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मुद्दों की भटकान में राई का पहाड़

मुद्दों की भटकान में राई का पहाड़

हमारी पालिटिक्स में कोई भी मुद्दा इतना छोटा नहीं कि उस पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा न किया जा सके। संसद में कोई हँगामा न खड़ा कर दिया जाए, संसद न चलने दी जाए। दुकानें, सरकारी संपत्ति, रेल व सड़क यातायात अवरुद्ध न किया जा सके। सरकारी संपत्ति की होली न जलाई जा सके। हिंसा भी इसका आवश्यक अंग है। जितनी अधिक हिंसा होगी, तोड़-फोड़ होगी और जनता को परेशानी होगी, वही किसी जन आंदोलन की सफलता का मापदंड होता है।

अभी हाल ही के अडाणी मुद्दे को लीजिये। कुछ विपक्षी पार्टियां मांग कर रही थीं कि अन्य  सब विधायी कार्य छोड़ पहले इस मुद्दे पर चर्चा की जाए। संसद में उनके लिए यह मुद्दा अन्य  सब कामों से सर्वोपरि है। व्यवस्था तो यह है कि पहले माननीय राष्ट्रपति महोदय के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में दिये गए अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा हो और उसके बाद मतदान। करने को तो राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान अडाणी समेत किसी भी विषय पर बोला जा सकता था। पर विपक्ष अड़ा हुआ था कि वह पहले केवल अडाणी के विषय पर ही चर्चा चाहते हैं। वह इस सारे विवाद को संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिये जाने या उच्चतम न्यायालय की निगरानी में इसकी जांच चाह रहे थे । उनका तर्क था कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने अडाणी समूह के शेयर उस समय खरीदे जब इनकी कीमत शेयर बाज़ार में बहुत कम थी। दोनों सदनो में इस कारण सब काम ठप्प हो जाने के कारण जनता के करोड़ो रुपये का भारी नुक्सान हो रहा था, इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं थी क्योंकि उनके अपने सब वेतन, भत्ते, सुख-सुविधाएं और विशेषाधिकारों पर कोई आंच नहीं आ रही थी।

क्या है मामला? : इस सारे विवाद की तकनीकियों में न उलझते हुए आम साधारण भाषा में ही इसे समझने का प्रयास करना ठीक लगता है। तकनीकी गहराइयों में जाने केलिए तो अनेक संस्थाएं हैं जो इस मामले की गहराइयों में जा सकती हैं। कुछ पक्षों ने तो उच्चतम न्यायालय का दरवाजा भी खट-खटा दिया है। न्याय तो वहाँ से मिल ही जाएगा।

सब से पहले तो आम जनता को इतना ही समझना ठीक रहेगा कि अभी तक किसी व्यक्ति, बैंक या संस्था ने इस में किसी घोटाले का आरोप नहीं लगाया है। दूसरी ओर किसी बैंक, जीवन बीमा निगम या अन्य किसी वित्तीय संस्था ने अडाणी या उनसे संबन्धित किसी इकाई पर किसी वित्तीय या दंडनीय अपराध की बात नहीं उठाई है। सभी बैंक और जीवन बीमा निगम यही कह रहे हैं कि इस समूह को दिये गए ऋण की किस्तें उन्हें लगातार समय पर मिल रही हैं।

अडाणी ने अपने FPO को निरस्त कर दिया है और जिसने भी इसमें पैसा लगाया था उसे पूरा लौटा देने की घोषणा कर दी है । तो फिर नुकसान किसका और कैसे हुआ? यदि हुआ तो केवल अडाणी का। जनता का कैसे कुछ गया?

सस्ते शेयर :  जीवन बीमा निगम, स्टेट बैंक आदि बैंकों द्वरा अडाणी की कुछ इकाइयों के शेयर सस्ते भाव खरीदने का आरोप तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। शेयर बाज़ार की थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले सब जानते हैं कि शेयर बाज़ार में किसी भी कंपनी के शेयर तब खरीदे जाते हैं जब उनकी मार्केट में कीमत कम हो। बाद में वह इन्हें बेच कर लाभ कमाते हैं जब उनकी कीमत बढ़  जाती है। तो इस से उन इकाइयों को लाभ हुआ या हानि?

विदेशों में, विशेषकर यूरोप और अमरीका में, जब कोई व्यक्ति राष्ट्रपति या अन्य बड़े पद पर चुनाव लड़ने केलिए खड़ा हो जाता है तो उसके चुनाव में जीतने की संभावनाओं को बिगाड़ने के लिए कई नई पुस्तकें और खोजी लेख/रिपोर्टें बाज़ार में आ जाती हैं। ऐसा ही होता है किसी व्यवसायी के विरुद्ध। हिंडनबर्ग रिपोर्ट उसी शृंखला की एक कड़ी लगती है। बड़े व्यवसायों में लगे लोगों में प्रतिस्पर्धा के रूप में ऐसा तो चलता ही रहता है। इसमें कितना सच्च या झूठ है, यह तो तब ही पता लग पाता है जब इस रिपोर्ट की विस्तृत जांच होती है। यह मामला तो अडाणी और रिपोर्ट बनाने वालों के बीच का है। इसमें सरकार का किसी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं बनता।

कीमतों में उतार-चढ़ाव : शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव कोई नई चीज़ नहीं है। अनेकों बार ऐसा होता रहता है देश और विदेश में घट चुकी या संभावित राजनीतिक या वित्तीय घटनाओं के कारण । किसी देश में छिड़े युद्ध का प्रभाव भी शेयर बाज़ार पर पड़ता रहता है। इराक युद्ध इसका एक उदाहरण है। कई देशों में सत्ता परिवर्तन के कारण भी शेयर बाज़ार उड़ता/लुढ़कता रहता है। देश में चुनाव परिणाम में संभावित उलटफेर या सरकार की स्थिरता या अस्थिरता का बड़ा प्रभाव होता है। इस प्रक्रिया में कई लोग करोड़पति बन जाते हैं और कई सब कुछ लुटा बैठते हैं। तो इसमें किसी सरकार की प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष क्या भूमिका हो सकती है?

संज्ञान : इस सारे घटनाक्रम का यदि कोई अपने आप संज्ञान ले सकता है तो वह है सेबी या शेयर बाज़ार से संबंधित कोई अन्य संस्था। अभी तक इस मामले में कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं हुआ है। किसी वित्तीय घोटाले वाली बात भी अभी नहीं उभरी है। कुछ राजनीतिक दल अवश्य इसका राजनीतिक व चुनावी लाभ उठाना चाहते हैं। केंद्र व एनडीए की प्रदेश सरकारो में अडाणी ग्रुप द्वारा विभिन्न योजनाओं में किए निवेश पर अवश्य उंगली उठाई जा रही है। अडाणी ने अनेक ग़ैर-एनडीए शासित प्रदेशों मैं भी, जैसे राजस्थान, पश्चिमी बंगाल, आदि मैं वहाँ की अनेक विकास योजनाओं या औद्योगिक संस्थाओं में निवेश किया है या उधार दिया है। तो फिर यह कैसे हो सकता है कि जब वह ग़ैर-एनडीए शासित प्रदेशों मैं निवेश करते हैं तो उन्हें विकास का देवता माना जाये और जब वह यही काम केंद्र या एनडीए शासित प्रदेशों में करते है तो इसमें उन्हें सब काला-काला ही सूझता है।

क्वात्रोची व अडाणी : राहुल गांधी ने तो पूछा है कि मोदीजी बताएं कि अडाणी से उनके क्या संबंध हैं? पर इससे पूर्व तो उन्हें यह भी बताना होगा कि उनके परिवार के बोफ़र्स के सौदे में संलिप्त इटली के व्यवसाई स्वर्गीय क्वातरोची का उनके परिवार के साथ क्या रिश्ता था?

अब जबकि मामला उच्चतम न्यालय में विचाराधीन है तो इस सारे घपले में क्या हुआ, वह सब के सामने उजागर हो ही जाएगा। पर इतना तो स्पष्ट है कि जो कुछ भी अभी तक उजागर हुआ है उसके अनुसार तो कोई आपराधिक मामला सामने नहीं आया है। शेयरों के संबंध में जो भी शक उजागर किए गए हैं, इस मामले के संबन्धित कई प्रीतिष्ठित संस्थाएं हैं जो स्वत: जांच करेंगी ही। यदि किसी अनियंमितता के कारण कोई अपराध बनता है, तो उस पर सख्त-से-सख्त कार्रवाई अवश्य होनी चाहिए। फिलहाल तो विपक्ष हवा में ही तलवारें चला रहा लगता  है।

विपक्ष ने यह भी बड़ी दोहाई दी कि अडाणी के कारण ग़रीब जनता को करोड़ों की बड़ी चपत लगी है। पर इस मुद्दे पर विपक्ष भूल जाता है कि संसद के दोनों सदनों का काम न चलने देकर उन्होंने भी तो यही किया है । उन्होंने जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये की बलि संसद में कार्य न चलने देने पर चढ़ा दी। यह एक ज्वलंत उदाहरण है जनता के पैसे पर अपनी राजनीति चमकाने का। जब किसी विपक्ष के नेता के विरुद्ध किसी आपराधिक मामले में न्यायालय में मुक़द्दमा चल पड़ता है तो विपक्ष तर्क देता है कि अभी न्यायालय ने उसे दोषी नहीं ठहराया है और जब तक न्यायालय उसे दोषी क़रार नहीं कर देता तब तक वह निर्दोष है। पर इस मामले में विपक्ष की मांग तो इसके बिल्कुल विपरीत है। ऐसा लगता है कि वह चाहते हैं कि अदालत में कोई अपराध निर्धारित किए बग़ैर ही किसी को जेल भेज दिया जाए और अदालत के निर्णय के पहले ही उसे फांसी पर लटका दिया जाए।

फिलहाल तो मामला कुछ ठंडा पड़ गया लगता है। नेतागण कुच्छ प्रदेशों में विधान सभा चुनावों में भी उलझे बैठे हैं। संसद का सत्र जब 14 मार्च को दोबारा शुरू होगा तो पता चलेगा कि यह मामला फिर उठेगा या कि सब आया गया हो जाएगा।

 

 

अम्बा चरण वशिष्ठ

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