आचार्य आर.एस. पंवार ने भारतीय विद्या भवन से ज्योतिश ज्ञान प्राप्त कर समाज को उसके प्रकाश से रोषन करने का संकल्प किया। वह भारतीय विद्या भवन के ज्योतिश संस्थान में ज्योतिश ज्ञान के जिज्ञासुओं को इस प्राचीन विद्या की शिक्षा दे रहे हैं।
प्रलय की अवधि में प्रकृति संतुलन में आ जाती है। तब न रात होती है और न दिन होता है। आकाश और पृथ्वी का भेद भी नहीं रहता। न अंधकार रहता है, और न प्रकाश। इस अवधि में पुरूष (सृष्टि का नारी रूप) प्रकृति (प्रकृति का नारी रूप) से पृथक हो जाता है। केवल कालरूप दृष्टिगोचर होता है। पुरूष ईश्वर का प्रथम प्रकट रूप है। प्रकृति उसकी क्रिया का संकेत चिन्ह है। कालरूप उसका पूर्ण स्वरूप है। ईश्वर पुरूष में प्रवेश करता है। वह सारी सीमाओं से परे है। उसका प्रवेश ही प्रथम चरण है। इस अवस्था में प्रकृति पुरूष में अंतर्निहित होती है और सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाती है।
इस बात को हम दूसरी तरह से भी कह सकते हैं। इस संसार में हर वस्तु किसी तत्व से बनी है। वस्तुएं सम्मिलन से बनी हैं। कंपाउंड मोलेक्यूलस से बने हैं। मोलेक्यूलस परमाणुओं से बने हैं। परमाणु अणु से बने हैं। एक की उत्पत्ति दूसरे से हुई है। सत्य के ये सारे स्तर सह-अस्तित्व में रहते हैं और एक-दूसरे से संपर्क करते हैं। इसी तरह मानव जीवन की संरचना है। मानव का निर्माण भौतिक पदार्थ से हुआ है। भौतिक पदार्थ से हुई हमारी संरचना सत्य के सूक्ष्म स्तर पर भी हुई है, जो अदृश्य, मूल तत्व का उत्पाद है, जिसे प्रकृति कहते हैं। जो ढीले-ढाले शब्दों में अप्रकट मुख्य तत्व भी कहा जा सकता है। इस प्रकृति (पदार्थ) में शुद्ध चेतन तत्व समाहित है, जिसे पुरूष कहते हैं। हर अन्य वस्तु प्रकृति से प्रकट हुई है, जिसे पुरूष से सन्निहित किया गया है। उदाहरण के लिए मनुष्य के सारे प्रकटीकरण के स्तर प्रकृति है, जिसमें पुरूष तत्व के आने से जीवन आता है। प्रकृति का अर्थ है, ‘जो आकार दे, रूप स्वरूप दे’। पुरूष शुद्ध चेतना है, जिससे संपूर्ण सृष्टि का चक्र चलता है। प्रकृति अपने लिए विभिन्न शस्त्र कैसे उत्पन्न करती है, इसे निम्न चरणों में बताया गया है –
पहला चरण- सर्वप्रथम, एकाकी महातत्व प्रगट हुआ। उसमें अन्य लघु तत्व समाहित थे।
दूसरा चरण- इस महातत्व से तीन अहं प्रकट हुए – सात्त्विक, रजस और तमस।>
तीसरा चरण- तमस ने तन्मात्रा नामक सूक्ष्म पदार्थ उत्पन्न किया। इसका नाम ध्वनि है।
चौथा चरण- ध्वनि ने आकाश उत्पन्न किया।
पांचवां चरण- आकाश से स्पर्श उत्पन्न हुआ। स्पर्श ने वायु उत्पन्न की। इस प्रकार स्पर्श वायु का मुख्य स्वरूप है। वायु को भी कोई देख नहीं सकता। इसे स्पर्श द्वारा केवल अनुभव किया जा सकता है।
छठा चरण- वायु ने रूप को उत्पन्न किया। जिससे अग्नि का जन्म हुआ। इसका मुख्य गुण रूप है।
सातवां चरण- अग्नि ने स्वाद को जन्म दिया। स्वाद ने जल को उत्पन्न किया। उसका मुख्य लक्षण स्वाद है।
आठवां चरण- जल से गंध का जन्म हुआ। जिसने पृथ्वी को उत्पन्न किया। उसका मुख्य लक्षण गंध है।
नौवां चरण- अहं रजस ने दस इंद्रियों को उत्पन्न किया।
दसवां चरण- हर इंद्री का नियंता एक देवता है। इन इंद्रियों को नियंत्रित करने वाले देवताओं का जन्म सात्त्विक अहं से हुआ।
ग्यारहवां चरण- ग्यारहवां तत्व बुद्धि , प्रकृति से सात्त्विक है। इसलिए बुद्धि सारी दस इंद्रियों पर शासन करती है।
प्रकृति, बुद्धि, अहं (सात्विक, राजसिक, तामसिक) तन्मात्रा, पांच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)- इन सारे तत्वों में असाधारण शक्तियां हैं। इन सब के संयोग के बिना ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति असंभव थी। आरंभ में ये सारे तत्व महाअंड में विद्यमान थे, जो ईश्वर की प्रेरणा से अस्तित्व में आए। जैसे-जैसे इस महाअंड का आकार बढऩे लगा, यह प्रकृति रूपी आधार बन गया। जिसमें भगवान विष्णु ने स्वयं हिरण्य गर्भ के रूप में प्रवेश किया।
आर. एस. पंवार
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