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हिंसा और अलगाववाद के बीच पंजाब की बढ़ती चुनौती

हिंसा और अलगाववाद के बीच पंजाब की बढ़ती चुनौती

16 मार्च 2002 को पूर्व कॉमेडियन भगवंत मान की अगुआई में नवेली आम आदमी पार्टी ने जब सीमाई राज्य पंजाब की सत्ता संभाली थी, तब राज्य के लोगों का उत्साह अपने उफान था। सूबे की दो पुरानी पार्टियों शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस को नकार कर राज्य के लोगों ने दो तिहाई बहुमत से सत्ता सौंपी थी। तब राज्य के लोगों की आंखों में सपने थे देश के सबसे उपजाऊ राज्य के फिर से समृद्ध बनाने और राज्य की तमाम समस्याओं के समाधान के लेकिन एक साल बीतते-बीतते पंजाब के जो हालात हैं, वे लोगों के सपनों की तुलना में कुछ अलहदा हैं। पंजाब पिछली सदी के अस्सी के दशक की तरह हिंसा की ओर से लगातार बढ़ रहा है। इसके पीछे पंथ का भी मुलम्मा चढ़ता जा रहा है। कहीं न कहीं इस हिंसा में अलगाववाद की जड़ें भी दिख रही हैं।  और पंजाब की सरकार इस हिंसा के सामने लगातार लाचार नजर आ रही है। इसकी वजह से लोग आशंकित हैं कि अगर वक्त रहते पंजाब को संभाला नहीं गया तो यह सीमावर्ती सूबा एक बार फिर अशांति की अंधेरी खोह में जा सकता है, जिसका खामियाजा यहां के उन लोगों को चुकाना पड़ सकता है।

पंजाब में हिंसा तो भगवंत मान के सत्ता संभालने के करीब डेढ़ महीने बाद ही शुरू हो गई थी। 29 मई 2022 को राज्य के मशहूर रैप गायक सिद्धू मूसेवाला की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। कहा गया कि यह म्यूजिक माफिया और अलगाववादियों के गैंग की मिलीभगत इस हत्या के पीछे थी। छह शूटरों की पहचान हुई। वैसे सही मायने में हिंसा के समर्थकों ने पंजाब की नवेली सरकार को नौ मई 2022 को चुनौती दे डाली थी, जब पंजाब पुलिस की खुफिया यूनिट के मुख्यालय पर रॉकेटों से हमला किया गया। जिस पंजाब पुलिस ने केपीएस गिल के नेतृत्व में पंजाब से आतंकवाद का सफाया किया, वही पुलिस हिंसा के इस दौर के सामने लाचार नजर आ रही है। इस लाचारगी की वजह है वहां की सरकार की नीतियां और उनमें शामिल लोग। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान जिस तरह के लोगों से आम आदमी पार्टी के रिश्ते सामने आए थे, आम आदमी पार्टी की फंडिंग के किस्से दबी जुबान से जिस तरह चुनाव अभियान के दौरान कहे जा रहे थे, उससे राज्य की राजनीति और समाज के जानकार आशंकित थे। उन्हें लगता था कि अलगाववादियों के परोक्ष समर्थन वाले लोगों के सहयोग से अगर राज्य में सरकार आई तो उसका नतीजा बेहतर नहीं होगा।

यह आशंका सच साबित होने लगी है। बीती 23 फरवरी को इसका चरम दिखा, जब 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान राज्य के जिस अजनाला शहर में तत्कालीन 26वीं इन्फैंट्री के जवानों ने विद्रोह करके अपना और शहर का नाम रोशन किया था, जहां इस विद्रोह का अंग्रेज सरकार ने नृशंस दमन किया, उसी अजनाला शहर में ‘वारिस दे पंजाब” नामक संगठन के लोग इसके जत्थेदार अमृतपाल सिंह की अगुआई में तलवार, डंडे और कृपाण से लहराते लोग थाने में घुस आए। पुलिस के लगाए बैरिकेड भी काम नहीं आए। उग्र लोगों ने उसे उखाड़ फेंका और घंटों तक थाने को बंधक बनाए रखा। जत्थेदार की अगुआई वाली भीड़ वहां 17 फरवरी से गिरफ्तार नामजद अभियुक्त लवप्रीत को छुड़ाने की मांग कर रही थी। लवप्रीत को अपहरण के मामले में गिरफ्तार किया गया था। लवप्रीत को छोड़ने के लिए पुलिस को मजबूर होना पड़ा। भीड़ ने पुलिस वालों की पिटाई भी की। पुलिस को लवप्रीत को रिहा करने और उस पर चल रहे मुकदमे खत्म करने का खुला ऐलान तक करना पड़ा। यहां यह बता देना जरूरी है कि ‘वारिस दे पंजाब” खालिस्तान समर्थक संगठन है।

अमृतपाल सिंह के बारे में माना जा रहा है कि उसे अलगाववादी ताकतों की शह पर अगले जनरैल सिंह भिंडरवाला की तरह पेश किया जा रहा है। 29 सितंबर 2022 को उसे भिंडरवाला के गांव रोडे में भिंडरवाला की याद में बने ‘गुरूद्वारा संत खालसा” भिंडरवाले के ही याद में बने संगठन ‘वारिस दे पंजाब” का नया जत्थेदार घोषित किया गया। इसके बाद से ही उसके हौसले बुलंद हैं।

पंजाब के माहौल में पंथक राजनीति का माहौल हमेशा से रहा है। कभी उसकी रेडिकल धारा का प्रतिनिधित्व सिमरन जीत सिंह मान करते थे। भिंडरवाला भी उसी धारा का प्रतिनिधि रहा है। जब तक समाज में शिरोमणि अकाली दल-बादल का प्रभाव रहा, तब तक पंथिक राजनीति के उग्र धड़े को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं मिल पाई। सिवा आतंकवाद के दौर के कभी उग्र पंथक राजनीति नहीं पनप पाई। लेकिन शिरोमणि अकाली दल बादल का प्रभाव घटने के बाद रेडिकल धड़े को आगे बढ़ने का मौका मिला। हाल के वर्षों में अपनी राजनीति चमकाने के लिए जिस तरह आम आदमी पार्टी ने राज्य की राजनीति में अलग-थलग पड़े रेडिकल धड़ों से भी हाथ मिला लिया। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर कभी ना तो उनका साथ स्वीकार किया और ना ही उनका हाथ थामा। इस राजनीति ने अपनी ताकत किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली में दिखाई। किसान आंदोलन को विदेश स्थित अलगाववादी धड़ों का जबरदस्त समर्थन मिला। उन्होंने आर्थिक मदद की और पंजाब के किसानों को आगे कर दिया। उस दौरान भी पंजाब की राजनीति का रेडिकल पंथिक धड़ा ही आगे दिखा। पंजाब में तब कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन उस सरकार ने भी राजनीतिक हितों और केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार को घेरने के लिए किसान आंदोलन का साथ दिया। कांग्रेस को उम्मीद थी कि इसके असर से उसकी सत्ता बरकरार रहेगी। लेकिन उसकी सत्ता नहीं रही। आम आदमी पार्टी का धड़ा मजबूत हो गया। जब आम आदमी पार्टी सत्ता में आ गई तो अलगाववादी और पंथिक राजनीति के घालमेल का उत्साह बढ़ गया। इसका ही असर है कि अब पंजाब पुलिस पर पंथिक राजनीति का दबाव बढ़ने लगा है और पुलिस लाचार नजर आने लगी है। दरअसल पुलिस को भी पता है कि राज्य की सत्ता के पीछे इस पंथिक राजनीति का भी साथ है, इसलिए पुलिस के अवचेतन में यह बात घर कर गई है कि यह सरकार कठोर कदम उठाने से बचेगी। इससे पंजाब पुलिस का मनोबल कमजोर पड़ा है। जिसका हश्र सामने दिख रहा है।

अमृतपाल को लोकप्रियता की भी अपनी कहानी है। किसान आंदोलन के दौरान लाल किले पर पंथिक झंडा फहराने वाले पंजाब के आंदोलनकारी दीप सिद्धू जब चौतरफा घिरा हुआ था, तब अमृतपाल ने फेसबुक लाइव करके दीप का समर्थन किया था। इसके बाद अमृतपाल पंजाब के युवाओं में लोकप्रिय हो गया था। क्योंकि किसान आंदोलन के दौरान युवाओं में गुस्सा बहुत ज्यादा था। कहना न होगा कि 23 फरवरी के प्रदर्शन में इसी लोकप्रियता से हासिल युवाओं की उपस्थिति ज्यादा थी। 23 फरवरी को हुए प्रदर्शन में प्रदर्शनकारी सिर पर गुरूग्रंथ साहिब लेकर पहुंचे थे। पुलिस का मानना है कि गुरू ग्रंथ साहिब को ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया। इसे लेकर आम आदमी पार्टी पर भी सवाल उठ रहे हैं। हालांकि आम आदमी पार्टी खुद को राष्ट्रभक्त पार्टी बताते हुए कह रही है कि किसी भी कीमत पर वह राष्ट्र की एकता पर आंच नहीं आने देगी।

हालांकि जमीनी हकीकत कुछ और ही है। बीते साल पांच नवंबर को अमृतसर में खुलेआम शिवसेना-टकसाली के नेता सुधीर सिंह सूरी की हत्या हुई तो दस नवंबर को डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी प्रदीप सिंह की कनाडा में रह रहे माफिया गोल्डी बराड़ के इशारे पर की गई। अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हैं, इसका उदाहरण बीते नौ दिसंबर को मिला, जब तरनतारन के पुलिस स्टेशन पर राकेट से हमला किया गया। हर हत्या के हाथ कनाडा में बैठे गैंगों से जुड़े मिल रहे हैं।

पंजाब में हाल के दिनों में कट्टरपंथी पंथिक राजनीति फैल रही है। निश्चित तौर पर इसका मनोबल  आम आदमी पार्टी की सरकार के आने के बाद बढ़ा है। लवप्रीत की रिहाई की मांग कोई पहली बात नहीं है। एक और खालिस्तानी संगठन कौमी इंसाफ मोर्चा के प्रमुख गुरूचरण सिंह हवारा जनवरी से ही अपने बेटों की रिहाई की मांग कर रहे हैं। यहां यह बता देना जरूरी है कि हवारा पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के लिए दोषी ठहराए गए जगतार सिंह हवारा के पिता हैं। गुरूचरण सिंह का कहना है कि बेअंत की हत्या के दोषी को भी छोड़ा जाना चाहिए। दिलचस्प यह है कि यह मांग लेकर कौमी इंसाफ मोर्चा के समर्थकों ने इसी फरवरी में भगवंत मान के चंडीगढ़ स्थित सरकारी आवास को घेरने की कोशिश की थी तो उस दौरान हुई झड़प में तीस पुलिस वाले घायल हुए थे। इस बीच पंजाब में गिरोहबाजी भी बढ़ रही है। उन्हें विशेषकर कनाडा में रह रहे अलगाववादी संगठन समर्थन दे रहे हैं। इसलिए पंजाब पुलिस की चुनौतियां बढ़ रही हैं।

अजनाला की घटना ने केंद्र सरकार को भी चिंतित कर दिया है। वैसे सीमा पार की आईएसआई हमेशा से पंजाब में हालात खराब करने की कोशिश में रही है। हालांकि पाकिस्तान की अभी माली स्थिति ठीक नहीं है, इसलिए आईएसआई से आर्थिक सहयोग की गुंजाइश नहीं है। लेकिन हथियार और मनोबल के साथ ही रणनीतिक सहयोग दिया जा सकता है। इसके लिए उसे पंजाब में अशांत माहौल मददगार साबित होगा। आम आदमी पार्टी की सरकार इस तथ्य को भले ही समझती हो, लेकिन वह अशांति पर काबू पाने की दिशा में ठोस पहल करती नहीं दिख रही है। मौजूदा लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था में अब अतीत की तरह केंद्र सरकार सीधे दखल नहीं दे सकती। इसलिए पंजाब की चुनौती और भी गंभीर बन जाती है। ऐसे में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भगवंत मान सरकार की बनती है कि वह हालात से निबटने से लिए प्रभावी रणनीति बनाए। चुनावी फायदा दिलाने वाली अलगाववादी ताकतों से दूरी बनाएं और पंथिक राजनीति में अपनी पैठ बढ़ाएं। दूसरी तरफ विपक्षी दलों को भी देखना होगा कि वे अपने राजनीतिक हितों के लिए ऐसे कदम ना उठाएं, जिससे गुर्गों, अलगाववादियों और विदेशी ताकतों को मदद मिले और पांच नदियों वाले पंजाब में पिछली सदी के अस्सी के दशक का इतिहास ना दोहराया जा सके।

 

 

उमेश चतुर्वेदी

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