
मेरी औपचारिक शिक्षा खत्म होने के पहले ही मेरे गृह जिले के कई दोस्त सूरत में काम करने लगे थे और कम उम्र में ही वे अच्छी कमाई कर रहे थे। मेरी पक्की राय बन गई थी कि, सूरत देश का सबसे विकसित शहर होगा, जहां ज्यादातर कपड़ा और हीरा उद्योग में लाखों लोगों को रोजगार मिल जाता है। अस्सी के दशक में लगभग हर महीने ओडिशा से बेरोजगार युवक वहां कपड़ा उद्योग में काम करने जाया करते थे। अब तो ओडिशा के कई लोगों ने सूरत में अच्छा-खासा कारोबार जमा लिया है। कारोबारी संस्कृति के ही कारण सूरत आज फ्लाईओवर का शहर बन गया है और इंफ्रास्ट्रक्चर में सबसे आगे है।
लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान देश के सबसे गरीब राज्य ओडिशा में नरेंद्र मोदी ने कहा कि, गुजरात में दस लाख ओडिया लोगों के परिश्रम और त्याग का गुजरात की अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाने में बड़ा योगदान है। उन्होंने कहा कि सूरत, अलंग और दूसरे शहरों की समृद्धि में प्रवासी मजदूरों के परिश्रम का बड़ा योगदान है। मोदी ने यह भी कहा कि मेरा सपना समान विकास वाले नए भारत का है और वे वह दिन देखना चाहेंगे जब गुजरात के युवक नई संभावनाओं की तलाश में ओडिशा का रुख करेंगे। मोदी को शायद यह जानकारी नहीं थी कि 1750 से गुजराती भी ओडिशा में आते रहे हैं और राज्य की आर्थिक प्रगति में उन लोगों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। दरअसल 1866 के भीषण अकाल के बाद ओडिया श्रमिकों का बाहर जाना शुरू हुआ।
रेलवे बनने के बाद लोगों के आवागमन में काफी तेजी आई। शुरुआती प्रवासियों ने साठ के दशक में जब गुजरात में अपनी पैठ बना ली तो बाकी लोगों का वहां जाना भी आसान हो गया। आज कोई गांव-देहात का लड़का भी वहां पहुंच जाता है, क्योंकि उसे पता है कि उसका कोई दोस्त, परिचित या रिश्तेदार वहां काम दिलाने में उसकी मदद कर देगा।
सूरत की झुग्गियों में ओडिशा के मजदूरों का जीवन काफी मुश्किल भरा होता है। ज्यादातर मजदूर कुछ घंटे सोने के लिए कमरा किराये पर लेते हैं। छोटे-छोटे दड़बेनुमा कमरों में अस्वास्थ्यकारी स्थितियां जिंदगी को और मुश्किल बना देती हैं। कई बार पॉवरलुम मालिकों से 12-12 घंटे लगातार खड़े रहकर काम करने को लेकर झगड़े-झमेले भी होते हैं। ये औद्योगिक इकाईयां अधिकतर समय इनका शोषण करती हैं। हालांकि, औसतन मजदूर इतना कमा लेता है कि कुछ पैसा अपने घर भी भेज सके।
मोटे अनुमान के मुताबिक सूरत में ओडिशा के प्रवासी मजदूरों की संख्या करीब छह लाख है। इनमें करीब चार लाख तो गंजम जिले से ही हैं। इनमें करीब 30 प्रतिशत मौसमी प्रवासी मजदूर हैं। ये सभी मजदूर मोटे तौर पर हर साल हवाला के जरिये करीब 10,000 करोड़ रुपये अपने गृह राज्य में भेजते हैं। सूरत ही वह जगह हैं, जहां उन्हें बिना किसी औपचारिक शिक्षा और योग्यता के ठीक-ठाक आमदनी वाले काम मिल जाते हैं।
अपने गृह राज्य को इतनी मोटी रकम भेजने और गुजरात के औद्योगिक विकास में योगदान के बावजूद इन मजदूरों को नागरिक और राजनैतिक अधिकार हासिल नहीं हैं। 1979 के अंतर्राज्यीय प्रवासी मजदूर कानून पर अमल नहीं होता है। मजदूर नियमन कानून और बंधुआ मजदूर कानून को भी लागू नहीं किया जाता है। सूरत के मिल मालिक प्रवासियों को वहां मजदूर यूनियन बनाने की भी इजाजत नहीं देते हैं।
शहर में इन प्रवासी मजदूरों की कमाई 10,000 रु. से 15,000 रु. मासिक की हो सकती है। इस आमदनी का बड़ा हिस्सा वे अपने गांव भेज देते हैं। वे मनीऑर्डर और बैंक व्यवस्था का भी उपयोग करते हैं, लेकिन सूरत में एक अहम अनौपचारिक जरिया टपावाला का है।
सूरत में पैसे पहुंचाने के लिए टपावालाओं का एक लंबा इतिहास है। औपचारिक जरियों की कम उपलब्धता के कारण प्रवासी लोगों ने पैसे भेजने के लिए वैकल्पिक जरिया तलाश लिया था। शुरुआती दिनों से ही कुछ लोग सूरत से खासकर, ओडिया मजदूरों का पैसा लेकर आते और उनके गांव-घर में उसे दे जाते थे। नकदी पैसे को छुपाने के लिए ये कोई पुराने टीन का ट्रंक या बक्सा लेकर चलते थे और उन्हें डब्बावाला कहा जाता था। बाद में उन्हें टपावाला कहा जाने लगा।
ओडिशा की सरकार सीना ठोंक कर कहती है कि नवीन पटनायक ने राज्य और लोगों के विकास के लिये कई कदम उठाए हैं। वे यह दावा इसलिए करते हैं, क्योंकि नवीन पटनायक सरकार लगातार तीसरी बार राज कर रही है। लेकिन, प्रवासियों की संख्या घट नहीं रही है। फिर, सूरत में कुछ ओडिया लोगों ने अपनी प्रतिभा और हुनर से अपने को विकसित कर लिया है और अब वे वापस ओडिशा नहीं जाना चाहते, क्योंकि वहां उन्हें बेहतर अवसर नहीं दिखते। उनके पुश्तैनी जायदाद खाली हैं और खेत बंजर पड़े हैं। ओडिशा में खेती में काम करने को कोई मजदूर तैयार नहीं है। नवीन बाबू उन्हें एक रुपये किलो में चावल मुहैया करा रहे हैं। शहरी इलाकों में मजदूर पांच रुपये में खाना खा पा रहे हैं। ओडिशा में औद्योगिक प्रगति और प्रति व्यक्ति आय एक जगह ठहरी हुई है।
मैं यह सब इस सवाल को उठाने के लिए लिख रहा हूं कि किसी राज्य सरकार का दायित्व राज्य का कल्याण है या राज्य के लोगों का शोषण? अगर ओडिशा और गुजरात की तुलना की जाए तो गुजरात देश के सबसे गरीब राज्य ओडिशा से काफी आगे है। अब मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। क्या उन्हें ओडिशा के लोगों से किया चुनावी वादा याद आएगा कि वे सूरत में ओडिया मजदूरों का जाना रोक देंगे? कम-से-कम ओडिशा के कल्याण के लिए ही वहां करोड़ों रुपए के खदान घोटाले और चिट फंड घोटाले की सीबीआई जांच की मांग लंबे समय से की जा रही है।