हम जयप्रकाश चौकसे की लिखी सिनेमा की दो पुस्तकों पर बात करेंगे। चौकसे पिछले करीब छह-सात साल से दैनिक भास्कर में सिनेमा पर रोज एक कॉलम लिख रहे हैं। इनमें आपको न तो गॉसिप मिलेंगे और न ही किसी तरह का प्रचार मसाला, जैसा कि पुस्तक के आवरण पृष्ठ से आपको भ्रम हो सकता है। इसमें चौकसे ने फिल्मों की दुनिया के भीतर और बाहर की बातों को जगह दी है, उन्हें अपने ही नजरिए से देखा और परखा है। इन्हीं में से कुछ चुने हुए कॉलम को संकलित करके यह पुस्तक ‘सिनेमा का सच बनी है।राज कपूर की पचीसवीं पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए चौकसे उनकी सिनेमाई छवि और उनके व्यक्तित्व के विरोधाभासों पर बात करते हैं। चौकसे के अनुसार विचारों से राज कपूर सामंतवादी किस्म के थे लेकिन उन्होंने आम आदमी की समाजवादी फिल्में बनाईं। चौकसे को लगता है कि हिंदी सिनेमा साहित्य से दूरी बनाए रखता है जबकि सच यह है कि साहित्य के समझ के साथ अगर फिल्म बनाई जाएं तो वह सफल होती हैं। ‘साहब, बीवी और गुलाम्य, ‘गाइड्य, ‘तीसरी कसम्य, ‘चित्रलेखा्य, ‘देवदास्य, ‘परिणीता्य, ‘सरस्वतीचंद्र्य, ‘बंदिनी्य ये सब उपन्यासों पर आधारित बेहतरीन और सफल फिल्में हैं। सत्यजित राय की लगभग हर फिल्म साहित्यिक कृतियों पर आधारित रही है और हर फिल्म ने मुनाफा ही कमाया।
चौकसे की जिस दूसरी किताब पर मैं बात करने जा रहा हूं उसमें वह सिनेमा पर गांधी के प्रभाव की बात करते हैं। पुस्तक का नाम है – महात्मा गांधी और सिनेमा। इसमें वह भारत ही नहीं दुनिया के अन्य फिल्मकारों पर गांधी के प्रभाव की बात करते हैं। चैपलिन तो गांधी से प्रभावित थे ही। चैपलिन की समझ में एक बात नहीं आती थी कि गांधी को मशीनों से विरोध क्यों है। चैपलिन के इस सवाल के जवाब में गांधी कहते हैं कि इंग्लैंड जैसे ठंडे देश में मशीन आधारित उद्योगीकरण का रास्ता हो सकता है लेकिन भारत जैसे देश में ग्रामीण विकास हमारे स्वातंत्र्य संग्राम का वैचारिक हिस्सा है। इसके चार साल बाद चार्ली चैपलिन ने फिल्म मार्डन टाइम्स्य बनाई जिसमें मशीन द्वारा मनुष्य पर शासन के भविष्य का भयावह संकेत है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम और उससे जुड़े समाज सुधार कार्यक्रमों से फिल्मकार प्रेरित हुए हैं। हिंदी की बहुत सी फिल्में गांधी के संदेश को लेकर बनी हैं। ‘अछूत कन्या, ‘दुनिया न माने, ‘चंडीदास, ‘धरती माता, ‘रोटी आदि में ये संदेश देखे जा सकते हैं। स्वयं गांधी पर बहुत सी फिल्में बनी हैं। गांधी पर रिचर्ड एटनबरो ने फिल्म बनाई। श्याम बेनेगल ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास वाले गांधी को अपनी फिल्म ‘मेकिंग ऑफ महात्मा का विषय बनाया है। बहुत सी फिल्मों में गांधी का चरित्र हमें दिखाई देता है। एटनबरो के गांधी की भूमिका जहां बेन किंग्सले ने की थी तो बेनेगल के गांधी रजत कपूर बने। ‘लगे रहो मुन्ना भाई् में गांधी की भूमिका में मराठी अभिनेता दिलीप प्रभावलकर थे तो कमल हासन के ‘हे राम्य में नसीरुद्दीन शाह गांधी के रूप में नजर आते हैं। अनिल कपूर की फिल्म ‘गांधी,माई फादर्य के गांधी दर्शन जरीवाला थे। केतन मेहता की फिल्म श्सरदार पटेल्य में गांधी की भूमिका अन्नू कपूर ने निभाई। 2005 में जहानु बरुआ ने फिल्म बनाई थीए ‘मैंने गांधी को नहीं मारा । देश में गांधीवादी मूल्यों के पतन को देखते हुए इसके कथानायक डिमेंशिया के मरीज प्रोफेसर उत्तम चौधरी (अनुपम खेर) को लगता है कि उसने गांधी को मार डाला है। |
सुषमा |