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पंजाब में कानून-व्यवस्था ताक पार : राज्य में खालिस्तान की आहट से राज्य और केंद्र के लिए बड़ी चुनौती

पंजाब में कानून-व्यवस्था ताक पार : राज्य में खालिस्तान की आहट से राज्य और केंद्र के लिए बड़ी चुनौती

देशहित के बजाय राजनीतिक हितों को प्राथमिकता, हालात की अनदेखी और कानून-व्यवस्था की ढील के अंततः क्या परिणाम होते हैं, इसका उदाहरण आज का पंजाब है। पंजाब में आज जो कुछ भी हो रहा है, इसकी शुरुआत ऐसी छोटी-छोटी घटनाओं में छिपी है जिनकी अनदेखी की गई। पंजाब में पिछले कुछ वर्षों से हिंदू संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं या नेताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रविंद्र गोसांई एवं ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा (सेवानिवृत्त), डेरा सच्चा सौदा से जुड़े सतपाल एवं उनके बेटे रमेश कुमार, हिंदु तख्त के अमित शर्मा और शिवसेना के दुर्गा प्रसाद गुप्ता उन लोगों में शामिल है जिन पर निशाना साधकर उनकी हत्या की गई। इसके अलावा सिख प्रचारक रणजीत सिंह ढडरियांवाले के काफिले पर भी गोलीबारी की गई, हालांकि वह इससे बच गए जबकि उनका एक साथी मारा गया। आरएसएस स्वयंसेवक नरेश कुमार की भी गोलीबारी से बाल-बाल जान बची।

सरकारों द्वारा इन घटनाओं की अनदेखी की गई और एकाध गिरफ्तारी को छोड़कर ज्यादातर मामलों में हमलावर कानून की चंगुल से बाहर हैं। ऐसे में पंजाब में अलगाववादी तत्वों के हौसले बुलंद हुए और कथित तौर पर पंथ के हितैषी भारत को चुनौती देने लगे और अलगाववाद की आग भड़काने लगे। इसकी परिणति पटियाला में काली माता मंदिर पर हमले के रूप में हुई। हिंसा का यह दौर भारत तक ही सीमित नहीं है। विदेशों में भी खालिस्तानी एजेंडे के विरुद्ध खड़े होने वाले लोगों पर जानलेवा हमले किए गए हैं। इस कड़ी में न्यूजीलैंड में अकसर भिंडरावाले के खिलाफ बोलने वाले हरनेक सिंह नेकी पर हमला किया गया, हालांकि उनकी जान बच गई।

खालिस्तान आतंकवाद के चलते देश ने प्रधानमंत्री, पूर्व सेनाध्यक्ष तथा प्रदेश के मुख्यमंत्री का बलिदान दिया है। इसके अलावा असंख्य निर्दोष लोग और पुलिसकर्मी भी आतंकवादियों की बर्बरता के शिकार हुए हैं, ऐसे में अगर पंजाब या विदेश में कहीं से भी इसे समर्थन मिलता है तो यह खतरे की घंटी है। दिल्ली में कथित किसान आंदोलन के दौरान खालिस्तान समर्थकों ने इस आंदोलन में घुसपैठ की। आंदोलन के दौरान ही बेअदबी के नाम पर की गई हत्या से यह सिद्ध हो गया कि आंदोलन में कट्टरपंथी तत्व किस हद तक घुस चुके थे। आंदोलन खत्म होने के बाद भी बेअदबी का उन्माद बरकरार रहा। स्वर्ण मंदिर अमृतसर में कथित बेअदबी के कारण युवक की हत्या की गई। अमृतसर में हुई हत्या के मामले में पुलिस की तरफ से अभी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इस तरह कट्टरपंथियों को कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत दिए जाने के कारण हालात लगातार बिगड़ रहे हैं। बता दें कि सत्तर के दशक में पंजाब में आतंकवाद की शुरुआत कथित बेअदबी के मामलों और निरंकारी डेरों पर हमलों से हुई थी।

अगर आज के हालातों की बात की जाए तो भिंडरावाले को दोबारा नायक के रूप में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस विमर्श पर भिंडरावाले समर्थकों के आगे हथियार डाल रखे हैं। पंजाब को हिंसा से शांति की तरफ लाने वाले केपीएस गिल जैसे पुलिस अधिकारी आज पंजाब में विलेन हैं और हिंदूओं की मारकाट की धमकी देने वाले खलनायक हैं। पंजाब को इस हालात तक पहुंचाने के लिए मात्र किसी एक पार्टी का दोष नहीं है। 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में जो कुछ भी हुआ, आखिरकार उसे रोकना किसकी जिम्मेदारी थी। आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाने वाले खालिस्तान समर्थकों के विरुद्ध सरकार बेबस नजर आई। इसी तरह फिर चंडीगढ़ में कौमी इंसाफ मोर्चे के प्रदर्शन के दौरान भी पुलिस पर हमला किया गया और पुलिस की गाड़ियों पर हमला हुआ। यहां भी पुलिस हिंसक भीड़ के आगे बेबस नजर आई। ऐसे में जब पुलिस हमलावर लोगों के आगे बेबस है तो आम आदमी पर इसका क्या असर पड़ा होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इन दोनों मामलों में पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है और हिंसा पर उतारू भीड़ के आगे अगर पुलिस बेबस थी तो इसके लिए भाजपा की जिम्मेदारी है।

इसी तरह वर्तमान में चल रही खालिस्तानी गतिविधियों और उसके प्रति पंजाब की आम आदमी पार्टी का ढुलमुल रवैया भी काफी खतरनाक है। अजनाला हिंसा के बाद मुख्यमंत्री मान ने गुरु ग्रंथ साहिब का सहारा लेने की आलोचना की लेकिन अभी तक किसी एक भी आरोपी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। भिंडरावाले 2.0 कहे जाने वाले अमृत पाल के नेतृत्व में अजनाला में जिस तरह हिंसा हुई है, यह पंजाब में आतंकवाद के दौर से पहले उसी काले दौर की याद दिलाती है जब पुलिस को जानबूझकर हिंसक तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई करने से रोका गया। पुलिस ने दबाव में अमृत पाल के किसी साथी को हिरासत से छोड़ा है। इस मामले में सीधा सा कानूनी प्रश्न है कि किसी मामले में हिरासत में लिए गए व्यक्ति को रिहा करने का काम न्यायालय का है या पुलिस का। अगर पुलिस ही ताकतवर के आगे इस तरह नतमस्तक है तो फिर आम आदमी सुरक्षा और न्याय के लिए कहां जाए।

छोटी-छोटी घटनाओं में ही बड़े बवाल के बीज छिपे होते हैं। 13 अप्रैल 1978 को निरंकारियों ने अमृतसर में जुलूस निकाला। इसके विरुद्ध सिखों के दो समूहों अखंड कीर्तनी जत्था और दमदमी टकसाल के अनुयायियों ने भी जुलूस निकाला। इसके बाद दोनों तरफ टकराव में हुई गोलीबारी में 15 लोग मारे गए। इस घटना से पंजाब में आतंकवाद की शुरुआत हुई। ऐसे आरोप लगते हैं कि अकाली दल पर नकेल कसने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाले को खड़ा किया। तब इंडिया टुडे में कार्यरत शेखर गुप्ता लिखते हैं कि कांग्रेस ने भिंडरावाले को हथियारों समेत दिल्ली में दनदनाने दिया। उनका अनुमान है कि भिंडरावाले की शुरुआत में कांग्रेस ने उसे बढ़ावा दिया। कुछ ऐसा ही इतिहास अमृत पाल के मामले में दोहराया जा रहा है। हिंसा, हिंसा की धमकियों और देश के गृहमंत्री को अप्रत्यक्ष रूप से मारने की धमकियों के बीच राज्य और केंद्र सरकार मानो मूकदर्शक बने हुए हैं। सरकारों को चाहिए कि समस्या का शुरुआत में ही हल निकाला जाए, चिंगारी को आग बनने देना समझदारी नहीं है।

उम्मीद की किरण

पंजाब में अगर हालात खराब करने वाले लोग सक्रिय हैं तो ऐसे लोगों के खिलाफ भी आवाजें उठ रही हैं। सिख प्रचारक भाई रणजीत सिंह टड़रियां वाले और सर्बजीत सिंह धुंधा ने अजनाला हिंसा का खुलकर विरोध किया। इसी तरह प्रदेश में कांग्रेस भी अमृत पाल की हिंसा और अलगावादियों के खिलाफ खुलकर मैदान में आ गई है। पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष अमरिंदर राजा वडिंग ने कहा कि आतंकवाद के समय में भी थाने पर कब्जा नहीं हुआ था. सरकार को अजनाला  घटना करने वालों पर करवाई करनी पड़ेगी। पार्टी ने यहां तक कहा कि अगर अमृतपाल और उसके समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो पार्टी सड़कों पर उतरेगी।

 


प्रेरणा कुमारी

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