
By कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
जब 1947 में देश का विभाजन हुआ तो उसकी सबसे ज्यादा मार पंजाब को ही सहनी पड़ी थी। लंदन सरकार ने जिस भारत स्वतंत्रता अधिनियम के आधार पर देश का विभाजन किया था, उसमें पंजाब के दो हिस्से कर दिये गये थे। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब। पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में दे दिया गया। इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी पंजाब से हिन्दू सिक्खों का पलायन पूर्वी पंजाब की ओर शुरु हुआ और पूर्वी पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की ओर शुरु हुआ। यह एक अलग कथा है कि उस पलायन में लाखों लोग मारे गये। उसको यहां दोहराने की जरुरत नहीं है। इन शरणार्थियों को बसाने और उनकी क्षतिपूर्ति के लिये दोनों देशों की सरकारों ने अलग से विभाग स्थापित किये। पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थी जिस-जिस प्रान्त में गये उनके पुनर्वास के लिये सरकार ने सहायता की। ये शरणार्थी देश के विभिन्न प्रान्तों में जाकर बस गये थे। पश्चिमी पंजाब के जिन जिलों से जम्मू-कश्मीर नजदीकपड़ता था, वहां से अधिकांश हिन्दू-सिक्ख शरणार्थी विभाजन के बाद वहां आकर बस गये। पश्चिमी पंजाब का स्यालकोट, गुजरांवाला जिला जम्मू के बिल्कुल पास था, इसलिये वहां से आने वाले पंजाबी जम्मू में आ गये। इनमें से जो थोड़े बहुत साधन सम्पन्न थे, वे तो दिल्ली, पूर्वी पंजाब या देश के अन्य क्षेत्रों में चले गये, लेकिन शेष दो लाख के लगभग लोग जम्मू में ही बस गये। वैसे भी तब तक जम्मू-कश्मीर रियासत भारत की सांविधानिक व्यवस्था का अंग बन चुकी थी।
लेकिन, इसे इन पंजाबी शरणार्थियों का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि आज लगभग सात दशक बीत जाने के बाद भी वे जम्मू में बस नहीं पाये। सरकार ने उनको क्षतिपूर्ति के एवज में मकान व जमीन नहीं दी। उनको राज्य के स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र नहीं दिया। जिसके कारण न तो वे जम्मू में मकान व जायदाद खरीद सकते हैं, न ही उनके बच्चों को सरकारी नौकरी मिल सकती है और न ही राज्य के सरकारी व्यवसायिक शिक्षा संस्थानों में दाखिला ले सकते हैं। इतना ही नहीं, वे पंचायत से लेकर विधानसभा तक के चुनावों में न तो खड़े हो सकते हैं और न ही वोट डाल सकते हैं। जब उनका वोट ही नहीं है तो कोई भी राजनैतिक दल उनकी ओर ध्यान भी नहीं देता। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन पंजाबी शरणार्थियों में से 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं। जब बाबा साहेब अंबेडकर ने दलित समाज के लोगों का आह्वान किया था कि वे किसी भी हालत में पाकिस्तान में न रहें, बल्कि खतरा सहकर भी हिन्दुस्तान में आ जायें, तब ये सभी पंजाबी जम्मू में आ गये थे।
पिछले दिनों इन पंजाबी शरणार्थियों के मन में भी आशा की किरण जगी, जब गृह मंत्रालय की संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी रपट में कहा कि इन शरणार्थियों को राज्य के स्थायी निवासी मानकर इन की समस्याओं का हल किया जाना चाहिये। लेकिन इस रपट ने कश्मीर के सभी राजनैतिक दलों को उनके असली रंग में लाकर खड़ा कर दिया है। जिस नेशनल कॉन्फ्रेंस ने आज तक सेक्युलिरिज्म का चोगा पहन रखा था और उसी चोगे में से गर्दन निकालकर सभी को सेक्युलिरिज्म का उपदेश देती रहती थी, वही इस मामले में तुरन्त अपना चोगा उतार कर असली सांप्रदायिक रुप में दिखाई देने लगी। नेशनल कॉन्फ्रेंस के महासचिव अली मोहम्मद सागर ने अलगाववादियों की हां में हां मिलाते हुये घोषणा कर दी कि यह प्रदेश की जनसंख्या आनुपातिकी बदलने का षड्यंत्र है और इसका हर हालत में विरोध किया जायेगा। लगभग इसी भाषा का प्रयोग सेक्युलिरिज्म के तथाकथित मसीहा उमर अब्दुल्लाह ने भी किया, लेकिन इस मामले में सोनिया कांग्रेस तो नेशनल कॉन्फ्रेंस की भी बाप निकली। बड़े मियां सो बड़े मियां, छोटे मियां सुभान अल्लाह। सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और हाल तक राज्य सरकार में मंत्री रहे ताज मोहिउद्दीन ने कहा कि पश्चिमी पंजाब से आये इन शरणार्थियों को किसी भी हालत में राज्य के स्थायी निवासी नहीं बनने दिया जायेगा। उसने यहां तक कहा कि पश्चिमी पंजाब के इन लोगों को वोट का अधिकार तो किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता।
हुर्रियत कान्फ्रेंस के तथाकथित नरम-गरम धड़े पश्चिमी पंजाब के इन शरणार्थियों को स्थायी निवासी मानने का विरोध कर रहे हैं। राज्य में अरब-ईरान से आकर बसे हुये सैयद पंजाब के इन दलितों का जम्मू में विरोध कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक भी विरोध में मुट्ठियां भींच रहे हैं। यह विरोध समझ में आता है। लेकिन सोनिया कांग्रेस भी इसका विरोध कर रही है, इसका क्या अभिप्राय है? क्या यह केवल इस पार्टी की पुरानी मुस्लिम तुष्टीकरण का हिस्सा ही है या इससे भी गहरे अर्थ हैं? ऐसा आभास हो रहा है कि कांग्रेस की शुरु से ही यह नीति रही है कि जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है और इसकी यह पहचान बनाये रखना कांग्रेस और राज्य सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। कांग्रेस की दृष्टि में जम्मू-कश्मीर में विकास मुख्य मुद्दा नहीं है और न ही प्राकृतिक न्याय व मानवाधिकार वहां प्रमुख मुद्दा है। वहां मुद्दा राज्य को किसी भी हालत में मुस्लिम बहुल बनाये रखना है। यही कारण है कि जब कश्मीर घाटी में से आतंकवादियों और अलगाववादियों के संयुक्त प्रयासों से लाखों हिन्दू-सिक्खों को भागना पड़ा तो सोनिया कांग्रेस चुप्पी साधे रही और एक प्रकार से अलगाववादियों की भाषा ही बोलती रही। सोनिया कांग्रेस यह अच्छी तरह जानती है कि डेढ़-दो लाख लोगों को जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी मान लेने मात्र से राज्य का मुस्लिम बहुल चरित्र बदल नहीं जायेगा। भारत में सोनिया कांग्रेस की मूल नीति मुस्लिम तुष्टीकरण पर आधारित है, इसलिये उस आधार को पुख्ता रखने के लिये वह पंजाब के शरणार्थियों को जम्मू में बसाये जाने का विरोध कर रही है। इसी मोड़ पर आकर जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस, सोनिया कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और अन्य अलगाववादी व आतंकवादी गिरोह एक ही भाषा बोलते दिखाई देते हैं।
एक निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद ने अपनी एक पार्टी बनाई हुई है, जिसे वे अवामी इत्तिहाद पार्टी कहते हैं। रशीद इन शरणार्थियों को उनके मानवाधिकार देने का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं। घाटी में गोष्ठियां वगैरह करके वे सभी लोगों को लामबन्द करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके अनुसार यह राज्य में मुस्लिम बहुमत समाप्त करने की भारतीय जनता पार्टी की गहरी चाल है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष यासीन मलिक तो इस मुद्दे पर सारी कश्मीर घाटी को बंद किये जाने की धमकियों पर उतर आये हैं। फ्रंट के एक और वरिष्ठ नेता जावेद अहमद मीर ने व्यंग्यात्मक लहजे में चुटकुला छोड़ा कि ये शरणार्थी हमारे सम्मानित अतिथि हैं, लेकिन इनको यहां का निवासी नहीं बनाया जा सकता। मीर का लहजा कुछ ऐसा था मानों जम्मू-कश्मीर उनके बाप-दादा की व्यक्तिगत सम्पत्ति है, जिसमें उनकी इजाजत से ही कोई कुछ अरसे के लिये रह सकता है। वे जब चाहेंगे किसी को अतिथि घोषित कर सकते हैं और जब चाहें उन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल सकते हैं। कश्मीर घाटी की ये सब पार्टियां पंजाब के इन शरणार्थियों को सभी अधिकारों से वंचित रखने के लिये एकमत ही नहीं हैं, बल्कि एक स्वर में बोल भी रही हैं। ताज्जुब है ये इस हमाम में नंगे हो जाने के बावजूद अपने आप को सेक्युलर और पंजाब के शरणार्थियों के अधिकारों के लिये लडऩे वालों को साम्प्रदायिक कह रहे हैं। सात दशकों से धक्के खा रहे इन शरणार्थियों को उनके उचित सांविधानिक अधिकार मिलते हैं या नहीं, ये तो समय ही बतायेगा, लेकिन इसने सोनिया कांग्रेस से लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस तक सभी राजनैतिक दलों की, वरास्ता हुर्रियत कान्फ्रेंस, पोल अवश्य खोल दी है। वैसे केवल जिज्ञासा के लिये, देश के जिस हिस्से में मुसलमान बहुमत में हों वहां किसी दूसरे मजहब के आदमी के बस जाने से सेक्युलरिज्म को क्या चोट पहुंचती है? कम से कम सेक्युलिरिज्म पर रोज खांसते रहने वाले जत्थों को तो इसका जबाव देना ही चाहिये। केवल रिकॉर्ड के लिये बता दिया जाये कि जम्मू में अपने अधिकारों के लिये लड़ रहे दलित समाज के इन शरणार्थियों के पूर्वज कुछ दशक पहले जम्मू से ही, रोजी-रोटी की खोज में पश्चिमी पंजाब के स्यालकोट में जाकर बस गये थे। विभाजन के बाद ये वापिस अपने जम्मू में लौट आये। अब इन्हीं को कश्मीर घाटी के तथाकथित सेक्युलर दल बेगाना बता रहे हैं