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गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। ऐसा करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में होनेवाले लोकसभा चुनाव के लिए अपना आखिरी दांव खेल दिया है। भाजपा कार्यकर्ता मोदी को लेकर उत्साहित हैं और इसकी बानगी उनके नाम पर हो रही रैलियों में दिखने लगी है। रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों की रैली में उमड़े हुजूम से तो मोदी विरोधियों के भी होश फाख्ता हो गए।
लोकसभा चुनाव में अभी कम से कम छह महीने बाकी हैं। ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि कांग्रेस समय से पहले चुनाव कराने का जोखिम उठाएगी। इसलिए मोदी के सामने भी इस पूरी अवधि में चुनाव प्रचार अभियान की धार को कुंद न पडऩे देने की चुनौती होगी। उनके पीछे भाजपा का पूरा काडर मजबूती से खड़ा है। उनके नाम पर रैलियां आयोजित करने की होड़ लग गई है। फिर भी चुनाव जीतने के लिए पार्टी काडर में उत्साह भर काफी नहीं है। इसके अलावा भी मोदी कई चुनौतियों से मुकाबिल होंगे। उन्हें भाजपा को अपने बूते चुनाव जिताने की बड़ी जिम्मेवारी निभानी होगी। विरोधियों ने चुनावी गणित का गुणा-भाग करना शुरू कर दिया है। विरोधी आश्वस्त हैं कि भाजपा अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकती। अधिकतर का मानना है कि सरकार बनाने के लिए मोदी को सहयोगी दलों की जरूरत पड़ेगी और उनके साथ कोई नया सहयोगी दल आसानी से खड़ा नहीं होगा। चुनाव से पहले तो शायद ही कोई उनके साथ खड़ा होगा। उनकी दलील है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी भाजपा दो सौ संसदीय सीटें नहीं जीत पाई थी। सरकार बनाने के लिए 272 सीटें चाहिए। आंकड़ा साफ है कि अगर भाजपा वाजपेयी-आडवाणी युग के श्रेष्ठ प्रदर्शन को दोहराने में भी कामयाब हो जाए तब भी उसे सरकार बनाने के लिए कम से कम सौ सांसदों के समर्थन का जुगाड़ करना होगा। भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का दायरा सिमट चुका है। उसका सबसे पुराना घटक जनता दल यूनाइटेड तो मोदी के नाम पर ही बगावत करके अलग हो चुका है। अकाली दल और शिवसेना से ज्यादा सीटों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अकाली दल सत्ता में है और अगले चुनाव में उसे शासन विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। शिवसेना का हाल भी अच्छा नहीं है। बाल ठाकरे के निधन के बाद पहली बार शिवसेना कोई बड़ा चुनाव लड़ेगी। बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे को नेता के तौर पर स्थापित होना बाकी है। शिवसेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है जिसकी कमान उनके चचेरे भाई राज ठाकरे के हाथ में है। राज ठाकरे की मराठी राजनीति उद्धव ठाकरे पर भारी पड़ती रही है। सो, अभी तो मोदी के लिए एनडीए की छाया भरी दोपहरी में खजूर के पेड़ की छाया से अधिक नहीं है। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार का खुलकर विरोध किया है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई शुभ काम शुरू होने पहले बिल्ली रास्ता काट जाए। यह बात और है कि आडवाणी का साथ दे रहे वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी और लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आकाओं के सामने नतमस्तक हो गए और आडवाणी अकेले पड़ गए हैं। लेकिन इन नेताओं के कद को कम करके आंकना मोदी के लिए भूल साबित हो सकती है। लोकसभा चुनाव होने तक भाजपा के अंदर कई दांव-पेंच लगेंगे। उम्मीदवार तय करने से लेकर निर्णायक चुनावी रणनीति अख्तियार करने में अनेक रोड़े खड़े होंगे। भाजपा के गणित शास्त्री भी मान रहे हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कम से कम 230 सीटों के लक्ष्य को तो प्राप्त करना होगा। वे यह भी मानते हैं कि दो सौ का आंकड़ा पार करना टेढ़ी खीर है। ऐसी स्थिति में चुनाव बाद के गठजोड़ की राजनीति में मोदी को अलग-थलग करने का खेल भाजपा के भीतर और बाहर खेला जा सकता है। भाजपा के अंदर आडवाणी और उनके समर्थक और बाहर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मोदी को दरकिनार करने की पूरी कोशिशें होंगी। फिर भी मोदी आत्मविश्वास से लबरेज हैं। पार्टी के भीतर और बाहर उनके प्रशंसकों का कुनबा से तेजी से बढ़ रहा है। उनकी रैलियों में उमड़ रहा जन सैलाब उनका संबल है। कांग्रेस गांवों की राजनीति पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है जहां देश का 70 प्रतिशत मतदाता रहता है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के बाद खाद्य सुरक्षा कानून को कांग्रेस अपने तुरूप के पत्ते के रूप में इस्तेमाल करने में जुट गई है। भाजपा के पास गांव के लोगों को रिझाने के लिए इससे बड़ी काट नहीं है। वह अभी महंगाई, भ्रष्टाचार बेरोजगारी के मुद्दे पर आगे बढ़ रही है। अभी तो आलम यह है कि मोदी की सभा उनके प्रशंसकों को उत्साहित करने वाली है लेकिन इस उत्साह को पलीता लगाने में लगे लोग मौके की तलाश में जुट गए हैं। मोदी की राहें कठिन हैं और उनके लिए भाजपा के भीतर और बाहर चुनौती तो बनी ही रहेगी। कविता पंत
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