ग के लिए भी गंभीर संदेश है। चूंकि पांच खरब की अर्थव्यवस्था बन चुके भारत का लक्ष्य है छह फीसद से ज्यादा की विकास दर हासिल करना। जिसमें रोजगार सृजन की संभावनाएं बड़ी सहयोगी हो सकती हैं। कह सकते हैं कि बुनियादी ढांचे के लिए पिछली बार से करीब एक तिहाई ज्यादा यानी दस लाख करोड़ की रकम की व्यवस्था करना भी अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने का ही प्रयास है। अंतत: इसका फायदा मध्य और निम्न मध्य वर्ग की ही जनसंख्या को ही मिलने जा रहा है। यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय राजनीति का बड़ा आधार किसान रहा है। लेकिन उसकी स्थिति छुपी नहीं है। भारत की करीब 86 फीसद जोत तीन एकड़ से कम है। करीब 68 फीसद जनता की अब भी आजीविका खेती-किसानी के जरिए ही चलती है। उनमें से ज्यादातर आबादी के पास देश की तीन एकड़ से कम जोत है। देश की किसान आबादी में से करीब 82 फीसद की स्थिति गरीबी रेखा से नीचे या उसके आसपास वाली है। मौजूदा बजट प्रस्तावों में इस वर्ग का भी गहरा ध्यान रखा गया है। उनके लिए छोटी रकम भी कितनी महत्वपूर्ण होती है, इसका अंदाजा किसानों के उस बड़े वर्ग की उस वक्त की चेहरे की खुशी को देखकर लगाया जा सकता है। जब उन्हें किसान सम्मान निधि मिलती है। इस निधि के तहत इस बार के बजट में पिछली बार की तुलना में करीब साढ़े छह फीसदी ज्यादा यानी साठ हजार करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। इस मद में अब तक 11.4 करोड़ किसानों को 2.2 लाख करोड़ रूपए दिए जा चुके हैं। जाहिर है किसानों के साथ मोदी सरकार ने तादात्म्य बिठाने की कोशिश की है।

मोदी ने साल 2024 तक देश के गरीबों को छत मुहैया कराने का अपना लक्ष्य पूरा करना तय किया है। इसके तहत कुल दो करोड़ 94 लाख घर दिए जाने हैं। वैसे पिछले साल तक करीब 2.12 करोड़ घर दिए जा चुके हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत तैयार किए जा रहे इन घरों के लिए पिछली बार के 66 हजार करोड़ की तुलना में इस बार 79500 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसके साथ ही जल जीवन योजना के लिए 70 हजार करोड़ का प्रस्ताव किया गया है। गरीबों को स्वास्थ्य सुविधा देने वाली आयुष्मान योजना के लिए पिछली बार के 6457 करोड़ की तुलना में इस बार 7200 करोड़ का प्रावधान किया गया है। साफ है कि इनके जरिए जहां बाजार में पैसा पहुंचेगा, वहीं इसके जरिए रोजगार भी बढ़ेगा। प्रकारांतर से यह पैसा उपभोक्ता बाजार पहुंचेगा, जो उत्पादन की गति देगा। हालांकि मनरेगा के मद में पिछली बार की तुलना में कटौती की गई है। जबकि अपनी शुरूआत के दौर से ही यह योजना गरीबों के लिए कल्याणकारी मानी गई है। हालांकि हकीकत यह है कि पिछले साल सौ दिन की बजाय कहीं लोगों को 53 दिन तो कहीं 51 या पचास फीसद ही काम मिला। कुछ राज्यों में तो यह रकम खर्च भी नहीं हो पाई।

पिछली जुलाई में जब द्रौपदी मुर्मू देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचीं, आदिवासी समुदाय का गौरवबोध बढ़ दिया। उसी समुदाय के लिए विशेष तौर पर पंद्रह हजार करोड़ का इंतजाम, उनके एकलव्य विद्यालयों के लिए 38 हजार 800 अध्यापकों की भर्ती का ऐलान,  इस वर्ग के गौरवबोध को बढ़ाने की दिशा में ही बड़ा कदम माना जा रहा है। वैसे तो पर्यावरण का लगातार खराब होने की वजह औद्योगिक क्रांति ही है। लेकिन इसके मुद्दे अभिजात्य वर्ग को कहीं ज्यादा लुभाते हैं। हाइड्रोजन ट्रेन को बढ़ावा देना, सतत ऊर्जा के उत्पादन पर जोर और बैटरियों के उत्पादन में लगने वाले उपकरणों पर कर छूट का फायदा ना सिर्फ पर्यावरण को मिलेगा, बल्कि अभिजात्य वर्ग की आत्मा भी इससे तुष्ट होगी और इनसे जुड़ी चीजों के उत्पादन-विपणन से जुड़े लोगों को प्रत्यक्ष आर्थिक फायदा भी होगा।

मोदी सरकार की योजना है, छह फीसद के विकास दर को हासिल करना। अमृत काल में देश के विकास को गति मिले और सामाजिक-आर्थिक खांचों में बंटी जनसंख्या भी तुष्ट हो, इस बजट की अहम कोशिश मानी जा रही है। जब चुनाव सिर पर हों, तो ऐसे कदम ना उठाना राजनीतिक हाराकिरी ही मानी जाती है। मौजूदा साल में नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। इसके अगले साल आम चुनाव है। ऐसे में हर सत्तानशीं चाहेगा कि लोक का समर्थन उसके साथ बना रहे। इसके लिए उसे लोकलुभावन फैसले लेने ही पड़ेंगे। राजनीति जिस मुकाम पर है, वहां ऐसे कदम उसकी मजबूरी भी हैं। इस मजबूरी से हर राजनीतिक दल आक्रांत रहता है। इसलिए उसे ऐसे कदम उठाने ही पड़ते हैं। अंतर बस इतना है कि जब वह दल सत्ता में रहता है तो इसे सेवा साबित करने की कोशिश करता है और जब विपक्ष में होता है तो वह आलोचक की मुद्रा में रहता है। ऐसे में नरेंद्र मोदी राजनीति कर रहे हैं तो इसे न तो अनपेक्षित माना जा सकता है और न ही अनुचित। बहरहाल इस बजट के राजनीतिक संदेश साफ हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक खांचे में बंटे ज्यादा से ज्यादा वोटरों का साथ हासिल करना भी इस बजट का महत्वपूर्ण संदेश है। बजट के जरिए भारत के विशाल मध्य वर्ग और कमजोर तबके को मोदी सरकार ने गंभीर संदेश दिया है। संदेश यह है कि सरकार ना सिर्फ उनके साथ है, बल्कि उसका सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास महज नारा नहीं, हकीकत है।  ऐसी हकीकत, जिसके जरिए लोगों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव आए।

 उमेश चतुर्वेदी

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