‘आप’ के इंग्लैंड में शिक्षित अधिकांश सलाहकार, मतदाताओं से किए गए अस्थिर वादों को परिष्कृत लिबास पहनाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। निश्चित रूप से ये शब्दजाल पश्चिमी वामपंथी झुकाव और छद्मा हरा रंग वाले संगठनों से उधार लिए गए हैं। उदाहरण के लिए ‘दिल्ली में सौर ऊर्जा द्वारा 20 प्रतिशत बिजली उत्पादन’ का वायदा।
हावड़ा ब्रिज पर टैक्सी सड़क की उल्टी दिशा में फंसी पड़ी थी, जबकि चालक लाभ उठाने के लिए सड़क के बीचों-बीच बने विभाजक को आतुरता से पार गया। फंसी टैक्सी के रास्ते पर ही काले जहरीले धुएं छोड़ती हुई बड़ी-बड़ी बसें आगे की ओर बढ़ती जा रही थी। एक बस मेरे बगल में आकर इस तरह खड़ी हुई कि उसके साईलेंसर से निकलता धुंआ, सीधे मेरी खिड़की से होते हुए अंदर आ रहा था। बस संचालक वर्षों से दी जा रही डीजल पर अनुदान में कटौती का विरोध कर रहे थे। तभी बगल की कार में बैठे एक व्यक्ति की आवाज सुनाई दी, जो इसके लिए भ्रष्टाचार को दोषी ठहरा रहा था। यह सुनकर मैं सोचने पर विवश हो गया। आम आदमी पार्टी (आप) कोई नई नहीं थी। मेरा मूल राज्य पिछले 34 सालों में विभिन्न नामों के तहत ‘आप-स्टाईल’ शासन देख चुका है। वही विधि थी – कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्सा, महानगर में अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे प्रवासियों के लिए बिजली, पानी, दो-वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के झूठे वादे और भ्रष्टाचार खत्म करने का दावा। उम्मीदवारों की तस्वीरों वाले लगे हुए होर्डिंग्स हटा लीजिए और लाल झंडे वाली पोस्टर यहां-वहां लगा दीजिए और टेलिविजन स्टूडियो के बजाय सड़कों पर आक्रामक नारे लगाईए, अचानक 2013 की दिल्ली, 1978 का कोलकाता बन जाएगा।
लगभग एक दशक पुरानी यूपीए सरकार ने अब तक की सबसे विकट महंगाई देखी है, साथ ही साथ बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि भी। रोजगार उत्पादक आर्थिक गतिविधियों के बजाय, यूपीए की बैंक ऋण के रूप में ‘सुधार’ ने मुख्यत: संपत्ति महंगाई को बढ़ाया, जो उत्पादक रोजगारों के बजाय, मौजूदा संपत्ति के मूल्यों में वृद्धि में सहायक रहा। दूूसरी तरफ, विभिन्न योजनाओं और घोषणाओं के बावजूद, आधारभूत संरचनाओं में वृद्धि दर अपनी गति नहीं बनाए रख सका, जिसके कारण इनकी लागत में बेतहाशा वृद्धि होती गई। वितरण लागत और आय में असंतुलित विकास ने देश के निवेश को पटरी से उतार दिया। इसका असर यह हुआ कि बेरोजगारी दर अपने पुराने पांच प्रतिशत की दर को पार कर गई। ऐसी स्थिति में वित्त, बीमा और रियल इस्टेट या अर्थव्यवस्था कुछ समय बाद बर्बाद हो जाएगी।
तो इन सब ने ‘आम आदमी’ को कहां छोड़ दिया? जाहिर तौर पर किसी व्यवस्थित रूप में नहीं। आम आदमी अभी भी शहरों के किसी कोने में बढ़ती महंगाई के बीच अपनी जीवकोपार्जन के लिए संघर्ष कर रहा है। जबकि रोजगार के अवसर और वास्तविक आय बढ़ोत्तरी अभी भी स्थिर है। वास्तव में कुछ क्षेत्र में पिछले तीन सालों में आम आदमी की वास्तविक आय में कमी आई है। प्रवासी आम आदमी अपने ग्रामीण परिवार को कुछ नकदी उपलब्ध कराने के लिए शहरों में आता है, लेकिन यहां आकर उसे लगता है कि सवालिया निशान लिए इन वैधानिक प्रथाओं के जरिए, इसे पाने में वह असमर्थ है।
दूसरी तरफ आम आदमी देखता है कि इन बड़े शहरों के पॉश इलाकों में रहने वाले ‘खास आदमी’ सचमुच मोटे होते जा रहे हैं। ’धन प्रभाव’ पर सवार संपत्ति मालिकों को ‘विलासितापूर्ण जिंदगी’ पर खर्च करने के लिए बेहतर समय कभी नहीं होता। दुर्भाग्य से, संपत्ति मुद्रास्फीति से पैदा हुई असमानता, सकल उभोक्ता मांग के लिए कुछ खास नहीं कर सकती और उसके बदले में पहले से ही कमजोर निवेश मांग के लिए भी कुछ विशेष उम्मीद नहीं की जा सकती। मुद्रस्फीति और बेरोजगारी – दोनों ही मोर्चे पर निचोड़ा हुआ आम आदमी ने स्वभाविक रूप से झटका महसूस किया है।
अब, एक आम आदमी क्या कर सकता है? वह इस समय हो रहे नैतिक एवं वास्तविक भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हो सकता है। वह आसपास के क्षेत्रों में हो रही रियल इस्टेट के सौदों में ‘दलाली’ की तरफ उस तरह से देखेगा, जैसे शहरों में होने वाला यही एकमात्र ‘खेल’ है। वे बड़े शहरों में अपने मौजूदा आशियाने को भी बरकार रखने की कोशिश करेगा। लेकिन, किसी दूसरी अन्य चीजों से ज्यादा, वह ऐसे किसी चमत्कारिक मरहम की तरफ आकृष्ट होगा, जो दर्द से उसे जल्द से जल्द राहत दे सके।
‘आम आदमी पाटी’ (आप), सीपीआई (एम) की तीन दशक पुरानी कदमताल को मिला रही है। 70 के दशक के उत्तराद्र्ध में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंग्लादेश) से आए शरणार्थियों को सरकारी जमीन पर बसाने, मुफ्त पानी उपलब्ध कराने, राशन कार्ड देने और किसी भी तरह बिजली इस्तेमाल करने की छूट वाले वादे, विरोधी स्तर पर भी मुश्किल लगते हैं। आज ‘आप’ का रवैया और मतदाताओं से यह घोषणा कि बिजली-पानी का बिल मत दो, अवैध झुग्गियों का नियमितीकरण और हर परिवार, यहां तक कि अवैध कॉलोनी वाले परिवार को भी प्रतिदिन 700 लीटर मुफ्त पानी देने की घोषणा, सीपीआई (एम) की तरह ही भयावह है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे ‘शक्तिवद्र्धक दवाओं का लोकलुभावन’ प्रचार। हालांकि यह न तो नया है और न ही व्यवस्थित।
‘आप’ का दिल्ली के लिए बनाए चालाकी भरे घोषणा-पत्र के निर्माणकार अनुमानित तौर पर संगठन के विभिन्न सलाहकार समितियों में शामिल हैं। इन सलाहकार समितियों के कुछ सदस्य पूर्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं, जबकि अन्य सदस्यों में ज्यादातर लोग अपनी वामपंथी झुकाव के लिए जाने जाते हैं। ये विचार अच्छी तरह ज्ञात हैं। वे उत्पादन के बजाय वितरण पर जोर देते हैंं, वे स्थायित्वता के बजाय तत्कालिकता पर जोर देते हैं और वे मितव्ययिता के बजाय विविधता पर जोर देते हैं। वास्तव में, एक उपयुक्त पर्यवेक्षक के लिए ‘आप’ राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की तरह है, जिसने विभिन्न क्षेत्रों में कांग्रेस के भीतर दबाव और आपसी खींचतान के लिए राजनीतिक दल का गठन किया।
‘आप’ के इंग्लैंड में शिक्षित अधिकांश सलाहकार, मतदाताओं से किए गए अस्थिर वादों को परिष्कृत लिबास पहनाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। निश्चित रूप से ये शब्दजाल पश्चिमी वामपंथी झुकाव और छद्म हरा रंग वाले संगठनों से उधार लिए गए हैं। उदाहरण के लिए ‘दिल्ली में सौर ऊर्जा द्वारा 20 प्रतिशत बिजली उत्पादन’ के वादे को लेते हैं। किसी ‘सोलर फोटोवोल्टिक’ (पी.वी.) को प्रति मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए 6 से 8 एकड़ जमीन की जरूरत होती है। संकेन्द्रित सोलर पावर (सी.एस.पी.) की स्थापना के लिए प्रति मेगावाट के हिसाब से 12 एकड़ जमीन की जरूरत होती है। संकेन्द्रित सोलर पावर को थर्मल उत्पादन की अपेक्षा पी.वी. से प्रति यूनिट बिजली उत्पादित करने के लिए दुगनी पानी की आवश्यकता होगी। दिल्ली में ये सारी चीजें ‘आप’ कहां से लाएगी? अगर आवश्यक जमीन के लिए सिर्फ छतों का उपयोग करने का विचार है, तब बात सिर्फ सोलर पी.वी. की होगी, सी.एस.पी. की नहीं। अगर दिल्ली में छतों के हर इंच का इस्तेमाल सोलर पी.वी. के लिए किया जाय, फिर भी दिल्ली की कुल बिजली जरूरतों के 20 प्रतिशत की आंकड़े के नजदीक भी नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान देने की बात है कि यहां वास्तविक उत्पादन की बात हो रही है, कुल स्थापित क्षमता की नहीं। सोलर पी.वी., विंड पावर की अपेक्षा धीमी गति से काम करता है, जिसके कारण एक दिन में इसके उत्पादन में 0 से लेकर 90 प्रतिशत तक का अंतर देखा जा सकता है। इस तरह का अंतर्विराम ग्रिड एकीकरण के लिए एक बड़ा मुद्दा है और पारंपरिक बैक-अप की जरूरत के कारण इससे बिजली की कुल लागत और ग्रिड प्रबंधन खर्चों में वृद्धि होगी। इसके कारण ‘बिजली की कीमत आधी करने’ की अवधारणा की हार होगी।
लेकिन लोगों को फीलगुड कराने के चक्कर में ‘आप’ यहीं नहीं रूकता। उसने जनता से एक और खतरनाक वादा किया, वह है – हर परिवार को प्रतिदिन 700 लीटर पानी मुफ्त देने का। दरअसल यह वादा दिल्ली जल बोर्ड के ‘नो प्रॉफिट, नो लॉस’ (शून्य लाभ, शून्य हानि) को ध्यान में रखते हुए प्रतिपादित किया गया है। वर्तमान में दिल्ली जल बोर्ड को लगभग 450 करोड़ रूपए का लाभ हो रहा है। केजरीवाल और उनके जैसे लोग इसे लोगों में बांट देना चाहते हैं। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस पर बात करने को तैयार नहीं कि दिल्ली में खपत होने वाला पानी, सिर्फ अपने स्वयं के स्रोतों से नहीं मिलता। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए, दिल्ली पड़ोसी राज्यों से जल की आपूर्ति कराती है। गांधीजी हमेशा कहा करते थे – ‘‘जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक प्रकृति से लेता है, वो वास्तव में चोरी करता है।’’ 700 लीटर प्रतिदिन प्रति परिवार को मुफ्त पानी देना, दिल्ली के स्थापित मानकों को गिराते हुए इसके मनमाने प्रयोग को बढ़ावा देगा और दूसरों को इससे वंचित करेगा।
‘आप’ के वादे प्ररिष्कृत नहीं, बल्कि आभासी हैं और स्पष्ट तौर पर वे टिकाऊ नहीं हैं। यूरोप में पाईप वाली जल प्रणाली व्यवस्था, आगे बढऩे में असहज महसूस कर रही है, क्योंकि नदी बेसिन की अधिशहरीकृत आबादी पानी का बिल चुकाना नहीं चाहती। दिल्ली जल बोर्ड आज जो लाभ कमा रही है, उसका प्रयोग दिल्ली में जलापूर्ति सुनिश्चित करने के लिए होना चाहिए, न कि पाईप के जरिए पानी देने की अस्थायी और अव्यवहारिक वादों की पूर्ति के लिए। इस मामले में यूरोप का अनुभव बताता है कि यह व्यवस्था उसके लिए बहुत महंगी हो चुकी है और अनुदान के भरोसे चल रही है। वृहद मुद्दा यह है कि ‘आप’ विकसित दुनिया के ‘नैनी स्टेट्स’ वादों से परिपूर्ण है, जिसके कारण पश्चिम में वित्तीय संकट गहराया था।
यूरोप इसका प्रमुख उदाहरण है। लोकलुभावन वादों के बाद बढ़ते बिजली, खाद्य, पानी की लागत ने अर्थव्यवस्था को गिरती मांग और उभोक्ता ऋणग्रस्तता के भरोसे छोड़ दिया है। इस परिदृश्य में जनता और अधिक रियायत पाने के लिए आंदोलन करती है और राजनीतिक अर्थव्यवस्था, और अधिक सार्वजनिक ऋण स्वीकार करने के लिए बाध्य होती है। स्वभाविक है कि इसे निवेशक वर्ग पसंद नहीं करता और रोजगार बढ़ाने की गतिविधियों में कमी आने के कारण बेरोजगारी की दर आसमान छूने लगती है। सतही राजनीति, जहां अमीर तबका मितव्ययिता और गरीब, और अधिक रियायत की चाह रखते हैं, खुद ही नंगी हो जाती है।
लेकिन भारत की राजनीति उस रास्ते नहीं जाएगी। हमारे पास विश्व की सबसे श्रेष्ठ जनसांख्यिकीय उत्कृष्टता है और हमारे देश में शहरीकरण उतनी तेजी से नहीं हुआ, जैसा कि पूर्वी एशिया में हुआ। यह उन लोगों के लिए सुनहरा अवसर है, जो विश्व की पहली स्थिर और बड़ी अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं। हमारे युवा नौकरी चाहते हैं, मुफ्त का दिया हुआ सौगात नहीं। मतदाताओं के लिए आने वाला आम चुनाव आय से संबंधित है, किसी ऐसे मुफ्त के सौगात से संबंधित नहीं, जो सीमित समय के लिए मिले, जैसा कि कोलकाता के लोगों को मिला। आज नरेन्द्र मोदी देश भर में इन्हीं विचारों से लोगों को अवगत करा रहे हैं और लोग उनसे यही उम्मीद कर रहे हैं कि वे इसे व्यवहारिक तौर पर भी मुमकिन करें। नई नौकरी के अवसर उपलब्ध कराना ही सिर्फ चुनौती नहीं है, बल्कि उसमें मूल्यवद्र्धक स्थिरता रखना भी एक चुनौती है। आज सारी अर्थव्यवस्थाएं उत्तोलक विकास मॉडल को अपना रही हैं, जिसमें सरकार रोजगारपरक कार्यों के लिए ऋण लेती है और करों में बढ़ोत्तरी कर सार्वजनिक ऋण पर नियंत्रण रखने की कोशिश करती है। मुख्य चुनौती तकनीक और आधारभूत संरचना में निवेश की है, जिससे कि उत्पादकता और किफायती के जरिए ऊर्जा, खाद्य और पानी की बढ़ती लागतों को नियंत्रित किया जा सके और ऐसे वातावरण तैयार किए जा सकें, जिससे कि आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिले। गांधीजी कुटीर टेक्सटाईल्स उद्योग पर इसी लिए जोर देते थे, क्योंकि अकेला यही उद्योग था, जो 5 हजार सालों से भारतीय सभ्यता की कहानी कहता आ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज की अर्थव्यवस्था ज्यादा जटिल और जनसंख्या पहले से बहुत अधिक है, लेकिन यही वजह है कि गांधीवादी विश्वास आज सीमित संसाधनों में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
‘आप’ के पास देश के लिए कोई स्वदेशी दूरदर्शिता नहीं है, क्योंकि यह सबकी स्थिरता का समर्थन नहीं करता। दूसरी तरफ, यूरोपीय संकट के बाद, वहां के लोगों का जो दृष्टिकोण था, वही दृष्टिकोण ‘आप’के सलाहकारों का है। अब समय आ गया है कि अतीत के अस्थिर अवशेष वाली ‘आप’ के इस आर्थिक घोषणा-पत्र का खुलासा हो।
सौरव झा