
जब भी कोई बात शक्तिशाली संस्थाओं या राजनैतिक पार्टियां के मध्य चर्चा का विषय बनती है या मतभेद चरम सीमा पर पहुंचने लगते हैं तो सभी एक बात पर अवश्य एकमत होते हैं कि हमें संविधान पर भरोसा है। देश संविधान से चलना चाहिये यानि संविधान के विरूद्ध कोई भी बोलता दिखाई नहीं दिया। कोई बात संवैधानिक है या नहीं, इसका फैसला तो न्यायालय ही करेंगे क्योंकि कानून या कहें तो संविधान के ज्ञान में वही विशेषज्ञ माने गये हैं। स्वयं न्यायालय को अपने पक्ष में बोलकर अपनी गरिमा का बखान करते हुये अपनी शक्तियांे को प्रदर्शित करना पड़ जाये तो कुछ अजीब लगेगा ही। एैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होना चाहिये। इसको रोकने का कर्तव्य हम सबका है, न्यायालय का नहीं। हिन्दुस्तान के प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक संस्था का कर्तव्य है कि वह न्यायालय को उचित सम्मान के साथ उसकी गरिमा बनाये रखें, उस पर भरोसा करे। खासतौर से राजनैतिक पार्टियां जो उनके पक्ष में निर्णय आते तो निर्णय का स्वागत और गुणगान करना यदि उलट में आये तो न्यायालय के ऊपर तीखी अनुचित टिप्पणियां करना।
संसद से बनें संवैधानिक कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त कर देता है जब कोई कानून संवैधानिक मंशा के अनुसार नहीं लगता या स्वयं से उसे परिभाषित करके कोई परिवर्तन जोड़ने या घटाने की बात करें तब क्या हो, ये प्रश्न सदा उठते रहे हैं। इसका सबसे सटीक उदाहरण है शाहबानों का केस जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चलनें या उसे माननें के बजाय राजीव गांधी की सरकार ने संविधान की धाराओं को संसद द्वारा बदल कर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को नकार दिया था। तब एक केन्द्रीय मंत्री, वर्तमान में केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के उस निर्णय पर विरोध जताया था और उनकी बात नहीं माने जाने पर उन्होनें मंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया था। एैसी स्थिति में तो संसद ही शक्तिशाली हुयी। संसद ने इस तरह सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही निरस्त कर दिया, संविधान में एैसी व्यवस्था है। अतः लोकसभा को सुप्रीम कोर्ट से अधिक शक्तिशाली माना गया। तब सुप्रीम कोर्ट अपनी बात नहीं मनवा पाया।
किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को हटानें या उसे सजा देने की शक्ति भी केवल संसद को ही है। इस शक्ति का उपयोग कर दो तिहाई बहुमत से संसद द्वारा महाभियोग लगा कर प्रस्ताव पारित कर किसी भी न्यायधीश को सजा दी जा सकती है। संविधान निर्माताओं ने जहां सुप्रीम कोर्ट को सबसे शक्तिशाली संस्था बनाया तो भी उसकी अंतिम जवाबदेही जनता द्वारा चुनी गयी संस्था या देश चलानें वाली संसद को दी। इस बात को स्वयं सुप्रीम कोर्ट को भी समझना चाहिये। बहुत से जनहित या देशहित में लिये गये निर्णय ऐसे हो सकते है जो कोर्ट की नजर में कानून सम्मत या सही न दिखाई दे रहे हों पर संविधान के प्रतिकूल न हो।
स्ंासद द्वारा बनाये गये कोई भी कानून की व्याख्या कर उसका स्वरूप सुधारने या उस पर आपत्ति लगानें का काम सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में होना बिल्कुल सही है। क्योंकि कानून बनाने वाली संसद कानून की विशेषज्ञ नहीं है और संसद में बहुमत रखने वाली पार्टी की सरकार अपने हित में कानून बनाकर या राष्ट्रपति से कोई आर्डिनेंस लगवा कर अपना हित या स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश कर सकती है। विगत में एैसा हुआ भी है जब 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपातकालीन या इमरजेंसी लगा कर किया था। यह उन्होनें अपने व्यक्तिगत हित के लिये किया था क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें लोकसभा की सदस्यता से उन पर चुनाव में गैर कानूनी साधनों का उपयोग करने पर हटा दिया था। कानून की व्याख्या तो कोर्ट ही करेगी, ये सारी शक्तियां संविधान ने कोर्ट को ही प्रदत्त की हैं पर कार्य प्रणाली या प्रशासनिक तौर तरीके संविधान द्वारा सरकार को प्रदान किये गये हैं। इस पर किस सीमा तक कोर्ट को जाना होगा, स्वयं कोर्ट को खुद अपने अंतर्मन में खड़ा होकर विचार करना चाहिये ताकि द्वंद की पस्थितियों से छुटकारा मिल सके।
उच्च सरकारी अफसरों की नियुक्तियांे में, स्वयं न्यायाधीशों का, चयन समतियों का हिस्सा बनना कहां तक उचित है, ये अत्यंत गंभीर और विचारणीय विषय है। धीरे-धीरे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के सम्मलित होने का दायरा बढ़ता जा रहा है। सी.बी.आई. डायरेक्टर के बाद अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के चयन में मुख्य न्यायाधीश को सम्मिलित होने का निर्णय खुद उच्चतम न्यायालय ने लिया। अब हो सकता है कल यही स्थिति ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की चयन प्रक्रिया में लागू की जाये।
यदि चयन समिति द्वारा गलत निर्णय लिया जाता है तो उसे न्यायालय में चेलेंज किया जा सकता है और सरकार द्वारा गलत चयन किये जाने पर कोर्ट उसे निरस्त कर सकती है। लेकिन नयी पद्वति के अनुसार गलत चयन होने पर कोई भी न्यायालय मुख्य न्यायाधीश के खुद चयन समिति में सम्मलित होने के कारण उसे निरस्त करने में संकोच करेगा। एैसी परिस्थितियांे में न्यायालय के दरवाजे बन्द हो जायेंगे। इसी तरह विश्वविद्यालयों के कुलपति के चयन में हाईकोर्ट के न्यायाधीश को सम्मिलित किया जाना उचित है कि नहीं, इस पर भी विचार किया जाना चाहिये। एेसा पाया गया है कि जिस चयन समिति में हाईकोर्ट के न्यायाधीश सदस्य थे, उसके द्वारा चयनित कुलपति भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपो में फंसे और हटाये गये। लेकिन चयन समिति को या उसमें सिम्मलित जज को कभी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसी तरह सरकार को भी बिना प्रमाण के चुनाव आयुक्तों के चयन करने पर कैसे उंगली उठायी जा सकती है। महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बैठने वाले अधिकारियों के चयन में न्यायाधीशों की सीमा बढ़ती जायेगी क्योंकि यही बात फिर प्रदेश के उच्च पदों पर आसीन होने वाले अफसरों के चयन में भी उनका सम्मिलित होना आवश्यक लगेगा।
उदाहरण के तौर पर सी.बी.आई. डायरेक्टर और केन्द्रीय चुनाव आयुक्तों के चयन में न्यायाधीश सिम्मलित होते हैं, इसी तरह फिर प्रदेश स्तर पर क्यों नहीं। प्रदेशों में भी कानून व्यवस्था के पुलिस मुखिया और मुख्य सचिव के चयन में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को सिम्मलित किया जा सकता है। प्रदेश के चुनाव आयुक्त के चयन में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति के आदेश भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के आधार पर हाईकोर्ट कर सकती है और स्वयं मुख्य न्यायाधीश खुद को चयन समिति में सम्मलित करने के आदेश कर सकते हैं।
प्रदेश में पुलिस की शक्तियां अधिक हैं और देश भर की कानून व्यवस्था प्रदेशों की पुलिस के पास हैं। चुनाव प्रक्रिया में भी पारदर्शिता लाने के लिये प्रदेशों में चुनाव आयुक्तों के चयन में हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की आवश्यकता भी लगने लगेगी। सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति विशुद्ध रूप से प्रशासनिक मामला होने के कारण ये कार्य चुनी हुयी सरकार का कर्तव्य है। हां, यदि इसमें कमी या पक्षपात पाया जाये तो कोर्ट इसे संज्ञान लेकर भी निरस्त कर सकती है। कोर्ट चाहे तो चयन के नियम प्रक्रिया प्रणाली, आदि में संशोधन और बदलाव कर सकती है। यदि न्यायाधीशों को सरकारी अफसरों की चयन समिति का हिस्सा बनाना है तो एैसे निर्णय पर संवैधानिक पीठ को ही विचार कर निर्णय लेना उचित होगा।
डॉ. विजय खैरा