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शमशानघाट की राजनीति महेन्द्र कर्मा की शहादत को शत शत नमन

महेन्द्र कर्मा बस्तर के धरती पुत्र थे। वे समझ गए थे कि जब तक बस्तर के जनजाति समाज रुपी पानी को इतना गर्म नहीं कर दिया जाता कि इन मगरमच्छों का वहां रहना मुश्किल हो जाए या फिर वे उस गर्म पानी में दम तोड़ दें, तब तक नक्सलवादी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और न ही बस्तर पड़ोसी राज्य के मगरमच्छों के नियंत्रण से मुक्त हो पाएगा। जब तक पानी गर्म नहीं होगा तब तक ये मगरमच्छ बस्तर के जन जाति समाज को प्रदूषित ही नहीं करते रहेंगे, बल्कि इस जनजाति समाज की स्वतंत्र चेता छोटी-छोटी मछलियों को भी निगलते रहेंगे।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा चल रही थी। कांग्रेस इस यात्रा से प्रदेश में सत्ता परिवर्तन करना चाहती है। लेकिन मंच का दृश्य संकेत दे रहा था कि यात्रा के साथ-साथ पार्टी के भीतर ही परिवर्तन की आंधी चल रही है। केन्द्र सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री और सोनिया गांधी के खास-उल-खास जयराम रमेश मंच से सम्बोधन कर रहे थे। श्रोताओं में अधिकांश जन जाति समाज के ही लोग थे। महेंद्र कर्मा मंच पर बैठे थे। जनजाति समाज के लोग महेन्द्र कर्मा को बस्तर का शेर कहते हैं। लेकिन उसी शेर की स्थिति मंच पर दयनीय हो रही थी, जब जयराम रमेश ने व्यंग्य किया कि महेन्द्र कर्मा कभी बस्तर के शेर कहलाते थे, लेकिन अब ये शेर बूढ़ा हो गया है। जयराम रमेश ने सुस्त शब्द का प्रयोग किया था। उनकी नजर में बस्तर के लोगों का शेर अब सुस्त हो गया था। मंच पर बैठे महेन्द्र
कर्मा के चेहरे पर अनेक प्रकार के भाव आ जा रहे थे। लेकिन जयराम रमेश के संकेत स्पष्ट थे। वे क्या कहना चाहते थे यह तो वही जानें, संकेत यही था कि परिवर्तन की इच्छुक पार्टी में बूढ़े और सुस्त शेरों की कोई जरुरत नहीं है। ​

लेकिन दण्डकारण्य पर कब्जा जमाए बैठे नक्सलवादी जानते थे कि महेन्द्र कर्मा न तो सुस्त शेर है और न ही बूढ़ा शेर। वह उसी प्रकार का फुर्तीला शेर है, जिस प्रकार आज से दस साल पहले था। दरअसल, बस्तर के नक्सलवादियों को सोनिया गांधी के सेनापति अजीत जोगी से कोई खतरा नहीं है। नक्सलवादी जानते है कि यदि अजीत जोगी सत्ता में आते हंै तो दण्डकारण्य उनके लिए और भी सुरक्षित हो जाएगा। जयराम रमेश जैसे लोगों से भी उन्हें खतरा नहीं है, क्योंकि उनकी विकास यात्रा दिल्ली में संसद भवन से शुरु होकर 10 जनपथ पर जाकर समाप्त हो जाती है। नक्सलवादियों को असली खतरा परिवर्तन यात्रा के ठीक बीच में चल रहे महेन्द्र कर्मा से था। इसे बस्तर की त्रासदी ही कहना चाहिए कि महेन्द्र कर्मा को लेकर छत्तीसगढ़ में सोनिया गांधी के सेनापति अजीत जोगी भी असहज हो रहे थे और बस्तर के जंगलों में तांडव नृत्य करते नक्सलवादी भी भयभीत हो रहे थे। कांग्रेस को महेन्द्र कर्मा नहीं चाहिए था और छत्तीसगढ़ के नक्सलवादियों को महेन्द्र कर्मा हर हालत में चाहिए था।

25 मई 2013 को परिवर्तन यात्रा रेली के समाप्त होते ही अजीत जोगी, नवीन जिन्दल के एक मित्र के हेलीकॉप्टर में उड़ लिये और रायपुर पहंच गए और महेन्द्र कर्मा नक्सलवादियों के अड्डे दरबा घाटी में धर लिए गए। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट बताती है कि नक्सलवादियों ने महेन्द्र कर्मा  पर केवल 65 गोलियां ही नहीं चलाईं, बल्कि उनके शरीर पर तेज धारदार हथियारों से 65 से भी अधिक बार वार किये। महेन्द्र कर्मा को मारने के बाद नक्सलवादी उनकी लाश पर नाचते रहे और पैशाचिक अट्टहास करते रहे।

अपने साथियों को मरते देख महेन्द्र कर्मा खुद नक्सलवादियों के सामने यह कहते हुए आ गए थे कि मैं महेन्द्र कर्मा हूं। उनको लगा होगा इससे कम से कम उनके साथी तो बचेंगे। महेन्द्र कर्मा की यह

बहादुरी जान लेने के बाद, अब तो जयराम रमेश को शायद पता चल ही गया होगा कि महेन्द्र कर्मा बूढ़े और सुस्त शेर नहीं थे, बल्कि असली शेर थे, जिन्होंने मरते समय भी शेर जैसा व्यवहार ही किया। जयराम रमेश को शायद यह भी अहसास हो गया होगा कि दिल्ली में चिडिय़ाघर के शेर होते है, महेन्द्र कर्मा जैसे असली शेर बस्तर के जंगलों में ही पाए जाते है। महेन्द्र कर्मा की मृत्यु पर अजीत जोगी का चेहरा देखकर तरस ज्यादा आता था, गुस्सा कम।
अजीत जोगी, महेन्द्र कर्मा की लाश को आगे करके छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति राज की संभावनाएं तलाश रहे थे। इसके लिए नया नामकरण करना होगा शमशान घाट की राजनीति। शायद इसी प्रवृत्ति को सूंघ कर कई साल पहले 21 अगस्त 2008 को कर्मा ने रायपुर के प्रैस क्लब में कहा था-सरकार तो आती जाती रहती है । सरकार के अलावा भी कोई चीज होती है सोचने के लिये। जहां मौत नाचती हो वहां राजनीति नहीं करनी चाहिये। लाशों पर राजनीति करने वालों को शर्म आनी चाहिये।

इस भाषण पर टिप्पणी करते हुये एक पत्रकार ने लिखा था कि हालांकि उन्होंने अजीत जोगी का नाम तो नहीं लिया लेकिन जो कहा उसे सारे लोग समझ गये। लेकिन तब शायद महेन्द्र कर्मा को भी अन्दाजा नहीं होगा कि एक दिन अजीत जोगी उन्हीं की लाश पर राजनीति करना शुरु कर देंगे।

एक कहावत है कि अढाई घर तो डायन भी छोड़ देती है। लेकिन राजनीति की डायन तो शमशानघाट भी नहीं छोड़ती। महेन्द्र कर्मा की तलाश नक्सलवादी एक लम्बे अरसे से कर रहे थे। उन पर अनेक बार आक्रमण हुए। चौथी बार हमला 2012 में हुआ था। वे बच गए थे और उन्होंने अंग्रेजी भाषा के एक पत्रकार शुभ बागची को हंसते हुए बताया था कि मैं इतनी जल्दी समाप्त होने वाला नहीं हूं। मैं फिर वापस आऊंगा। वापस आने से उनका अभिप्राय कांग्रेस पार्टी में अपने विरोधियों को परे हटाते हुए मुख्य भूमिका में आने से था। ऐसा चमत्कार वे पहले भी कर चुके थे। शुभ बागची के ही शब्दों में 2003 में वे कांग्रेस के भीतर अंग्रेजी में चीं चीं करने वाली लॉबी को धता बताकर विधानसभा में विपक्ष के नेता चुने गए थे। दरअसल, महेन्द्र कर्मा दिल्ली की राजनीति की अंग्रेजी भाषा नहीं जानते थे। वे तो बस्तर की भाषाओं के खिलाड़ी थे। इसलिए बस्तर के लोग उन्हें घर का आदमी मानते थे।
ध्यान रहे अजीत जोगी के समर्थकों ने महेन्द्र कर्मा पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के एजेंट होने के आरोप लगाने शुरु कर दिये थे। महेन्द्र कर्मा का कांग्रेस में विरोध सलवा जडूम को लेकर था। जिन दिनों अजीत जोगी नक्सलवादियों को भटके युवा कह कर उनसे मेल-मिलाप की राजनीति कर रहे थे और मेल-मिलाप की उस धरती पर राजनैतिक वोटों की फसल काटने की कूटनीतिक चालें चल रहे थे, उन्हीं दिनों महेन्द्र कर्मा ने सलवा जुडूम आंदोलन चलाया था।

छत्तीसगढ़ में जो नक्सलवादी आंदोलन के इतिहास और उसके विकास से परिचित हैं, वे जानते है कि आंदोलन का नियंत्रण,

उसकी रणनीति आंध्रप्रदेश के तेलुगु भाषी नक्सलवादी नेता बनाते हैं और इस लड़ाई में बस्तर के निरीह जनजाति लोगों को ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

पूरी नक्सलवादी रणनीति की तीन शाखाएं हैं। पहली शाखा भूमिगत रहकर सशस्त्र आक्रमण करती है। दूसरा शाखा संगम कहलाती है और इसके सदस्य प्रकट रुप से कार्य करते है और लोगों को भर्ती करके पहले भाग के हवाले कर देते हैं। तीसरी शाखा ऐसे लोगों की है जो दिल्ली में बैठकर नक्सलवादियों द्वारा की गई हत्याओं को वैचारिक आवरण पहनाते हैं और इस पूरी लड़ाई को वैचारिक आंदोलन सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

यह शाखा नक्सलवादी गुरिल्ला लोगों के मानवाधिकार के लिए मीडिया के माध्यम से या कानून के माध्यम से लड़ाई लड़ती है। विनायक सेन जैसे लोग इस तीसरी शाखा का परोक्ष हिस्सा कहे जा सकते हैं। वे इन्हीं आरोपों के चलते कई साल तक जेल में रहे और अब कांग्रेस ने उन्हें योजना आयोग का सलाहकार बनाकर आभा मंडित किया है। यह कथा योजना आयोग  के सलाहकार डा. विनायक सेन से होती हुई रायपुर में अजीत जोगी तक पहुंचती है और वहां से बस्तर के जंगल में छिपे नक्सलवादियों तक जाती है। लेकिन वहां ठीक दंतेश्वरी के पास महेन्द्र कर्मा खड़े थे।

महेन्द्र कर्मा जनजाति समाज के अधिकारों के लिए सलवा जुडूम बना कर लड़ रहे थे और योजना आयोग के सलाहकार बने बैठे विनायक सेन नक्सलवादी गुरिल्लाओं के मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे गुरिल्ला जो आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र से आकर बस्तर के जनजाति समाज को अपनी क्रांति में बकरे की तरह झोंक रहे हैं। अंतर केवल इतना ही है कि विनायक सेन और अजीत जोगी के पास अपनी लड़ाई लडऩे के लिए दिल्ली में वकीलों की फौज है, जबकि बस्तर में खड़े महेन्द्र कर्मा के पास लडऩे के जज्बे के सिवा और कुछ नहीं था।

महेन्द्र कर्मा कहा करते थे कि नक्सलवादियों की ताकत उनकी बन्दूक़ में नहीं है बल्कि उनकी नेटवर्किंग में है और यह जमाना नेटवर्किंग का है। जिस नेता की नेटवर्किंग जितनी अच्छी, वह उतना ही बड़ा नेता। सलवा जडूम नक्सलियों की यही नेटवर्किंग तोडऩे की कोशिश कर रहा था। कर्मा नक्सलियों की ताक़त के रहस्य को तो समझ गये थे, लेकिन जब वे उसको तोडऩे की कोशिश कर रहे थे तो उनकी अपनी ही पार्टी ने धोखा दे दिया। ​

माओ ने एक बार कहा था गुरिल्ला उस मछली की तरह है जो स्थानीय सहयोग के पानी में रहती है। यदि स्थानीय सहयोग समाप्त हो जाए तो मछली मर जाती है। माओ के सूत्र वाक्य को जयराम रमेश, चिदम्बरम, मनमोहन सिंह कितना समझ सके, यह कहा नहीं जा सकता लेकिन नक्सलवादी नेतृत्व और महेन्द्र कर्मा इस सूत्र को अच्छी तरह जान गए थे। आंध्रप्रदेश के नक्सलवादी, बस्तर के जनजाति समाज को ऐसा पानी बनाना चाहते हैं जिसमें वे आसानी से तैर सकें और विधि द्वारा स्थापित सत्ता को चुनौती दे सकें।

कांग्रेस के भीतर बैठे दिग्विजय सिंह, जनार्दन दिवेदी, मनमोहन सिंह, जयराम रमेश, पी. चिदम्बरम और न जाने और कितने तथाकथित बुद्धिजीवी इन मछलियों को अपने ही भटके हुए भाई बंधु कह कर इनको मुख्य धारा में लाने के प्रयासों को ही नक्सलवादी समस्या का समाधान बता रहे है। उनके इन प्रयासों के चलते ही ये मछलियां धीरे-धीरे मगरमच्छ बन गईं। अजीत जोगी ने तो दूसरी ही राह पकड़ी। इन मगरमच्छों से अपने विरोधियों और आम जनता को डराने का धंधा शुरू कर दिया। इसे इतिहास का दुर्योग ही कहना चाहिए कि देश में जहां-जहां भी आतंकवाद पनपा, चाहे वह उत्तर-पूर्व हो या पंजाब या फिर असम का उल्फा, कांग्रेस ने इस आतंकवाद का इस्तेमाल सत्ता प्राप्ति के लिए हथियार के तौर पर किया।

लेकिन महेन्द्र कर्मा बस्तर के धरती पुत्र थे। वे समझ गए थे कि जब तक बस्तर के जनजाति समाज रुपी पानी को इतना गर्म नहीं कर दिया जाता कि इन मगरमच्छों का वहां रहना मुश्किल हो जाए या फिर वे उस गर्म पानी में दम तोड़ दें, तब तक नक्सलवादी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और न ही बस्तर पड़ोसी राज्य के मगरमच्छों के नियंत्रण से मुक्त हो पाएगा। जब तक पानी गर्म नहीं होगा, तब तक ये मगरमच्छ बस्तर के जन जाति समाज को प्रदूषित ही नहीं करते रहेंगे, बल्कि इस जनजाति समाज की स्वतंत्र चेता छोटी-छोटी मछलियों को भी निगलते रहेंगे।

महेन्द्र कर्मा का सलवा जुडूम आंदोलन बस्तर के भीतर जनजाति समाज रुपी पानी को गर्म करने का आंदोलन था, ताकि नक्सलवादी मगरमच्छों को मारा जा सके। सलवा जुडूम को बस्तर के लोग तो समझते थे, लेकिन दिल्ली में समझने के लिए कोई तैयार नहीं था। महेन्द्र कर्मा ने कभी तल्ख लहजे में कहा था, लोगों ने बस्तर देखा तक नहीं, वे जानते तक नहीं हैं सलवा जुडूम क्या है? वे जनजातियों को पहचानते तक नहीं हैं और ऐसे लोग बात करते हैं बस्तर की नक्सल समस्या पर।

उन्होंने कहा बस्तर का जनजाति समाज त्रस्त हो चुका है और वो कह रहा है नक्सलियों से कि बहुत हो चुका चले जाइए, हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए। उन्होंने सलवा जुडूम को स्पष्ट करते हुये कहा, ‘सलवा जुडूम आदिवासियों की अपनी मर्जी से जीने की अपील है। छोटा-मोटा आंदोलन होता है तो सारे देश और दुनिया में हंगामा होता है लेकिन इतना बड़ा आंदोलन जनजाति समाज का चल रहा है और वे अकेले हैं। देश क्यों नहीं खड़ा होता उनके साथ। आखिर क्या गलत कर रहे हैं वो। हिंसा के खिलाफ  बस्तर का अनपढ़ जनजाति समाज तनकर खड़ा है तो वो अपने दम पर। उसे किसी की मदद मिले या न मिले वो लड़ता रहेगा नक्सलियों से। आखिर ये उनके अस्तित्व की लड़ाई है। अगर वो हार गए तो हिंसा के
सामने अहिंसा हार जाएगी, सारा देश हार जाएगा। लेकिन न तो महेन्द्र कर्मा को कांग्रेस समझ सकी और न ही दिल्ली। कांग्रेस को तो सत्ता चाहिये और उस सत्ता प्राप्ति में नक्सली सहायक हैं या अवरोध? इसी के आधार पर विश्लेषण होता है। रहा प्रश्न दिल्ली का, दिल्ली अंग्रेजी भाषा समझती है और वहां पानी गर्म करने के लिए भी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। जबकि महेन्द्र कर्मा बस्तर में, स्थानीय जन जाति भाषा में, जंगल से ही बटोरे गए पत्तों और ईंधन से, पानी को गर्म करने में लगे हुए थे।

जाहिर है जनजाति वेशभूषा में जनजाति समाज के एक व्यक्ति को बस्तर के जंगलों में आग जलाते देख कर दिल्ली में खलनायक समझ लिया गया। मौके का लाभ उठाकर नक्सलवादियों की तीसरी शाखा ने दिल्ली में विदेशी भाषा और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके सलवा जडूम की बीच चौराहे पर हत्या कर दी। महेन्द्र कर्मा कहा था, ‘नक्सलवाद आतंकवाद का दूसरा चेहरा है। आप इसे सामाजिक आर्थिक शोषण के नजरिये से नहीं बल्कि प्रजातंत्र के खिलाफ  हिंसा के नजरिए से देखिए। इसे तत्काल राष्ट्रीय समस्या घोषित किया जाना चाहिए। ये रमन सिंह या महेन्द्र कर्मा के अकेले के बस की समस्या नहीं है।

नक्सलवाद के नाम पर लूट-खसोट और हिंसा का दौर समाप्त होना चाहिए। इसके लिए सबको राजनीतिक संकीर्णता को छोड़ एक साथ खड़ा होना होगा और जिस दिन सब एक साथ खड़े हो गए नक्सलवाद घंटों में नहीं मिनटों में मिट जाएगा। ‘लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य कहना चाहिये कि दिल्ली ने बस्तर की यह आवाज नहीं सुनी, बल्कि दिग्विजय सिंह अभी भी नक्सलियों को केजरीवाल का रास्ता सुझा कर समस्या का समाधान खोज रहे हैं।
जिस दिन दिल्ली में सलवा जुडूम की हत्या हुई उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि दिल्ली जीत गई है और बस्तर हार गया है। इस हत्या से बस्तर में बैठे महेन्द्र कर्मा मानो शस्त्र विहीन हो गए। पार्टी के भीतर के घातो प्रतिघातों से घायल, एक प्रकार से परित्यक्त, महेन्द्र कर्मा को दरबा घाटी में घेर कर मारना अब नक्सलवादियों के लिए कठिन काम नहीं था। लेकिन महेन्द्र कर्मा ने मौत का सामना एक बहादुर सेनापित की तरह किया। इसे क्या कहा जाए जो डा. रमन सिंह महेन्द्र कर्मा के सलवा जडूम आंदोलन का डटकर समर्थन कर रहे थे, कुछ लोग उन्हीं पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने महेन्द्र कर्मा को उचित सुरक्षा प्रदान नहीं की।
महेन्द्र कर्मा की सुरक्षा तो कांग्रेस ने उसी दिन छीन ली थी जिस दिन दिल्ली में सलवा जुडूम की हत्या का जश्न मनाया जा रहा था। सलवा जुडूम महेन्द्र कर्मा का भी सुरक्षा कवच था और बस्तर का भी। जब वह कवच हट गया तो महेन्द्र कर्मा कितने दिन तक बच सकते थे। कोई इस भले मानुष अजीत जोगी की तो सुनो, जो महेन्द्र कर्मा की लाश का सौदा राष्ट्रपति राज से करने की कोशिश कर रहे हैं।

जोगी से भी ज्यादा पहुंचे हुए एक और कांग्रेसी सज्जन हैं, जिन्होंने कहा महेन्द्र कर्मा को सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार स्थापित की जाए। खुदा का शुक्र है कि उसने यह नहीं कहा कि उसका मुख्यमंत्री अजीत जोगी को बना दिया जाए ताकि स्वर्ग में भी महेन्द्र कर्मा की आत्मा को शांति मिले। महेन्द्र कर्मा के साथ इससे बड़ा विश्वासघात क्या हो सकता है? महेन्द्र कर्मा को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि बस्तर में से नक्सलवाद समाप्त किया जाए और नक्सलवादियों की दूसरी और तीसरी शाखा की शिनाख्त कर ली जाए क्योंकि उनकी पहली शाखा तो भूमिगत ही रहती है। लेकिन कांग्रेस क्या ऐसा कर पाएगी? वैसे केंद्र सरकार ने इस आक्रमण की जांच का काम एनआईए को दिया है देखना यह है कि क्या योजना आयोग के सलाहकार की मांद में बैठे विनायक सेन से या फिर महेन्द्र कर्मा की लाश के नाम पर राष्ट्रपति राज की गुहार लगाने वाले अजीत जोगी से भी पूछताछ करने की हिम्मत जुटा पाएगी? महेन्द्र कर्मा की शहादत को शत शत नमन।

 

 

डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

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